सामान्यतः हम समझते हैं कि गीता के बारहवें अध्याय में ही ईश्वर उपासना (भक्ति योग) का वर्णन आया है । पर जब बारहवें अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन अपना संशय व्यक्त करते हुये पूछते हैं- जो भक्त
इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप-(सगुण भगवान्-) की उपासना करते हैं और जो
अविनाशी निराकार की ही
उपासना करते हैं, उनमें से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? ।।12.1।।- तो यह निष्कर्ष है
कि ईश्वर उपासना की
चर्चा पूर्व मे भी हो चुकी है । ईश्वर उपासना के दो मार्ग
हैं- निर्गुण उपासना (जिसे हम ज्ञानयोग नाम से जानते हैं) तथा सगुण उपासना
(भक्तियोग) । वस्तुतः भगवान् ने चौथे अध्याय के
33-34 वें श्लोक मे निर्गुण की उपासना (ज्ञानयोग) की श्रेष्ठता बताते हुए
ज्ञानप्रप्ति के लिये प्रेरणा दी और फिर ज्ञान की महिमा का वर्णन किया । फिर पुनः पाँचवे अध्याय के
16-17 वें व 24-25-26 वें, छठे अध्याय के 24 से 28 वें श्लोक और आठवें अध्याय के
11 से 13 वें श्लोक तक निर्गुण-निराकार की उपासना का महत्व बताया । छठे अध्याय के 47 वें श्लोक मे
साधक भक्त (सगुण उपासक) की महिमा बतायी और सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक
जगह-जगह “अहम्,” “माम्,” आदि पदों द्वारा सगुण-साकार एवं
सगुण-निराकार उपासना का महत्व बताया तथा
अन्त में ग्यारहवें अध्याय के 54-55 वें श्लोकों मे अनन्य भक्ति(सगुण उपासना) की
महिमा व फल सहित उसके स्वरूप का वर्णन किया । (गीता मे सगुण-साकार, सगुण-निराकार एंव
निर्गुण- निराकार उपासना का विवरण है, निर्गुण- साकार कोई रुप नही होता) । पुनः अर्जुन के प्रश्न के उत्तर मे आगे ,12 वें अध्याय के
दूसरे श्लोक से 14 वें अध्याय के 20वें श्लोक तक भगवान् अविराम बोलते ही चले गये
हैं
। तिहत्तर श्लोकों का इतना लम्बा प्रकरण गीता में एक मात्र यही है । उद्देश्य यह है कि साधकों
को साकार और निराकार स्वरूप में एकता का बोध हो, उनके ह्रदय में इन दोनों स्वरूपों
को प्राप्त कराने वाले साधनो का सांगोपांग (सम्पूर्ण व विस्तृत) रहस्य प्रकट हो,
सिद्ध भक्तों और ज्ञानियों के आदर्श लक्षणो सें वे परिचित हों और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद
की विशेष महत्ता उनकी समझ में आ जाये ।
सगुण उपासना की श्रेष्ठता- भगवान् कहते हैं, मेरे में मन को
लगाकर नित्य-निरन्तर मेरे में
लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से
युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं । ।।12.2।। मेरे में
लगे हुए -साधक से भूल यह होती है कि वह
स्वयं भगवान् में न लगकर अपने मन-बुद्धि को
भगवान् में लगाने का प्रयास करता है । स्वयं भगवान् में लगाये बिना मन-बुद्धि को
भगवान् में लगाना कठिन है । साधक की श्रद्धा वहीं होगी, जिसे वह
सर्वश्रेष्ठ समझेगा । जहाँ प्रेम
होता है, वहाँ मन लगता है और जहाँ श्रद्धा होती है वहाँ , बुद्धि लगती है
। प्रेम में प्रेमास्पद के संग की तथा श्रद्धा
में आज्ञापालन की मुख्यता रहती है । साधक (जीव) स्व, चेतन और नित्य होने के कारण साधक का भगवान से सम्बन्ध स्वतः
सिद्ध है, पर प्रकृति से सम्बन्ध
मानने से उसे यह अनुभव नही होता, और जब तक प्रकृति से
माना हुआ सम्बन्ध है, तभी तक भगवान् से अपना सम्बन्ध मानने की आवश्यकता है
। प्रकृति से माना हुआ
सम्बन्ध टूटते ही वास्तविक और नित्य सम्बन्ध प्रकट हो जाता है-“नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा” (गीता 18-73)।इस प्रकार भगवान् ने दूसरे श्लोक मे
सगुण उपासकों को सर्वश्रेष्ठ य़ोगी बताया तथा 6-7 श्लोक मे कहा कि ऐसे भक्तो का मैं
शीघ्र उद्धार कर देता हूँ तथा 8-11 श्लोकों में सर्वश्रेष्ठ य़ोगी बनने के लिये चार साधन-1.समर्पणयोगरूप 2.अभ्यासयोग 3.भगवदर्थ कर्म और
4.सर्वकर्मफलत्यागरूप बताते
हैं ।
A. सगुण उपासना -1. समर्पणयोगरूप-.मुझ परमेश्वर को ही परमश्रेष्ठ और परम प्रापणीय मानकर बुद्धि को मेरे में लगा
दे और मेरे को ही परम प्रियतम मानकर मन को मेरे में लगा दे, जिस क्षण तेरी मन -बुद्धि एक मात्र मेरे में सर्वथा लग जायेंगी उसी क्षण तू
मेरे में निवास करेगा (गीता 12-8 )। भगवान् मे पहले साधक का मन लगता है, फिर बुद्धि लगती है,
फिर स्वयं लगता है, स्वयं लगने से अहम् मिट जाता है । बुद्धि लगाने का तात्पर्य है- भगवान् मे प्रेम और श्रद्धा
होना अर्थात संसार की प्रियता और महत्ता न रहकर केवल भगवान् में प्रियता और महत्ता
हो जाना । ऐसा करने से संसार का चिन्तन और महत्व समाप्त हो जायगा और एक भगवान् के साथ ही
सम्बन्ध रह जायगा ।मन- बुद्धि
प्रकृति के जाति के हैं, इसलिये वे भगवान् में नही लग सकते, प्रत्युत स्वयं
ही भगवान् मे लग सकता है
। तात्पर्य है कि भगवान् में लगाने से मन-
बुद्धि भगवान् में लगते नहीं प्रत्युत लीन हो जाते हैं, क्योंकि मूल मे अपरा
प्रकृति भगवान् का ही स्वभाव है । मन -बुद्धि में अन्तःकरण-चतुष्ट्य का अन्तर्भाव है । मन के अन्तर्गत चित्त का और बुद्धि के अन्तर्गत अहंकार का
अन्तर्भाव है । मन -बुद्धि भगवान् में लगने से अहंकार का
आधार ‘स्वयं’
भगवान् में लग जायगा और परिणाम स्वरूप ‘मैं भगवान् का ही हूँ
और भगवान् ही मेरे हैं’ ऐसा भाव हो जायगा
। इस भाव में निर्विकल्प स्थिति होने से ‘मैं’-पन भगवान् में लीन हो जायगा ।‘मैं’ का प्रकाशक और आधार (अपना स्वरूप)
चेतन और नित्य है । इस स्वरूप का जड़ संसार से सम्बन्ध न होकर भगवान् से स्वतः-सिद्ध सम्बन्ध है
। इस सम्बन्ध को पहचान लेने पर
मन -बुद्धि स्वतः भगवान में लग जायेँगे । ‘संसार’
और ‘मैं’ दोनो में से किसी एक का भी ठीक-ठीक ज्ञान होने पर दूसरे के स्वरूप का
ज्ञान अपने -आप हो जाता है ।
2.अभ्यासयोग -भगवान्
अर्जुन से कहते हैं अगर तू मन- बुद्धि को मेरे में
अचल भाव से स्थापित करने में अर्थात मेरे अर्पण करने में को असमर्थ मानता है, तो
अभ्यासयोग के द्वारा मेरे को प्राप्त करने की इच्छा कर (गीता 12-9) । भगवान् के कथन का तात्पर्य य़ह है कि
यदि उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही हो अर्थात उद्देश्य के साथ साधक की पूर्ण एकता हो तो केवल ‘अभ्यास’ से ही भगवत्प्राप्ति
हो जायगी । (किसी एक विषय में स्थिति, स्थिरता प्राप्त
करने के लिये बार-बार प्रयत्न करने का नाम अभ्यास है) । मन का निरोध करना अथवा
मन को बार-बार भगवान् मे लगाना अभ्यास है (गीता 6-26),
परन्तु अभ्यासयोग में मन का निरोध नही है, प्रत्युत मन से सम्बन्ध विच्छेद है । जब साधक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से बार-बार नाम, जप
इत्यादि का अभ्यास करता है, तब उसका अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है तथा सांसारिक सिद्धि-असिद्धि में सम होकर
भगवत्प्राप्ति की इच्छा, व्याकुलता जाग्रत हो जाती है । वह भगवान् के
वियोग को सहन नही कर पाता और भगवत्प्राप्ति हो जाती है क्योंकि भगवान् की देश,
काल, वस्तु व्यक्ति आदि से दूरी है ही नही । जहाँ साधक है,
वहाँ भगवान् है ही ।
3. भगवदर्थ
कर्म -
अगर तू अभ्यास-(योग-) में भी असमर्थ है, तो मेरे लिये कर्म करने के
परायण हो जा । मेरे लिये कर्मों को करता हुआ भी तू
सिद्धि को प्राप्त हो जायेगा । ।।12.10।। अभ्यास की अपेक्षा क्रियाओं को भगवान् को अर्पण करना सुगम है, कारण कि अभ्यास तो नया काम है, जो करना पड़ता है, पर कर्म स्वतः होते हैं; क्योंकि कर्म करने का स्वभाव पड़ा हुआ है । पर अपने लिये कर्म करने से मनुष्य बँधता है- कर्मणा
बध्यते जन्तुः (गीता 3-9) । इसलिये कर्मों को भगवान् को अर्पण करने
से मनुष्य सुगमतापूर्वक भगवान् को प्राप्त हो जाता है (गीता
9-27 व 28)
। भगवान् के
लिये कर्म करने के कई प्रकार हैं, जिनको गीता में ‘मदर्पण कर्म’, ‘मदर्थ कर्म’ और ‘मत्कर्म’ नाम से कहा गया है ।‘मदर्पण
कर्म’ उन कर्मो को कहते हैं, जिनका उद्देश्य पहले कुछ और हो; किन्तु कर्म करते समय अथवा कर्म करने के
बाद उनको भगवान् को अर्पण कर दिया जाय ।‘मदर्थ
कर्म’ वे कर्म हैं, जो आरम्भ से ही भगवान् के लिये किये जायँ
अथवा जो भगवत्सेवारूप हों (इस श्लोक मे ‘मदर्थमपि’ पद आया है)। भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करना, भगवान् की आज्ञा मानकर कर्म करना, और भगवान् की प्रसन्नता के लिये कर्म
करना- ये सभी भगवदर्थ कर्म हैं । भगवान् का ही काम
समझकर सम्पूर्ण लौकिक (व्यापार, नौकरी आदि) और भगवत्सम्बन्धी (जप, ध्यान आदि)
कर्मो को करना ‘मत्कर्म’ हैं । वास्तव में कर्म कैसे भी किये जायँ, उनका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही
होना चाहिये ।
4.सर्वकर्मफलत्यागरूप -अगर मेरे
योग-(समता-) के आश्रित हुआ तू इस (भगवदर्थ कर्म -) को भी करने में असमर्थ है, तो मन-इन्द्रियों को वश में करके
सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर । ।।12.11।। जिसका भगवान् पर तो उतना विश्वास नही है, पर भगवान्
के विधान में अर्थात देश- समाज आदि की सेवा करने में अधिक विश्वास है, उनके
लिये सर्वकर्मफलत्याग -रूप साधन हैं । या कहें, जिन साधकों की सगुण साकार भगवान् मे स्वाभाविक श्रद्धा और भक्ति नही है, प्रत्युत
व्यावहारिक और लोकहित के कार्य करने में ही अधिक श्रद्धा और रुचि है, ऐसे साधक के
लिये यह साधन बहुत उपयोगी है ।तात्पर्य है कि अगर साधक सम्पूर्ण कर्मो को अर्पण न कर सके, तो जिस फल को प्राप्त करना उसके हाथ की बात
नही है, उस फल की इच्छा का त्याग कर दे- ‘कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता 2-47) । त्याग का उद्येश्य होने से साधक
मन-इन्द्रियों का संयम भी सुगमता से कर सकता है । इस प्रकार केवल कर्तव्य कर्म करने से उसका
संसार -सम्बन्ध विच्छेद हो जायेगा । इस साधन में कर्मो का स्वरूप से त्याग करने की बात नहीं कही गई है; क्योंकि कर्म करना तो जरुरी
है (गीता 6-3) ।
आवश्यकता केवल कर्मो में और उनके फलो में ममता,
आसक्ति, कामना आदि के त्याग की ही है । इस साधन से विषयासक्ति का नाश होकर
शान्ति (सात्विक सुख) की प्राप्ति हो जाती है । उस शान्ति का उपभोग न करने से (उसमें
सुख-बुद्धि न करके या उसमें न अटकने से) वह शान्ति, परमतत्व का बोध कराकर उससे अभिन्न करा देती है ।
हमारे ह्रदय मे प्रायः यह बात बैठी है कि कर्म-आचरण
अच्छे होंगे, एकान्त में ध्यान लगायेंगे
इत्यादि , तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी अन्यथा नही । पर भगवान् की प्राप्ति
किसी साधन विशेष से नही होती । तपस्यादि साधनों से जहाँ भगवान् की प्राप्ति हुई दिखती है, वहाँ भी वह जड़ के
माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा विच्छेद होने से ही होती है, न कि साधना से
। वास्तव में अपने उद्योग
बल ज्ञान आदि की कीमत से भगवान् की
प्राप्ति नहीं हो सकती, पर भगवान् के दिये हुए
बल ज्ञान आदि को भगवान् की प्राप्ति के लिये लगा दिया जाय तो वे साधक को कृपा पूर्वक अपनी
प्राप्ति करा देते हैं ।
भगवान् की प्राप्ति में संसार से वैराग्य और भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा – ये दो
बातें ही मुख्य हैं । ऊपर जो चार साधन बताये गये हैं , उनमे से प्रथम तीन साधन तो
मुख्यतः भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा जाग्रत करने वाले हैं और चौथा साधन, कर्मफलत्याग, मुख्यतः
संसार से सम्बन्ध -विच्छेद (वैराग्य) करने वाला है ।
भगवान्
ने बारवहें अध्याय के आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक एक साधन में असमर्थ होने
पर दूसरा, दूसरे साधन में भी असमर्थ होने पर तीसरा, तीसरे साधन में भी असमर्थ होने
पर चौथा साधन बताया है । इससे यह शंका (या समझ) हो सकती है कि क्या
अन्त मे बताया गया सर्वकर्मफलत्याग -रूप
साधन सबसे निम्न श्रेणी का है ? इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् सर्वकर्मफलत्याग-
रूप साधन की श्रेष्ठता तथा उसका फल (ग्यारहवें श्लोक में नही) बारवहें श्लोक में बताते हैं । श्रेयो हि
ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते । ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।12.12।। अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान
श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग
श्रेष्ठ है । कर्मफल त्याग (कर्मयोग का दूसरा नाम) से तत्काल ही परम शान्ति
प्राप्त हो जाती है । ।।12.12।। वास्तव में उपर्युक्त चारो साधन स्वतन्त्रता
से भगवत्प्राप्ति के साधन हैं । साधकों की रुचि, विश्वास और योग्यता की
भिन्नता के कारण ही भगवान् ने अलग-अलग साधन कहे हैं ।
त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (।।12.12।। का पद)- यहां ‘त्यागात्’ पद कर्मफलत्याग
के लिये आया है । क्योंकि त्याग न तो उसका हो सकता है, जो
अपना स्वरुप है और न ही उसी का हो सकता है, जिसके साथ अपना सम्बन्ध नही है । जैसे , अपना
स्वरुप होने के कारण प्रकाश और उष्णता से सूर्य का वियोग नही हो सकता, और जिससे
वियोग नही हो सकता उसका त्याग करना असम्भव है । इसलिये वास्तव
में त्याग उसी का होता है जो अपना नही है पर
अपना मान लिया गया है । अतः मनुष्य को संसार से माने हुए सम्बन्ध
(कर्मफल) का ही त्याग करने की आवश्यकता है
। यह त्याग करते ही परमात्मतत्व की
प्राप्ति हो जाती है । अभ्यास, ज्ञान और ध्यान – तीनों साधनों से कर्मफलत्याग-रूप साधन श्रेष्ठ है । जब तक साधक
में फल की आसक्ति रहती है , तब तक वह (जड़ता का आश्रय रहने से) मुक्त नहीं हो सकता
(गीता 5-12) । गीता फलासक्ति के त्याग पर जितना जोर देती है, उतना और किसी
साधन पर नहीं । स्वस्थता-अ स्वस्थता , धनवत्ता- निर्धनता,
मान -अपमान, स्तुति-निन्दा आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियां कर्मो के फल में आती हैं । इनके साथ राग-द्वेष रहने से कभी परमात्मा की
प्राप्ति नहीं हो सकती (गीता 2-42 से 44) ।
B. निर्गुणोपसना- निर्गुण-उपासकों की साधना के अन्तर्गत
मुख्य भेद दो हैं- 1. जड़-चेतन और चर-अचर के रूप में जो कुछ प्रतीत होता है, वह सब
आत्मा या ब्रम्ह है और 2. जो कुछ दृश्यवर्ग
प्रतीत होता है, वह अनित्य, क्षणभंगुर और असत् है- इस प्रकार संसार को समाप्त करने पर जो तत्व शेष
रह जाता है वह आत्मा या ब्रम्ह है । ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।स र्वत्रगमचिन्त्यं
च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।। संनियम्येन्द्रियग्रामं
सर्वत्र समबुद्धयः। ते
प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।12.4।। जो अपनी इन्द्रियों को
वश में करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य,
कूटस्थ, अचल, ध्रुव,
अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे प्राणि मात्र के हित में
रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं । ।।12.3 व 4।। गीता मे इन्द्रियों को वश में करने की बात जितनी विशेष रूप से निर्गुणोपासना
(तथा कर्मयोग) मे आयी है, उतनी सगुणोपासना में नहीं (कारण तुलना में दिया है) । हमें
इस श्लोक से निर्गुण ब्रम्ह के आठ विशेषण मिलते हैं 1.अचिन्त्यम्- (मन और बुद्धि का विषय न होने
से) चिन्तन मे न आने वाले. 2 सर्वत्रगम्-सब जगह परिपूर्ण. 3. अनिर्देश्यम्-(भाषा,
वाणी आदि का विषय न होने से) संकेत कर बताये नहीं जा सकते. 4. कूटस्थम्- कूट (अहरन
मे तरह तरह के, गहने अस्त्र औजार आदि पदार्थ गढ़े जाते हैं, पर उसमे कोई परिवर्तन
नहीं होता) की तरह अपरिवर्तनीय, निर्विकार तथा निर्लिप्त.5 अचलम्- यह विशेषण आने
-जाने की क्रिया से सर्वथा रहित ब्रम्ह का वाचक है.6. ध्रुवम्- जिसकी सत्ता
निश्चित और नित्य है. 7. अक्षरम्- जिसका कभी क्षरण अर्थात विनाश नही होता.8.
अव्यक्तम्-जो व्यक्त न हो, जिसका कोई रूप व आकार न हो ।
परमात्मा के निषेधात्मक (नही वाले) विशेषणों का तात्पर्य प्रकृति से परमात्मा की
असंगता बताना है, और विध्यात्मक (अन्य) विशेषणो का तात्पर्य परमात्मा की स्वतन्त्र
‘सत्ता’ बताना है।
परमात्मा के लिये जो
विशेषण दिये गये हैं वही विशेषण गीता में जीवात्मा के लिये भी दिये गये हैं । संसार में व्यापक रूप से भी परमात्मा और जीवात्मा को समान बताया गया है- ममैवांशौ
जीवलोके (गीता 15-7) जीवात्मा मेरा (परमात्मा) का अशं है। जीव और ब्रम्ह
स्वरूप से एक ही हैं । देह के साथ सम्बन्ध होने से (अनेक रूप से)
जो ‘जीव’ है, वही देह के साथ सम्बन्ध न होने से (एक रूप से) ‘ब्रम्ह’ है अर्थात जीव केवल शरीर की उपाधि से, देहाभिमान के कारण
ही अलग है, अन्यथा वह ब्रम्ह ही है । इसलिये स्व-स्वरूप (ज्ञान
योग का साध्य) को प्राप्त होने पर या ब्रम्ह की प्राप्ती होने पर उपासक को उपास्य से सधर्मता प्राप्त हो
जाती है-(गीता 14-2 भी देखें) ।
सर्वभूतहिते रताः (।।12- 4 का पद।।) - (सगुणोपासक और) निर्गुणोपासक-दोनो ही प्रकार
के साधको के लिये सम्पूर्ण प्राणियों के हित का भाव रखना जरूरी है । सम्पूर्ण प्राणियों के हित से अलग अपना हित मानने से “अहम” अर्थात
व्यक्तित्व बना रहता है, जो साधक के लिये आगे चलकर बाधक होता है । वास्तव में कल्याण “अहम”
मिटने पर ही होता है । वैसे भी जो सबके हित मे
लगेगा भगवान् की शक्ति उसके साथ हो जायगी । अतः असीम परमात्मतत्व की प्राप्ति के लिये
प्राणिमात्र के हित मे राग-द्वेष रहित रति अर्थात प्रीतिरूप असीम भाव का होना
आवश्यक है
। सर्वत्र समबुद्धयः(।।12- 4 का पद।।)- इस पद का
भाव यह है कि निर्गुण-निराकार ब्रम्ह के उपासकों की दृष्टि, सम्पूर्ण प्राणी- पदार्थो में परिपूर्ण परमात्मा पर ही रहने
के कारण विषम नहीं होती (चाहिये);क्योंकि परमात्मा सम है (गीता 5-19) । गीता में समबुद्धि का तात्पर्य ‘समदर्शन’ है न कि ‘समवर्तन’ । व्यवहार में साधक की
विभिन्न प्राणी-पदार्थों की आकृति और उपयोगिता पर दृष्टि रहते हुए भी वास्तव में
उसकी दृष्टि उन प्राणी-पदार्थों में परिपूर्ण परमात्मा पर ही रहती है (रहनी
चाहिये)
। तत्व को
चाहने वाले साधक के लिये साम्प्रदायिकता का पक्षपात बहुत घातक है जो मनुष्य को बाँधता है । इसलिये गीता मे भगवान ने जगह-जगह इन द्वन्दो-(राग-द्वेष) से छूटने के लिये
विशेष जोर दिया है । प्राप्नुवन्ति मामेव (।।12- 4 का पद।।)-(निर्गुण) साधक कहीं यह न समझ लें कि निर्गुण तत्व कोई दूसरा
है, और सगुण कोई दूसरा है, इसलिये भगवान् स्पष्ट करते हैं कि निर्गुण ब्रम्ह मुझसे
भिन्न नही हैं, और इस साधना से वे मुझे ही प्राप्त होते हैं । यह सब संसार मेरे
निराकार स्वरूप से व्याप्त है-(गीता 5-19)
तथा क्योंकि ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और एकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ । ।।14.27।।
C. भक्ति योग व ज्ञानयोग –(सगुण-निर्गुण उपासना का तुलनात्मक अध्ययन) a.साधनरुप अन्तर 1. सगुण उपासना में
उपास्यतत्व सगुण साकार होने के कारण साधक के मन -इन्द्रियों को भगवान् की ओर मोड़कर सांसारिक विषय चिन्तन की
सम्भावना कम रहती है पर निर्गुण उपासना में उपास्यतत्व निर्गुण निराकार होने के कारण ऐसा नही होता तथा
मन -इन्द्रियों को वश करने पर विशेष ध्यान देना होता है । 2. सांसारिक या देह आसक्ति ही साधन में क्लेश देती है
। सगुणोउपासक इसको दूर करने के लिये भगवान् के ही आश्रित रहता है, परन्तु
निर्गुणोउपासक उसे स्व-विवेक (स्व बल) से हटाने की चेष्टा करता है
। 3. सगुण उपासक भगवान् को कृपालु मानता है । निर्गुण उपासक उपास्य तत्व को निर्गुण, निराकार और उदासीन
मानते है । 4. सगुण उपासको की उपासना भगवान् की ही उपासना है । भगवान् की पूर्णता में सन्देह न होने से उनमे सुगमता से श्रद्धा होकर वे
नित्य-निरन्तर भगवत्परायण हो जाते हैं । भगवान ने ज्ञानसोगियों को ज्ञान
प्राप्ति के लिये गुरु की उपासना की आज्ञा दी है (गीता
4-34 व 13-7), किन्तु गुरु की पूर्णता का
निश्चित पता न होने पर अथवा गुरु पूर्ण न
होने पर स्थिर श्रद्धा होने में
कठिनाई होती है तथा सफलता में भी विलम्ब की सम्भावना रहती है
। 5. भक्त को अपने कर्म (व पदार्थ ) भगवान् के
प्रति करने में केवल भाव ही बदलना रहता है । ज्ञानयोगी को अपनी क्रियायों ( पदार्थो) को सिद्धान्ततः
प्रकृति को अर्पण करना है;किन्तु पूर्ण विवेक जाग्रत
होने पर ही उसकी क्रियाएँ ( पदार्थ) प्रकृति को अर्पण हो सकती हैं, इसमे कोई भी
कमी रहने पर कर्तृत्वाभिमान रहने से वह कर्म-बन्धन
से बँध जाता है । 6. ज्ञान मे अपरा प्रकृति त्याज्य होती है, भक्ति में वह भगवत्स्वरूप होती है
।7. विवेकमार्ग (ज्ञानयोग) में सत-असत दोनों
की मान्यता रहने से मुक्त होने पर भी सूक्ष्म अहम रह सकता है और यह ईश्वर से
अभिन्न होने में बाधक होता है । इस सूक्ष्म अहम के कारण ही दार्शनिकों में और उनके दर्शनों मे परस्पर मतभेद
रहता है । परन्तु विश्वासमार्ग (भक्तियोग)- में आरम्भ
से ही भक्त एक ईश्वर के सिवाय और किसी की स्वतन्त्र सत्ता नही मानता, ईश्वर के साथ
अभिन्न हो जाने से प्रेम का उदय होकर सूक्ष्म अहम समाप्त होकर सभी दार्शनिक मतभेद
भी समाप्त हो जाते हैं ।
b.फलरुप अन्तर 1. सगुण उपासकों के लिये भगवान् ने‘नचिरात्’
आदि पदों से शीघ्र ही अपनी प्राप्ति बतायी
है (गीता 12-7 ) । निर्गुणोउपासको (ज्ञानयोगियों) द्वारा‘अचिरेण’ पद
तत्वज्ञान के अनन्तर शान्ति की प्राप्ति के लिये आया है न कि तत्वज्ञान की
प्राप्ति के लिये (अर्थात तत्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र नही होती है) (गीता 4-39 ) । 2. ज्ञान में स्वरूप मुख्य
है और भक्ति मे भगवान् मुख्य है । इसलिये ज्ञानी अपने स्वरूप मे स्थित होता है (गीता 14-24 ) और भक्त भगवान् मे स्थित होता है निवसिष्यसि मय्येव-(तू) मेरे में ही निवास करेगा (गीता 12-8 ) । 3 ज्ञान मे अखण्डरस की प्राप्ति होती है, पर भक्ति
में प्रतिक्षण बढ़नेवाले, एक बहुत विलक्षण आनन्द,
अनन्तरस की प्राप्ति होती है । 4. मुक्त होने पर तो ज्ञानयोगी सन्तुष्ट, तृप्त हो जाता है(गीता 3-17), पर प्रेम प्राप्त होने पर भक्त
सन्तुष्ट नहीं होता , प्रत्युत उसका आनन्द उत्तरोत्तर बढता रहता है
। अतः आखरी तत्व प्रेम है मुक्ति नहीं
। 5. ज्ञान
(तत्व ज्ञान) केवल अज्ञान को मिटाकर, दुःख, भय , जन्म-मरणरूप बन्धन ये सब मिटा देता
है, परन्तु प्रेम (भक्ति) आगे भगवान् तक पहुँचता है । 6.ज्ञानयोग (तथा कर्मयोग)
लौकिक निष्ठा है(गीता 3-3), पर जो भगवान् मे
लग जाता है, वह भगवन्निष्ठ होता है अर्थात निष्ठा अलौकिक होती है
। उसके साधन और साध्य -दोनों भगवान् ही होते
हैं । नव विधा साधन भक्ति है और इसके आगे
प्रेमलक्षणा भक्ति ‘साध्य भक्ति’ है जो ज्ञानयोग (तथा कर्मयोग) की साध्य है(गीता 18-54)
। यह साध्य भक्ति ही सर्वोपरि प्रापणीय तत्व
है ।
साधन कोई भी हो;जब सांसारिक भोग दुःखदायी प्रतीत होने लगेंगे तथा
भोगों का ह्र्दय से त्याग होगा तब (लक्ष्य भगवान् होने से) भगवान् की ओर स्वतः
प्रगति होगी और भगवान् की कृपा से ही उनकी प्राप्ति होगी
। साधक का यदि आरम्भ से
ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मुझे तो केवल भगवत्प्राप्ति
ही करनी है (चाहे लौकिक दृष्टि से कुछ भी बने या बिगड़े ) तो कर्मयोग, ज्ञानयोग या
भक्तियोग-किसी भी मार्ग से उसे बहुत जल्द भगवत्प्राप्ति हो सकती है
। साधक से यह एक बहुत बडी भूल होती है कि वह पारमार्थिक
क्रियाओं को करते समय तो अपना सम्बन्ध भगवान से मानता है, पर व्यावहारिक क्रियाओं
को करते समय वह अपना सम्बन्ध संसार से मानता है । यदि कर्तव्य-कर्म के आरम्भ
और अन्त में साधक का यह भाव है कि “मैं भगवान्
का ही हूँ और भगवान् के लिये ही कर्तव्य-कर्म कर रहा हूँ”,
तथा इस भाव में उसे थोड़ी भी शंका नही है, तो वह अपने कर्तव्य-कर्म में
तल्लीनतापूर्वक लग जाता है, और उस समय उसमें भगवान् की विस्मृति दिखते हुए भी
वस्तुतः विस्मृति नही होती (मानी जाती) । भक्त की परिभाषा ही है, जो विभक्त
(अलग) नही है वह भक्त है । भगवान् अपने भक्तों को कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों दे देते हैं (गीता 10-10व 11 ), क्योंकि भगवान का स्वरूप समग्र
है ।
भक्तियोग का सार है- वासुदेवः
सर्वम् – सब कुछ परमात्मा ही है (गीता 7-19) । उसी के भगवान् ( सगुण-साकार-निराकार), ईश्वर और ब्रह्म(निर्गुण
निराकार) नाम या रूप हैं । गीता मे कहे गये तीनो योगो में ज्ञानयोग से कर्मयोग श्रेष्ठ है, कर्मयोग से भक्तियोग श्रेष्ठ है परन्तु
भक्तियोग में साधनरुप कर्मयोग श्रेष्ठ है । अतः अन्ततः जीवन में कर्मयोग ही श्रेष्ठ
है ।
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