सामान्य मनुष्य शायद गीता में वर्णित उच्च स्तर के तात्विक विचारों और तथ्यों को समझ नहीं पायेगा । विज्ञान भी अभी तक वहां पहुंचा न होगा । लेकिन हम यदि गीता के तत्वों को मान ले और यह समझ ले की संसार अनिश्चित, परिवर्तनशील और नाशवान है तो हमारे जीवन की अधिकांश चिताएँ और व्यर्थ की दौड धूप खत्म हो जायेगी । गीता के उपदेशानुसार यदि हम जीवन बिता सकें अर्थात मन स्थिर और शरीर क्रियाशील रख सके तो हम हमेशा स्वस्थ रह सकेगें । मन का स्थिर होना शरीर रुपी विद्युत यत्रं के लिये मानो “Voltage Stabilizer” का काम करेगा । राग द्वेष इत्यादि षडरिपुओं के कारण मन में और परिणामतः शरीर में उतार चढ़ाव होते है जिससे शरीर का स्वास्थ्य बिगडता है, उससे हम बच सकेगें । नकारात्मक विचारो से शरीर में विषैले रसायन उत्पन्न होते है, उनके दुष्प्रभाव से भी हम बच सकेगें|
गीता के अध्ययन
द्वारा, युवकों को जीने की कला (सकारात्मकता), वृद्धों को मृत्यु कि कला( अंत
समय में ईश्वर चिंतन), अज्ञानियों को ज्ञान , ज्ञानियों को नम्रता, अमीरों को दया
और करुणा व गरीबो को धीरज और श्रद्धा सीखने को मिलती है । बलवान को दिशा , कमजोर को बल, थके हुये को विश्राम व त्रस्त
व्यक्ति को सुकून प्राप्त करने के लिये गीता का मनन करना चाहिये । स्वप्न देखने
वालो को वास्तव का भान, सन्देह करने वालो को आश्वासन तथा व्यवहारिक संसारी लोगों
को उचित सलाह गीता पठन से प्राप्त होती है । घमण्डियो को चेतावनी देने,
नम्र लोगों को उन्नति का मार्ग दिखाने, पापियो को मुक्ति देने तथा समस्त मानव जाति को मार्गदर्शन देने मे गीता सक्षम है । इसलिये सभी को गीता का पठन
, अध्ययन, चिंतन , मनन तथा स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये।
हम सभी , किसी न किसी रुप मे, किसी न किसी समय अर्जुन की
स्थिती मे होते हैं । अतः गीता के उपदेश हम सभी के लिए हैं। गीता का अध्ययन करते
समय अर्जुन की जगह स्वंय को रखे।
1. अध्याय. 2 श्लोक से. 3 श्लोक तक. 4 वर्णित विषय
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3 |
4 |
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0 |
गीता महाभारत का एक भाग है। वेद व्यास रचित महाभारत
के 18 पर्व है । भीष्म पर्व के 13वें
से 42वें अध्याय तक गीता वर्णित है। मूल गीता 25वें अध्याय
से शुरु होती है। द्युत मे हारने पर शर्त के अनुसार पाण्डवो ने बारह वर्ष के
वनवास तथा एक वर्ष का
अज्ञातवास पूरा किया । वापस लौट
आने पर उन्होने दुर्योधन से आधा
राज्य मागां । दुर्योधन के अस्वीकार करने पर परिणाम स्वरुप पाण्डवो ने अपने
अधिकार के लिये युद्ध करने का निश्चय किसा
। धृतराष्ट्र स्वयं युद्ध देखना नही
चाहते थे लेकिन युद्ध की जानकारी चाहते थे । इसलिये
वेद व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि दी । संजय
10 दिन तक युद्ध स्थल मे ही रहे । भीष्म घायल होने पर संजय ने हस्तिनापूर जाकर धृतराष्ट्र को युद्ध के समाचार सुनाए । इस प्रकार सम्पूर्ण गीता भूत काल में है । गीता प्रमुख रुप से, भगवान श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का
संवाद है पर इसमें संजय के द्वारा कहे गये
कुछ श्लोक भी है । धृतराष्ट्र द्वारा
कहा गया एकमात्र श्लोक गीता का पहिला श्लोक
है । |
1 |
1 |
1 |
युद्ध भुमी पर इकठ्ठे हुये मेरे और पाण्डु के पुत्रो ने क्या किया ? |
1 |
1 |
19 |
संजय ने, दुर्योधन द्वारा वर्णित पाण्डव
व कौरव सेना के मुख्य- मुख्य महारथियो का वर्णन सुनाया । (10वे श्लोक में प्रयुक्त “अपर्याप्तं” शब्द का असीमित या अपर्याप्त अर्थ बताकर,
अलग-अलग टीकाकारो ने श्लोक के विपरीत अर्थ
बतायें है।) दोनो पक्षो की
सेनाओं द्वारा शंख वादन (12-19) का वर्णन
भी है । |
1 |
20 |
27 |
सारथी बने श्रीकृष्ण ने, अर्जुन की
इच्छानुसार, रथ को दोनो सेनाओं के मध्य में खडा किया ।
अर्जुन ने शत्रु के स्थान पर अपने सबंधी एवं गुरुजनो को देखा । |
1 |
28 |
30 |
अर्जुन द्वारा स्वंयम की मनस्थिती का वर्णन । उसने
अपनी शारीरिक अस्वस्थता भी कही ।( शोक जनित 8 चिन्ह)| |
1 |
31 |
46 |
अर्जुन द्वारा मोह वश व पाप के
भय से युद्ध न करने के कारण कहे
व युद्ध न करने का निश्चय किया ।( यहाँ मुख्यतः सम्बन्धीयो व कुल का विचार है।) |
1 |
47 |
47 |
संजय के शब्दो में अर्जुन रथ मे बैठ गये । (कुछ अन्य संस्करणों में 26 से 39 के बीच दो दो लाइन के 3
श्लोक के बजाय 3-3 लाइन के 2 श्लोक होकर केवल 46 श्लोक है।) |
2 |
1 |
3 |
संजय कहते है
कि श्री कृष्ण ने अर्जुन की यह स्थिती देखी और समझाते हुये बोले इस समय यह कायरता कहां से आई,
व श्रेष्ठ पुरुष के लिये यह उचित नहीं है । |
2 |
4 |
8 |
अर्जुन भगवान को कहते है मानसिक
दुर्बलता के कारण मै अपने कर्तव्य भूल गया हूं । मै
आपके शरणागत हूं। मेरा कल्याण हो ऐसा उपदेश दे । पर पुनः
युद्ध न करने (इस बार
गुरुजनो) के कारण भी बताते है ।[ युद्ध
न करने के प्रमुख
कारण हैं, मोह ( अपने गुरुजनों
और सम्बन्धियों का), भय( पाप लगने व आगे वर्ण सकंर सन्तानें पैदा होने
का) तथा सन्देह( युद्ध
में कौन जितेगा) इत्यादि] । |
2 |
9 |
10 |
संजय ने कहा कि इस प्रकार अर्जुन ने निश्चय पूर्वक कहा कि मैं युद्ध नही
करुगां । अब इसके बाद श्री कृष्णोपदेश प्रारंभ होता है | |
2 |
11 |
30 |
यहीं से गीता दर्शन
प्रारंभ होता है। आत्मा और शरीर अलग
अलग है ।आत्मा अवध्य व अकर्ता है । अतः आत्मा
न उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है, न मारती है न मरती है। यह एक
शरीर छोडकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है | [यह ज्ञान11
से 30 श्लोक तक साख्यं योग के अतंर्गत कहा गया है]| |
2 |
31 |
37 |
भगवान ने अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाई ।
अर्जुन के तर्को के विपरीत युद्ध न करने से होने वाली हानि व युद्ध करने से होने
वाले लाभ समझाए । कहा युद्ध न
करने से लोग समझेगें क्षत्रिय होकर भी तुम डर गये और युद्ध से पलायन किया है । य़ह
क्षत्रिय के लिये भारी अपकीर्ति होगी । |
2 |
38 |
38 |
भगवान कहते हैं जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान भाव से देखकर युद्ध करो । इस
प्रकार (युद्ध करने) से तुम्हे कोई पाप नहीं
लगेगा । यह श्लोक गीता
का सार है, और यही बात हर कार्य के लिये उपयुक्त है। 31से 38 तक के श्लोक का भाग वक्तृत्वकला व सामने वाले को कैसे समझाया जाय इसका उत्तम उदाहरण है । |
2 |
39 |
53 |
वे कर्म योग-सम/स्थिर बुद्धि और (सकाम कर्म न करते हुये) निष्काम कर्म की प्रेरणा
देते हैं। यह भी कहते हैं कर्म
करने में ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है । तुम्हारी
कर्म न करने की भी इच्छा न हो । ऐसा निष्काम
कर्म योग कहलाता है व इस योग से तुम कर्म
बन्धन से मुक्त हो जाओगे। |
2 |
54 |
54 |
अर्जुन पूछते है- स्थित प्रज्ञ (सम/स्थिर बुद्धि ) पुरुष कैसा
होता है। |
2 |
55 |
72 |
भगवान
स्थित प्रज्ञ के आचार-विचार के बारे मे विस्तार से समझाते
है। केवल इन्द्रियो को विषयो से हटाना प्रयाप्त नही है। विषयो मे
रुचि (रस बुद्धि ) को भी समाप्त करना चाहिये । रस बुद्धि रह जाय तो
इन्द्रिया(मन को हरकर) विषयो का चिन्तन करती है, चिन्तन से उन विषयो मे आसक्ति पैदा होती है, आसक्ति से कामना प्रबल होती है, कामना पूर्ति में यदि बाधा
आए तो क्रोध उत्पन्न होता है ,क्रोध से सम्मोह (मुढ भाव) और सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति
भ्रष्ट होने पर बुद्धि (विवेक) का नाश हो जाता है ।बुद्धि (विवेक) का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है.(62-63)
| इसलिए संयमी
मनुष्य सभी भोगो को (मन में) कोई विकार उत्पन्न किये बिना भोगता है । वह ईश्वर मे
मन- बुद्धि लगाकर
इसे (मन को) स्थीर करता है। वही व्यक्ति शांति
पाता है और वही स्थित
प्रज्ञ है। |
3 |
1 |
8 |
अर्जुन प्रश्न करते है सांख्य (ज्ञान ) अच्छा है तो कर्म क्यों किया जाय? मै भ्रमित हूं-क्या करुं ? इसके उत्तर में भगवान कर्म योग के
अनुसार कर्म करने की आवश्यकता बताते है
। कर्म करे बगैर कोई रह ही नही सकता व कर्म करे बगैर उसका
निर्वाह भी नही हो सकता । |
3 |
9 |
19 |
वे कहते हैं कर्म, यज्ञ (कर्तव्य) समझकर करे । ऐसा
कर्म करने के लिये सामग्री की कभी कमी न होगी तथा ऐसा करना सृष्टि चक्र चलने के लिये भी जरुरी है । जो लोग संसार से अलग होने के लिये कर्म नही
करते वे गलत है तथा जो केवल अपने (स्वार्थ) के लिये कर्म करते है वे चोर है | |
3 |
20 |
29 |
श्रेष्ठ मनुष्य ने लोक हितार्थ (लोक संग्रह के लिये) कर्म करना चाहिये। इससे सामान्य जन को कर्म करने की प्रेरणा
मिलेगी, क्योंकि श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है , दूसरे मनुष्य भी वैसे ही आचरण
करते है । |
3 |
30 |
35 |
राग द्वेष रहित होकर अपने स्वधर्म (Aptitude) के
अनुसार कर्म करना चाहिये
। |
3 |
36 |
43 |
अर्जुन प्रश्न करते हैं, मनुष्य
पाप कर्म क्यों करता है ? इसके
उत्तर में भगवान कहते है - काम ( राग, इच्छा ) के कारण मनुष्य पाप कर्म
करता है। इन्द्रियो के ऊपर मन है, मन के ऊपर बुद्धि है
और बुद्धि के ऊपर काम का
नियंत्रण है अतः अपने द्वारा अपने
को वश मे करके काम( राग, इच्छा ) को समाप्त करो । |
4 |
0 |
0 |
कर्म योग की दो बाते
मुख्य है । एक- कर्तव्य कर्मो का आचरण (जिसके बारे मे तीसरे
अध्याय मे जानकारी दी गई है) है।दूसरा-
कर्तव्य कर्मो की विशेष (तात्विक) जानकारी और यह चौथे अध्याय का विषय है।
इस प्रकार चौथे अध्याय को तीसरे अध्याय का भाग ही समझना चाहिये या ऊन्हें एक दूसरे का पूरक समझना चाहिये। |
4 |
1 |
3 |
सूर्य के समय से चली आ रही कर्म योग की परम्परा कालांतर मे मनुष्य लोक से लुप्त हो
गई। |
4 |
4 |
15 |
भगवान अपने जन्म और कर्म की दिव्यता
का वर्णन करते हैं। वे साधुओं की रक्षा, पापियो का नाश व धर्म की स्थापना
के लिये अवतार लेते हैं। |
4 |
16 |
32 |
कर्मो को (तत्व से) जानना कठीन है मगर जानना जरुरी भी
है । कर्म, अकर्म और विकर्म तीनो का ज्ञान करना
चाहिए । द्रव्य, तप, योग, संयम,
ज्ञान इत्यादि 12 प्रकार के यज्ञ (अर्थात कर्तव्य कर्म) की
जानकारी व महत्व यहां दिया गया है। |
4 |
33 |
42 |
यहां ज्ञान (यज्ञ) की
श्रेष्ठता का वर्णन है । ज्ञान को पाने का अधिकार जितेन्द्रिय, साधन परायण व श्रद्धावान मानव(अर्थात
सभी) को है। ऐसे अधिकारी लोगो ने ज्ञान रुपी तलवार से सन्देह को
काटना चाहिये । कर्म
योग से ज्ञान योग(यज्ञ) स्वतः ही संपन्न हो
जाता है । |
5 |
1 |
6 |
अर्जुन पुनः प्रश्न करते हैं
कि कर्म संन्यास (कर्म का परित्याग, साख्यं या ज्ञान योग) और कर्म
योग मे से कौन श्रेष्ठ है। भगवान उत्तर देते है साख्यं या ज्ञान योग व कर्म योग वास्तविक
रुप मे एक ही फल देते है (पर मूर्ख लोग इन्हे अलग अलग
मानते है) ।पर कर्म योग
साख्यं योग से सरल और श्रेष्ठ है। |
5 |
7 |
12 |
भगवान साख्यं और कर्म योगी के
लक्षणो का वर्णन करते है तथा अर्जुन को उनके साधन के
बारे मे समझाते है ।(बीच मे 10 वां
श्लोक भक्ति योग का) |
5 |
13 |
26 |
यहां भगवान साख्यं(ज्ञान) योग का विस्तार
पूर्वक वर्णन करते है। वे कहते हैं इन्द्रियो
और विषयो के संयोग से पैदा होने वाले भोग (सुख), आदि और अन्त वाले होने से अन्ततः
दुःख के कारण है ।इसलिये विवेकशील मनुष्य उनमे नही रमता । जो मनुष्य काम क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन
(नियत्रिंत) करने मे समर्थ है केवल वही सुखी है। |
5 |
27 |
29 |
यहां ध्यान योग(27-28) और भक्ति
योग (29) की जानकारी दी है। (इसी
अध्याय का10 वां श्लोक भी भक्ति
योग का है) । |
6 |
1 |
4 |
यहां भगवान पुनः स्पष्ट
करते है कि कर्म और
ज्ञान योग (फल में ) एक ही है । कर्म फल का त्याग करके जो कर्तव्य कर्म करता है वही सन्यासी (साख्यं योगी) है और वही योगी
(कर्म योगी) है । कोई केवल अग्नि
का त्याग करने से (सन्यासी) या क्रिया का त्याग करने से(कर्म योगी) नहीं होता है
। वे योग (कर्तव्य कर्म) प्राप्ति का उपाय व प्राप्त मनुष्य के लक्षण बताते है। |
6 |
5 |
9 |
भगवान आत्म (स्वयं के) कल्याण
के लिये प्रेरणा देते है |मनुष्य स्वयं ही स्वयं
का मित्र है और स्वयं ही स्वयं
का शत्रु है । स्वयं द्वारा स्वयं (अपने मन) को जीतो । सभी
पदार्थो (मिट्टी, पत्थर तथा
स्वर्ण)तथा जीवो (मित्र-वैरी, उदासीन-मध्यस्थ, धर्मात्मा-पापी) मे सम भाव रखो
। |
6 |
10 |
29 |
यहां ध्यान योग क्या है
व कैसा किया जाय इसका विस्तार से वर्णन
है। (सामान्यतः गीता में कहे गये उपाय साधन
निरपेक्ष है मगर यह साधन सापेक्ष उपाय है) । यह योग, यथा
योग्य आहार, विहार व कर्मो मे यथा योग्य चेष्टा करने वालो को ही प्राप्त
हो सकता है ( No
extremism) । यहां ध्यान योग को ही साख्यं योग कहा है
(श्लोक संख्या 29) | |
6 |
30 |
32 |
भक्ति योग का अर्थ है भक्त, सब प्राणियों मे भगवान को और भगवान में सब प्राणियों को
देखता है । |
6 |
33 |
34 |
अर्जुन शंका करते है, मन अत्यन्त चंचल है
इसलिये यह योग (समता) सम्भव नहीं लगता । |
6 |
35 |
36 |
भगवान
उत्तर देते है - यह योग (समता) मन का निग्रह, अभ्यास और वैराग्य से
सम्भव है। |
6 |
37 |
45 |
अर्जुन पूछते हैं जिसे योग
करने की श्रद्धा (इच्छा) है मगर
प्रयत्न मे कमी है उसे क्या फल मिलेगा या उसकी क्या गति होगी? भगवान उत्तर देते है कि वह
प्रयत्न जारी रखे । कोई भी कल्याणकारी कर्म व्यर्थ नहीं जाता है ।अगले
जन्म में भी वह पूर्व जन्म के प्रयत्न से आगे साधना निरतंर जारी रख सकता है।
|
6 |
46 |
47 |
तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी से भी योगी(
समता रखने वाला) श्रेष्ठ है और योगियो मे भक्त योगी श्रेष्ठ है। |
7 |
1 |
7 |
यहां से भगवान स्वयं का समग्र रुप (ज्ञान सहित विज्ञान) स्पष्ट करना शुरु करते हैं | पचं महाभूत- (पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश) तथा मन,
बुद्दि व अहंकार इस प्रकार यह 8
प्रकार वाली अपरा प्रकृति और परा (जीव रुप) मे
स्वयं को मूल कारण होना बताया है| परा व अपरा प्रकृति के सयोंग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते है। भगवान सम्पूर्ण जगत की
उत्पत्ति( प्रभव) और विलय
(नष्ट) के मूल कारण है । |
7 |
8 |
12 |
इन श्लोको में कारण रुप
में भगवान की
विभुतियों का वर्णन किया गया है । सात्विक, राजस व तामस इन त्रिगुणो का पहली बार यहां उल्लेख है । |
7 |
13 |
19 |
गुणमयी माया के प्रभाव से भगवान के शरण न
होने वाले आसुर है
।(आसुर प्रकृति का विस्तृत विवरण अध्याय16 मे है )। इस कारण (भगवान
के शरण न होने से) उनकी क्या गति होती है
इसका यहां वर्णन है । भगवान को
मानव (भक्त) चार कारणो से
शरण जाते है। 1
अर्थार्थी (पैसे के लिये) 2आर्त( सकंट से छुडाने के लिये) 3. जिज्ञासु
व 4. ज्ञानी| अर्थार्थी या आर्त भी भक्त
है, क्योंकि, इन्होंने (संसार से उम्मीद छोडकर) केवल भगवान पर भरोसा किया है । पर ज्ञानी भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय है । |
7 |
20 |
23 |
भगवान को समर्पित (शरण) न होने वाले और देवताओं को पूजने वालो (निकृष्ट मानवो) को नाशवान फल मिलता है। |
7 |
24 |
30 |
यहां भगवान के प्रभाव को जानने और न जानने वालो को मिलने वाले फल क्रमशः मोक्ष और जन्म -मृत्यु चक्र का वर्णन
है । शब्द ब्रम्ह,
अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव , अधियज्ञ शब्दो का उल्लेख (शब्दो
की व्याख्या 8 वे अध्याय में) यहां है । |
8 |
0 |
0 |
इस अध्याय मे प्रमुखतः मृत्यु के
पश्चात मानव की गति का वर्णन है
। |
8 |
1 |
2 |
यहां अर्जुन
भगवान से ब्रम्ह, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव व अधियज्ञ(अध्याय 7 श्लोक 29-30 में कहे गये शब्दो) के अर्थ पुछते है । साथ
ही अन्त काल मे वे (भगवान) कैसे जाने जाते है ? ये 7 प्रश्न करते है। |
8 |
3 |
7 |
भगवान कहते है, परम अक्षर ब्रह्म है, परा प्रकृति अध्यात्म है (सत्ता को प्रकट करने वाला), त्याग कर्म कहा
जाता है । नाशवान पदार्थ अधिभूत है, पुरुष ( इसका विस्तृत्व
विवरण अध्याय 13 मे है ) अधिदैव है तथा देह में (अन्तर्यामी रुप से ) स्वयं ईश्वर
अधियज्ञ है। अन्त काल मे जो जिसको स्मरण करता है उसी के अनुसार वह उस गति को
प्राप्त होता है | इसलिये (अन्त काल निश्चित न होने) वे हर क्षण ईश्वर स्मरण कर कर्तव्य कर्म (यहां युद्ध ) की
प्रेरणा देते है । |
8 |
8 |
15 |
यहां सगुण-निराकार,
निर्गुण- निराकार और सगुण-साकार (निर्गुण-साकार रुप नही होता) स्वरुपो का
वर्णन है । अन्तकाल में जो जैसा चिन्तन करता है उसके
अनुरुप उसे गति मिलती है ऐसा बताया है। |
8 |
16 |
22 |
यहां ब्रम्ह
लोक का वर्णन है । ब्रम्ह लोक तक पुर्न जन्म है । यह लोक ईश्वर निवास (या
परम धाम) से अलग है| |
8 |
23 |
27 |
इन श्लोको मे शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष
मे मृत्यु होने पर मिलने वाली गति का वर्णन है। |
8 |
28 |
28 |
इस अध्याय मे वर्णित ज्ञान का महत्व व फल का वर्णन
है । यह फल, वेदो, यज्ञो, तपो तथा दान में
कहे गये पुण्य फल से भी अधिक है। |
9 |
0 |
0 |
अर्जुन द्वारा मरणोपरान्त गति के बारे
में पूछे गये प्रश्न के कारण, भगवान ने आठंवे अध्याय मे उसकी जानकारी विस्तार
से दी है । मगर भगवान का 7 वे अध्याय से समग्र
रुप “ज्ञान सहित विज्ञान” के कहने का
जो प्रवाह रुक गया था वह अब पुनः शुरु हुआ। |
9 |
1 |
10 |
यहां परम गोपनीय ज्ञान, विज्ञान एवं
उसके प्रभाव को पुनः समझाया
है । यही ज्ञान जन्म-मरण से मुक्ति दिलाता है । सम्पूर्ण प्राणी ईश्वर में स्थित रहते है । (भूतो के) महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन भी यहां
है | ईश्वर
की अध्यक्षता में प्रकृति सम्पूर्ण संसार की रचना करती है।प्रकृति परिवर्तनशील है इसीलिए जगत मे परिवर्तन होता रहता है। |
9 |
11 |
15 |
इन श्लोको मे अलग अलग प्रकार- आसुरी,
दैवी तथा अन्य- के लोगो का वर्णन है और उनके उपासना के प्रकार व परिणाम के
बारे मे भी बताया है । |
9 |
16 |
19 |
यहां कार्य कारण रुप से भगवान के स्वरुप व विभुतियों
का वर्णन है । भगवान सम्पूर्ण जगत को धारण व पोषण करने वाले है । |
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25 |
भगवान कहते हैं किसी कामना से की गई
(सकाम) उपासना का फल नाशवान होता
है । निष्काम
उपासना करने वालो का योग (भगवत
प्राप्ति) व क्षेम (साधन की रक्षा) भगवान स्वंय करते है। (इसीसे LIC का
ध्येय वाक्य “योगक्षेम
वहाम्यहं” बना है।) |
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26 |
33 |
भगवान की पूजा मे
निश्चित विधि विधान की आवश्यकता नही है। पूजा प्रेमपूर्वक श्रद्धा से की जाय तो भक्त द्वारा अर्पण किए गये पत्र,
फल, जल या क्रिया इत्यादि को वे सहर्ष स्वीकार करते है। पुजा या भक्ति के 7
अधिकारी- दुराचारी,पापी, स्त्री, वैश्य, शुद्र, पवित्र आचरण करने वाले ब्राह्मण,
ऋषि स्वरुप क्षत्रिय-है। अर्थात सभी अधिकारी है। |
9 |
34 |
34 |
यहां भक्ति या भजन का स्वरुप और फल का वर्णन है । अपने आपको भगवान से पूर्णतया जोड लिया जाय तो भगवत प्राप्ति होती है।क्रमशः |
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