गीता
में ‘योग’ शब्द के अलग-अलग अर्थ हैं । पहला अर्थ जो मुख्यरूप से है-‘समत्वं योग उच्यते’(गीता 2/48) -समत्व (ही) योग कहा जाता
है; दूसरा अर्थ है-‘यत्रोपरमते चितं निरुद्धं योगसेवया’ (गीता 6/20) – चित्त की स्थिरता; तीसरा अर्थ है-‘पश्य मे योगमैश्वरम्’(गीता 9/5) – संयमन, सामर्थ्य, प्रभाव । विशेष यह है कि गीता में जहाँ कहीं तीनो मे से एक अर्थ के संदर्भ मे ‘योग’ शब्द आया है, उसमे दूसरे अर्थ भी समाहित हैं । अन्ततः मन की समता (जो मन की स्थिरता से अलग है) से ही
स्थिरता और सामर्थ्य आता है । साररुप में गीतानुसार चित्तवृत्तियों-इन्द्रियों, मन,
बुद्धि- ( जो प्रकृति से जुडी होकर सतत बदलती रहती हैं) से सर्वथा
सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध समरूप में स्वाभाविक स्थिति- योग है ।
समता अर्थात् (नित्य) योग का अनुभव कराने के लिये गीता मे तीन योग मार्गों-साधनों
का वर्णन किया गया है । कर्मयोग,
ज्ञानयोग और भक्तियोग- ये तीन ही योग हैं । शरीर (अपरा
प्रकृति)- को लेकर कर्मयोग है, शरीरी (देही या आत्मा समान अर्थी हैं-परा प्रकृति)- को
लेकर ज्ञानयोग है और शरीर- शरीरी दोनों के मालिक
(भगवान)- को लेकर भक्तियोग है । (अपरा प्रकृति में आठ तत्व है- पंच महाभूत के अलावा मन, बुद्धि,
एवं अहंकार हैं । परा प्रकृति 'चेतन तत्व' है जिससे समस्त जीवन व्यक्त होते हैं। नवीनतम शब्दावली
में हम परा प्रकृति को 'ईश्वरीय तत्व' ((गॉड
पार्टिकल)) कह सकते हैं । परा प्रकृति (शक्ति, चेतना) से अपरा प्रकृति के परिवर्तित विभिन्न रूप, देह आदि धारण किए जाते
हैं । मनुष्य कर्मयोग से जगत् के लिये, ज्ञानयोग से अपने लिये और
भक्तियोग से भगवान के लिये उपयोगी हो जाता है । कर्मयोग मे (भगवान) से समीपता होती है, ज्ञानयोग से अभेद होता है
और भक्ति योग से अभिन्नता होती है । भगवान् ने गीता के आरम्भ में पहले शरीरी को लेकर और फिर शरीर को लेकर क्रमशः ज्ञानयोग और कर्मयोग का वर्णन
किया । फिर ध्यानय़ोग (छठें अध्याय में)
का वर्णन
किया क्योंकि वह भी कल्याण करने का एक साधन है । फिर सातवें अध्याय से भक्ति का
विशेषता से वर्णन किया है । अतः गीता पहले ज्ञानयोग फिर कर्मयोग, फिर भक्तियोग यह (बढते
श्रेष्ठता का) क्रम मानती है । गीता कर्मयोग को
ज्ञानयोग की अपेक्षा विशेष मानती है-‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’(गीता 5/2) कारण की ज्ञानयोग के बिना कर्मयोग हो सकता है- ‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’(गीता 3/20) पर कर्मयोग के बिना ज्ञानयोग
होना कठिन है-‘सन्न्यासस्तु महबाहो
दुःखमाप्तुमयोगतः’(गीता 5/6) । कर्मयोग, ज्ञानयोग दोनो परमात्म (समता)
प्राप्ति के स्वतन्त्र साधन होकर , ये किसी वर्ण और आश्रम पर किंचितमात्र भी
अवलम्बित नही हैं । कर्मयोग और ज्ञानयोग -दोनो
में से एक की सिद्धि होने पर साधक दोनो के फल को प्राप्त कर लेता है (गीता
5/4-5) ।
एक विलक्षण बात और है कि गीता ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनो को समकक्ष और लौकिक बताती है-‘लोकेSस्मिन्द्विविधा निष्ठा’(गीता 3/3) । क्षर (जगत्) और अक्षर (जीव)-दोनो
लौकिक हैं- ‘द्वाविमौ
पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर च’(गीता 15/16), इस संसार में क्षर-नाशवान और
अक्षर-अविनाशी ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं । पर भगवान अलौकिक है-‘उत्तम पुरुषस्त्वन्यः’(गीता 15/17), उत्तम पुरुष तो कोई अन्य-विलक्षण
है । क्षर को लेकर कर्मयोग, और अक्षर को लेकर ज्ञानयोग चलता है; अतः कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनो लौकिक है । परन्तु भक्तियोग भगवान् को लेकर
चलता है; अतः भक्तियोग अलौकिक है । गीता में कर्मयोग के
वर्णन में ज्ञानयोग- भक्तियोग की, ज्ञानयोग के वर्णन
मे कर्मयोग- भक्तियोग की और भक्तियोग के वर्णन में
ज्ञानयोग- कर्मयोग की बात भी आ जाती है । इसलिये किसी एक योग की पूर्णता होने पर तीनो योगों की पूर्णता हो जाती है । गीता मे वर्णित कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग
करण-निरपेक्ष (अर्थात अन्य किसी साधन की सहायता लिये बिना) स्वयं से होने वाले हैं
। {करण-Instrument- इंद्रिय को संस्कृत भाषा में 'करण' भी
कहते हैं । इंद्रिय शरीर का वह अवयव है, जिसके
द्वारा हम कोई काम करते हैं या कोई ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा और पांच कर्मेंद्रियों - मुंह, हाथ,
लिंग, गुदा और पैर हैं । इनके द्वारा हम
स्थूल कर्म किया करते हैं । ये
बाहरी इंद्रियां कहलाती हैं या ये दस बहिःकरण है तथा मन,बुद्धि
अहंकार-ये तीन अन्तःकरण हैं । इंद्रिय के द्वारा हमें बाहरी विषयों - रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द - का तथा आभ्यंतर विषयों - सुख
-दुःख, ऱाग-द्वेष आदि-का ज्ञान प्राप्त होता है ।
इंद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं कर सकते। }
हम
आगे बढें इससे पहले- गीतानुसार चित्तवृत्तियों (इन्द्रियों, मन, बुद्धि) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध समरूप
में स्वाभाविक स्थिति, योग है – इसका अर्थ या देह-देही (शरीर-शरीरी) के भेद को समझ ले । यह भेद ही
योग का आधार या प्रेरणा है । स्थूल, सूक्ष्म और
कारण-ये तीन शरीर (देह) हैं । अन्न-जल से बना हुआ स्थूल शरीर है । यह स्थूल शरीर इन्द्रियों का विषय है । इस स्थूल शरीर के भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच
कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्वों से बना सूक्ष्म शरीर
है । यह सूक्ष्म
शरीर इन्द्रियों का विषय नही है, प्रत्युत बुद्धि का विषय है । जो बुद्धि का भी विषय नही है, जिसमे प्रकृति-स्वभाव
रहता है, वह कारण शरीर है । ये तीनो ही जानने मे आकर सतत बदलते
रहते हैं । इन सबसे अतीत देही (स्वरूप) है । सामान्य रुप मे देही स्वयं को देह समझकर संसार मे-से राग-द्वेष पूर्वक व्यवहार
करता है और सुख-दुःख पाता है । पर जब देही (जिवात्मा) प्रकृति को छोडकर अपने स्वरूप मे स्थित हो
जाता है, तब यह अपने आपसे अपने आपको जान लेता है । देही अलग
है और देह अलग है- यह विवेक होना बहुत जरूरी है, इसके बिना कोई -सा भी योग
अनुष्ठान (पूर्णता) में नही आयेगा । इतना ही नहीं,
स्वर्गादि लोको की प्राप्ति के लिये भी देही-देह के भेद को मानना-जानना जरूरी है । कारण की देह से अलग देही न हो, तो देह के मरने के बाद स्वर्ग कौन जायगा ? इस ज्ञानयोग (देही-देह के भेद , सांख्ययोग) का वर्णन गीता में अध्याय दो (ग्यारहवें
श्लोक से तीसवें श्लोक तक) में किया गया है । देह-देही के भेद का ठीक-ठीक विवेक (ज्ञान) होने पर समता
में अपनी स्वतः सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है । कारण की देह में राग (आसक्ति) रहने से ही विषमता आती है ।
स्थूल,
सूक्ष्म और कारण- इन तीनों शरीरों का संसार के साथ अभिन्न सम्बन्ध है । अतः इन तीनों को दूसरों की सेवा में लगा दे-यह कर्मयोग हुआ
। स्वयं इनसे असंग होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाय-यह ज्ञानयोग हुआ; और स्वयं भगवान् के समर्पित हो जाय
-यह भक्तियोग हुआ । जिसमें करने की रुचि है, वह कर्मयोग का अधिकारी है । जिसमें
स्वयं को जानने की जिज्ञासा , बुद्धि व शक्ति
है, वह
ज्ञानयोग का अधिकारी है । जिसका भगवान् पर विश्वास,श्रद्धा अधिक है, वह भक्तियोग का अधिकारी है । ये तीनो ही योगमार्ग परमात्मतत्व (समता) प्राप्ति के
स्वतन्त्र साधन हैं । अन्य सभी साधन इन तीनो के ही
अन्तर्गत आते हैं । जो मनुष्य देह-देही के विवेक को न समझ सके, उसके लिये गीता
में स्वधर्म पालन की आज्ञा है । तात्पर्य है कि जो मनुष्य
परमात्मतत्व ( स्वरुप) को जानना चाहता, पर तीक्ष्ण बुद्धि और तेजी का वैराग्य न
होने के कारण ज्ञानयोग से नही जान सकता वह कर्मयोग से जान सकता है (गीता 5/4-5) । ‘स्वधर्म’ को ही स्वभावज कर्म, सहज कर्म, स्वकर्म आदि
नामों से कहा गया है (गीता 18/41-48) । स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छा का त्याग
करके दूसरे के हित के लिये कर्म करना स्वधर्म है
| स्वधर्म का पालन करना ही कर्मयोग है ।
दूसरे
शब्दो में , इन तीनो योगों को सिद्ध करने के लिये मनुष्य को तीन शक्तियाँ प्राप्त
हैं- करने (बल), जानने (ज्ञान) तथा मानने (विश्वास,श्रद्धा) की शक्ति । करने की
शक्ति निःस्वार्थ भाव से संसार की सेवा करने के लिये है, जो कर्मयोग है; जानने की शक्ति अपना स्वरूप जानने के लिये है, जो ज्ञानयोग है और मानने की शक्ति भगवान् को अपना व अपने को भगवान् का मानकर
सर्वथा भगवान् के समर्पित होने के लिये है, जो भक्तियोग है । वास्तव मे “योग” की आवश्यकता कर्म
में ही है । क्योंकि कर्म संसार से जुडे हैं, जड हैं, बाँधनेवाले हैं और विषय ( पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय- शब्द,स्पर्श, रुप, रस और गन्ध)
हैं , इसलिये उनमे योग (समता) की आवश्यकता है । कर्मों में योग ही मुख्य है- “योगः कर्मसु कौशलम्” (गीता 2/50), ‘कर्मों में योग ही कुशलता है’ । कर्तुत्व भी कर्म करने से ही आता है । इसलिये गीता
में “योग” शब्द विशेषकर “कर्मयोग” का ही वाचक आता है । योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा
धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।2.48।। अर्थात, हे धनञ्जय ! तू आसक्ति (राग) का त्याग करके
सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व
ही योग कहा जाता है । ।।2.48।। इसके
विपरीत ज्ञान और भक्ति वास्तव में “योग” ही होने से, ज्ञान और भक्ति में (अलग से) योग
की आवश्यकता नहीं है । गीता में कर्मयोग के लिये तीन शब्द आये हैं -
बुद्धि, योग और बुद्धियोग । कर्मयोग में कर्म की प्रधानता नही है, प्रत्युत ‘योग’ (समता) की प्रधानता है । कर्मयोग में व्यवसायात्मिका( निश्चयात्मक, इसके बारे में बाद में) बुद्धि की प्रधानता होने से इसको ‘बुद्धि’ कहते हैं और विवेक पूर्वक त्याग की प्रधानता होने से इसको ‘योग’ या ‘बुद्धियोग’ कहते हैं । अतः हम आज के लेख मे “योग” यानि समता को आधार मानकर- “ समत्वं योग उच्यते” (गीता 2/48)- या/और समता, बुद्धि और त्याग इस
आधार पर कर्मयोग समझने का प्रयत्न करेगें ।
कर्मयोग
में दो विभाग हैं- कर्मविभाग और योगविभाग । कर्मविभाग पूर्वार्ध है और योगविभाग
उत्तरार्ध है । कर्म करणसापेक्ष (साधन-करण-इंद्रिय-पर निर्भर) है, योग
करणनिरपेक्ष (साधन-करण-इंद्रिय-पर निर्भर नही) है । कर्मविभाग
में कर्तव्यपरायणता है और योगविभाग में स्वाधीनता, निर्विकारता, असंगता, समता है । संसार में हमारा जो कर्तव्य है, वह दूसरे का अधिकार होता है । दूसरे के अधिकार की
रक्षा करने से मनुष्य ऋणमुक्त हो जाता है और उसको“योग” की प्राप्ति हो जाती है । दूसरे के
अधिकार की रक्षा करने का तात्पर्य है- शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य को अपनी न
समझकर, प्रत्युत दूसरे की समझकर दूसरो की सेवा मे अर्पित कर देना । संसार में
वस्तु और व्यक्ति के साथ हमारा संयोग होता है । संयोग
होने पर वस्तु और व्यक्ति के प्रति हमारे मन में कामना
(अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा) -मोह-ममता आदि जागृत हो जाते है । व्यक्ति के साथ हमारा
संयोग होने पर उसकी सेवा करना उसको सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है । इसी प्रकार वस्तु के साथ हमारा
संयोग होने पर उसके प्रति कामना-मोह-ममता न रखकर उसका सदुपयोग कर दूसरो की सेवा मे
लगाना हमारा कर्तव्य है । कामना-मोह-ममता से रहित होकर कर्तव्य पालन करने से शरीर-
संसार के संयोग का वियोग हो जाता है और योग की प्राप्ती हो जाती है । योग की प्राप्ती
होने पर मनुष्य राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारो से सर्वथा मुक्त हो जाता है और
उसको स्वाधीनता,निर्विकारता, असंगता, समता की
प्राप्ती हो जाती है । या दूसरे शब्दो में कहें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारो से सर्वथा मुक्त हो जाने
पर योग - स्वाधीनता,निर्विकारता, असंगता, समता की प्राप्ती हो जाती है
।
स्वयं
को शरीर से अलग मानने या जानने पर शरीर केवल कर्म करने का साधन (करण-instrument)
रह जाता है और कर्म केवल संसार के लिये ही रह जाता है । (जैसे कोई लेखक जब लिखने बैठता है,
तब वह लेखनी को ग्रहण करता है और जब लिखना बन्द करता है, तब लेखनी यथा स्थान रख
देता है, ऐसे ही कर्म करते समय हमे शरीर को स्वीकार करना चाहिये और कर्म समाप्त होते ही शरीर
को ज्यों का त्यों रख देना चाहिये-उससे असंग (अलग) हो जाना चाहिये ।) अतः जो
संसार को सच्चा मानता है (या कहें उसमे व्यवहार रखना चाहता है), उसके लिये
(उपरोक्त विधि से) कर्मयोग शीघ्र सिद्धि देने वाला है । कर्मयोग
में मुख्यबात है-अपने कर्तव्य द्वारा दूसरे के अधिकार की ऱक्षा करना और कर्मफल का
अर्थात अपने अधिकार का त्याग करना । दूसरे के
अधिकार की ऱक्षा करने से पुराना राग (आसक्ति) मिट जाता है और अपने अधिकार का त्याग
करने से नया राग पैदा नही होता । इस प्रकार कर्मयोगी वीतराग हो जाता
है । वीतराग होने पर तत्वज्ञान हो जाता
है, कारण कि तत्वज्ञान की प्राप्ति में नाशवान
असत् वस्तुओं का राग ही बाधक है । दूसरे शब्दो में, कर्मयोगी अपने कर्तव्यकर्मो द्वारा संसार
की सेवा करता है अर्थात प्रत्येक कर्म निष्कामभाव से (बिना फल की इच्छा किये) केवल
दूसरों के हित के लिये ही करता है । वह दूसरों के सुख से प्रसन्न (सुखी) और दूसरों के दुःख से
करुणित (दुःखी) होता है । दूसरों को सुखी देखकर प्रसन्न होने से उसमें ‘भोग’(शब्द, स्पर्श,
रुप, रस और गन्ध-ये पाचँ विषय, शरीर का आराम, मान और नाम की बढाई- इन आठों द्वारा सुख
लेना) की इच्छा नही रहती और दूसरों को दुःखी देखकर करुणित होने से उसमें ‘संग्रह’ की इच्छा नही रहती । स्वयं के कल्याण मे ‘भोग’ और ‘संग्रह’ की इच्छा ही बाधक है क्योंकि यह
(अनगिनत कामनाओं के कारण) एक निश्चयात्मक बुद्धि (इस बारे मे आगे) नही होने देती ।
किसी भी कर्म में, किसी कर्म के फल में, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति,
अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तु में हमारी आसक्ति (राग) न हो, तभी हम
निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकते हैं । कर्म का पूरा होना अथवा न होना,
सांसारिक दृष्टि से उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना, उस कर्म से
आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दा, सिद्धि-असिद्धि होना आदि जो है, उसमे सम (राग-द्वेष न करना) रहना चाहिये । समता में हरदम स्थित रहते हुए ही
कर्तव्यकर्म करना चाहिये । समता ही योग है अर्थात समता
परमात्मा स्वरूप है । जिनका मन समता में स्थित हो गया है, उन लोगों ने जीवित
अवस्था में ही संसार को जीत लिया है; क्योंकि ब्रम्ह निर्दोष और सम है; अतः उनकी स्थिती
ब्रम्ह में ही है (गीता 5/19) । लोकसंग्रह के लिये कर्म
करने से अर्थात निःस्वार्थभाव से लोक मर्यादा सुरक्षित रखने के लिये, लोगों को
उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग मे लगाने के लिये कर्म करने से समता की प्राप्ति
सुगमता से हो जाती है । समता की प्राप्ति होने पर कर्मयोगी कर्मबन्धन (कर्म का फल भोगने )
से सुगमतापूर्वक छूट जाता है ।
उपरोक्त समता की प्राप्ति के लिये बुद्धि की स्थिरता बहुत आवश्यक है । कर्मयोग में मन से अधिक
बुद्धि की स्थिरता ही मुख्य है । अगर मन की स्थिरता होगी
तो कर्मयोगी कर्तव्य कर्म कैसे करेगा? क्योंकि मन स्थिर होने पर बाहरी क्रियाएँ रुक जाती हैं । भगवान् भी योग (समता) में स्थित होकर कर्म करने की आज्ञा देते हैं-‘योगस्थः कुरु कर्माणि’-योग मे स्थित हुआ कर्म कर (गीता 2/48) । बुद्धि दो तरह की होती
है-अव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका । जिसमें
सांसारिक सुख, भोग, आराम, मान बडाई आदि प्राप्त करने का ध्येय (मोह) होता है, वह बुद्धि ‘अव्यवसायात्मिका’ होती है (गीता 2/44) । और जिसमे समता प्राप्ति करने का, अपना कल्याण करने का ही
उद्येश्य रहता है, वह बुद्धि ‘व्यवसायात्मिका’ होती है (गीता 2/41) । अव्यवसायात्मिका बुद्धि (कामना रुप) अनन्त होती हैं और व्यवसायात्मिका बुद्धि
एक होती है ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।2.38।। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा । इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। ।।2.38।। तथा बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।।2.50।। बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। अतः
तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है । ।।2.50।। कर्मो में विषमबुद्धि (राग-द्वेष) होने से ही पाप (पुण्य)
लगता है । समता
युक्त मनुष्य जीवित अवस्था में ही पुण्य-पाप का त्याग कर देता है अर्थात उसको पुण्य-पाप नही लगते, वह उनसे रहित हो जाता है । समता एक ऐसी विद्या है, जिससे मनुष्य संसार मे रहते हुए ही संसार से सर्वथा
निर्लिप्त रह सकता है । जैसे कमल का पत्ता जल से उत्पन्न होता है और
जल में ही रहता है, पर वह जल से लिप्त नही होता, ऐसे ही समतायुक्त पुरुष संसार में
रहते हुए भी संसार से सर्वथा निर्लिप्त रहता है (गीता 2/38) ।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य
श्रुतस्य च।।2.52।। श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।। जिस समय तेरी बुद्धि मोह रुपी दलदल को तर जायेगी, उसी समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले भोगो से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा । ।।2.52।। जिस काल में शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तेरी बुद्धि
निश्चल हो जायेगी और परमात्मा में अचल हो जायेगी, उस काल में तू योग को प्राप्त हो जायेगा । ।।2.53।। मोह के दो विभाग हैं- ‘मोहकलिल’ अर्थात सांसारिक मोह और ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ अर्थात शास्त्रीय (दार्शनिक) मोह । शरीर,स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि में राग होना ‘सांसारिक मोह’ है और द्वैत-अद्वैत, शैव-वैष्णव आदि दार्शनिक मतभेदों में उलझना ‘शास्त्रीय मोह’ है । मनुष्य को न तो ‘सांसारिक मोह’ रखना है न शास्त्रीय (दार्शनिक) मोह
अर्थात् किसी मत, सम्प्रदाय का कोई आग्रह नही रखना है । इन दोनो का त्याग करने पर मनुष्य का भोगों से वैराग्य हो जाता है और उसकी बुद्धि स्थिर (सम)
होकर ‘योग’ की
प्राप्ति हो जाती है अर्थात परमात्मा से दूरी मिट जाती है । गीता में कर्मयोग (गीता 2/41) और भक्तियोग (गीता 9/30) -के प्रकरण में व्यवसायात्मिका
बुद्धि का वर्णन आया है, पर ज्ञानयोग के प्रकरण में व्यवसायात्मिका बुद्धि का
वर्णन नही आया है । इसका कारण यह है कि ज्ञानयोग में
पहले स्वरूप का बोध होता है, फिर उसके परिणाम स्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चय वाली
हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में बुद्धि का एक
निश्चय होता, फिर स्वरूप का बोध होता है । अतः ज्ञानयोग में ज्ञान की मुख्यता
है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में निश्चय की
मुख्यता है ।
विशेष बात- राग-द्वेष से युक्त ‘भोगी’
अगर विषयों का ( भोग न करते हुए भी केवल ) चिन्तन भी करे तो उसका पतन हो जाता है
क्योकिं- विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है । आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है।
क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़ भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती
है । स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है (गीता 2/62-63) । परन्तु राग-द्वेष से रहित ‘योगी’
अगर विषयों का सेवन भी करे (पर उसमे रस-सुख न ले) तो उसका पतन नही होता है । जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को
विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं ।।2.70।। । क्योंकि राग-द्वेष से रहित
होने पर ‘प्रसाद’ (अन्तःकरण की निर्मलता) की प्राप्ति होती है । हरदम प्रसन्न रहे, कभी खिन्नता न आये, नीरसता न आये- यह प्रसाद है, फिर इस
प्रसाद की प्राप्ति में भी सन्तोष न करे, इसका उपभोग न करे तो बहुत जल्द परमात्मा
की प्राप्ति हो जाती है (गीता 2/64-65) ।
कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग- तीनो साधनों से नाशवान् रस (कामना) की
निवृत्ति हो जाती है । ज्यों- ज्यों कर्मयोग में सेवा का रस,
ज्ञानयोग में तत्त्व के अनुभव का रस और भक्तियोग में प्रेम का रस मिलने लग जाता
है, त्यों-त्यों नाशवान् रस स्वतः छूटता चला जाता है । जैसे बचपन में खिलौनों में रस मिलता था, पर जब बडे होने पर जब रुपयों में रस
मिलने लग जाता है,तब खिलौनों का रस स्वतः छूट जाता है, ऐसे ही साधन का रस मिलने पर
भोगों का रस स्वतः छूटता चला जाता है । फिर जिसके मन और
इन्द्रियों मे संसार का आकर्षण नही रहा, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित (स्थिर) है (गीता 2/68) । कर्मयोग में सम्पूर्ण
कामनाओं का त्याग किये बिना (मनुष्य) स्थितप्रज्ञ (जिसकी बुद्धि स्थिर है) नही हो
सकता;क्योंकि
कामनाओं के कारण ही संसार के साथ सम्बन्ध जुडा हुआ है। कामनाओं का सर्वथा त्याग करने पर संसार के साथ सम्बन्ध रह ही नही सकता (गीता 2/71) । कर्मयोग में त्याग
है और त्याग से शान्ति,सुख मिलता है । परन्तु यह प्राप्ति का सुख नही है, प्रत्युत दुःख (अशान्ति) मिटने का है, जब
कि भक्ति में प्राप्ति का सुख है ।
अन्त
में यही कहूँगा गीता के भावों की सीमा नहीं है । अतः गीता के विषय में कोई कुछ भी कहता है तो वास्तव में वह
केवल अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है । इसी सीमा मे
रहते हुए मैंने लेख में कर्मयोग के कुछ पहलुओं को समझने/समझाने का प्रयत्न किया है । ज्ञानयोग और भक्तियोग का वर्णन प्रसंग वश या तुलना की
दृष्टी से ही आया है । अन्ततः गीता का तात्पर्य “वासुदेवः सर्वम्” में है । एक सत्ता
के सिवाय कुछ नही है -(गीता 16/2)- यह ज्ञानमार्ग की सर्वोपरि बात
है । संसार (की सत्ता) अपने राग के कारण ही दिखता या यह कहें राग
के कारण ही
दूसरी सत्ता दिखती है । राग न हो
तो एक परमात्मा के
सिवाय कुछ नही है । एक परमात्मतत्व के सिवाय दूसरी सत्ता
की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से
निवृत्ति की दृढता होती है । प्रवृत्ति का उदय होना “भोग” है और निवृत्ति की दृढता“योग” है । ऱाग को हटाने के लिये (संसार दृष्टि से) जो हमारा है , उसे “मेरा कुछ नही है” और “मेरे को कुछ नही चाहिये” (मेरा खत्म होते से ही “मैं” भी खत्म हो जाता है) मानकर उसे संसार की सेवा मे लगा देना एक उपाय है । य़ही
कर्मयोग है । कर्मयोग से संसार निवृत्ति और परमात्मतत्व की प्राप्ति- दोनों हो जाते हैं ।
विषय बहुत कठिन है,आपने उसे बहुत अच्छेसे समझाया है,
ReplyDeleteप्रत्यक्ष मे चर्चा करना चाहूंगी,कई जगह आपने बहुत अच्छेसे अर्थ स्पष्ट किए है! साधुवाद!
परिचय के साथ आप ईमेल पर आमंत्रित है। kaleprakash23@gmail.com
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