अपने जीवन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अहिंसा पर बहुत जोर दिया था। इसीलिये दुनिया भर में हो रही
अत्यधिक हिंसा को रोकने, "अहिंसा" की प्रासंगिकता और मानव जाति की भलाई में इसके योगदान के महत्व को समझने और "अहिंसा" के प्रचार-प्रसार
के लिए संयुक्त राष्ट्र
द्वारा 2 अक्टूबर (गांधीजी का जन्मदिवस)
"अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाता है।
हिंसा मूल रूप से 3 प्रकार की होती
है। पहले दो, अपने कठोर शब्दों या शारीरिक हिंसा से अन्य व्यक्ति को आहत करना । तीसरा प्रकार है हिंसक विचार रखना। ऐसे विचार किसी अन्य को ठेस नहीं पहुंचाते पर व्यक्ति
स्वंय शांत न रहकर तनावग्रस्त रहता और यह स्वयं
के प्रति हिंसा है । संक्षेप में कोई भी कार्य या विचार जो उदासीनता, आक्रामकता, शत्रुता, क्रूरता, परपीड़न और नरसंहार आदि को दर्शाता है, वह हिंसा का एक अलग रूप ही है। इस प्रकार पूर्ण रक्तपात ही हिंसा नहीं है, स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ घोषित करना, किसी को नज़रअंदाज़ करना, अपने धर्म या विचारधारा को दूसरे पर थोपना आदि भी हिंसा ही है । इसी प्रकार जब दिल्ली में
प्रदूषण से उत्पन्न पीड़ा पर विचार किए बिना पंजाब का किसान पराली
जलाता है या गुजरात में सरदार सरोवर बांध अपनी पूर्ण क्षमता से भरने पर मप्र के गांवों के आवास जलमग्न होते हैं तो ये हिंसा की
कार्रवाई ही हैं। पूर्ण अहिंसा की वास्तविक स्थिति तभी प्राप्त की जा
सकती है जब शब्दों, कर्मों और
विचारों द्वारा हिंसा को दूर किया जाये।
“भगवद गीता” के अध्याय 2 के श्लोक 62-63 उन विभिन्न मूल कारणों की व्याख्या करते है, जो अंततः मनुष्य को हिंसा की ओर ले जाते है। "इंद्रियों के विषयों पर ध्यान केंद्रित करने से व्यक्ति को विषयों के प्रति
लगाव पैदा होता है, लगाव से इच्छाएं पैदा होती हैं, इच्छा से (पूर्ण न होनेपर) क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति की विस्मृति, इसके बाद बुद्धि का क्षरण और अन्ततः व्यक्ति का पतन होता है। अर्थात भौतिक वस्तुओं के प्रति
लगाव, इच्छा, क्रोध, स्मृति हानि (क्या सही है या गलत है का विस्मरण) आदि ऐसे कारण
हैं जिनके कारण मानव हिंसक कार्य करता है ।
पिछली 3-4 शताब्दियों में कुछ ऐसे
सिद्धांत और प्रवृत्तियाँ उभरी हैं, जिन्होंने दुर्भाग्य से उपरोक्त कारणो को
प्रोत्साहित कर हिंसा को वैधता
प्रदान की है । पहला है डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत- यह विशुद्ध रूप से “प्राकृतिक चयन” के बारे में है पर सामाजिक रूप से इस सिद्धान्त को “शक्तिशाली द्वारा अपनी उन्नति के लिए दुर्बल को दबाया या शोषित किया जाना प्राकृतिक होकर उसमें कोई अनैतिकता नहीं है” के समर्थन के
लिये उपयोग में लाया गया है। दूसरा, समाज में “अभिजात वर्ग (elite by birth)” के प्रभुत्व के बजाय “योग्यता” के प्रभुत्व का उदय है। यद्यपि यह समाज में बहुत वांछित प्रगति है क्योंकि इसने
गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धा के आधार पर सभी मनुष्यों के लिए प्रगति का द्वार
खोल दिया हैं, लेकिन “सफलता” पर इसके अत्यधिक जोर ने मानव का व्यवहार बदल कर परस्पर करुणा और सहानुभूति को समाप्त कर दिया है। इसने असमान प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर पैदा किया है जहां अमीर गरीबों की कीमत पर जीतते हैं, और उनके खिलाफ गरीबों में ईर्ष्या पैदा होकर संघर्ष को अनिवार्य बना दिया है। दोनों सिद्धान्तो के आधार पर जीवन अपनाने
वालों को “भगवद गीता” मे “राजस गुण” वाला कहा गया है, जो अन्ततः दुःख ही पाते हैं।
फिर भी दुनिया में हिंसा आज इतनी व्यापक हो गई है कि केवल जब कुछ भीषण या चौंकाने
वाला होता है, तो ही इस बात पर बहस होती है कि हिंसा को कैसे रोका जाए। लेकिन समाज और राष्ट्र, एक
बुराई को अन्य बड़ी बुराई के साथ तुलना करते है। अतः गलत को सही करने के लिए या गलत करने वाले को अनुशासित करने के लिए बल प्रयोग
को एक आदर्श के रूप में अपनाया गया है। लेकिन आज एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या हिंसा एक अच्छे कारण के लिए उचित है? अधिकांश लोग
आतंकवाद, अपराध, समाज के कमजोर वर्गों की रक्षा की आवश्यकता आदि
की ओर इशारा करके "हां" में प्रतिक्रिया देंगे। लेकिन इतिहास इस बात का
गवाह है कि हिंसा अधिक हिंसा को जन्म देती है। हम बल के प्रयोग से किसी शत्रु को
वश में कर सकते हैं लेकिन हम बल द्वारा घृणा, आक्रोश, अविश्वास और
दुष्टता को वश में नहीं कर सकते हैं ।
पर इस हिंसा की शुरुआत इस भ्रम से हुई कि मैं/हम दूसरे से अलग
हैं (स्वयं और अन्य व्यक्ति / वस्तु, मेरा और अन्यका) और हम दूसरे के साथ क्या करते हैं, इसका मेरे/हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। जब तक
मन/व्यक्तित्व से यह द्वैतवाद समाप्त नहीं हो जाता, हम अपने जीवन से हिंसा को समाप्त नहीं कर सकते। स्वयं को
अहिंसक घोषित करना और फलस्वरूप दूसरे को हिंसक घोषित करना हिंसा का ही एक रुप है। विज्ञान के एक तर्कसंगत छात्र के रूप में इस बारे में संदेह हो सकता है, लेकिन, भौतिकी में "क्वांटम फील्ड थ्योरी" और "स्ट्रिंग थ्योरी" भी प्रतिपादित
करते हैं कि हम सभी( पदार्थ और उर्जा) अलग-अलग कण न होकर, एक बड़ी लहर (Wave) का हिस्सा है और एक ही बल द्वारा शासित
है। हम सभी, केवल एक की अलग-अलग अभिव्यक्ति हैं और एक दूसरे से जुड़े
हुए हैं, और कोई भी कंपन ( दुःख या सुख) एक बिन्दु से चारो और फैल जाता है। अंतत: हिंसा करने के लिए कोई दूसरा नहीं है। भले ही व्यवहार में हम सभी अद्वैतवाद
(सब एक है) की अवधारणा को न अपना सके लेकिन दूसरे (जो वास्तव में अन्य नही हैं) के प्रति अपने व्यवहार में सुधार कर हमारे जीवन में हिंसा
की संभावना को कम जरुर कर सकते हैं।
हिंसा से व्यक्तियों, समुदायों और यहां तक कि राष्ट्रों के लिए भी कई नुकसान हैं। राष्ट्रों के संघर्ष में बड़े पैमाने पर लोग मारे जाते हैं, अपंग हो जाते
हैं, विस्थापित हो जाते हैं, बच्चे बेघर और अनाथ हो जाते हैं और सभी शरणार्थी बीमारियों से ग्रस्त परिस्थितियों
में रहते हैं। इस तरह के अमानवीय कृत्यों को देखने वाला व्यक्ति भी मानसिक रूप से आहत हो जाता है। हिंसा के लिए जिम्मेदार व्यक्ति भी अपने गलत
कामों से, पीड़ीत व्यक्ति द्वारा प्रतिशोध के लिए पकड़े जाने या दंडित किए जाने कि आशंका से भयभीत रहता हैं। पर अधिक
महत्वपूर्ण है, एक व्यक्ति,
समाज, राष्ट्र या विश्व, युद्ध या हिंसक संघर्ष में प्रगति नहीं कर
सकता। जब हिंसा से, मनुष्य के अस्तित्व, बुनियादी मानवाधिकार और सुरक्षा को खतरा हो तो वह रचनात्मक और प्रगतिशील गतिविधियों के बारे में
नही सोच सकता ।
हिंसा से उत्पन्न समस्याओं का एकमात्र प्रतिकार और समाधान अहिंसा की संस्कृति
को बढ़ावा देना है। प्रत्येक इकाई
यह माने कि वे जो सोचते हैं वह अन्तिम
सत्य न होकर उनका अपना एक दृष्टिकोण है और अन्य इकाई का एक अपना दृष्टिकोण हो सकता
है, और उसे यह दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। उदाहरण के लिये चित्र में आप “13” पढ़ते हैं या “B” पढ़ते हैं, यह इस पर निर्भर है कि आप उर्ध्वाधर
पढ़ते हैं या क्षैतिज पढ़ते हैं।
इस प्रकार समस्याओं को हल करने के तर्कसंगत और गैर-आक्रामक
तरीकों को बढ़ावा देकर, अहिंसा हमारी दुनिया के सभी समस्याओं का
निवारण कर सकती है । फिर राष्ट्रों को सामूहिक
विनाश के घातक हथियारों की जमाखोरी की कोई आवश्यकता नहीं होगी। ऐसे समाज या राष्ट्र के पास रचनात्मक कार्यों में निवेश करने के लिए अत्यधिक मानसिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक और रचनात्मक ऊर्जा होगी और वे अन्य क्षेत्रों में अपना सर्वश्रेष्ठ हासिल करने के लिए खुद को समर्पित कर सकते है।
पूर्ण अहिंसा की नीति अपनाने के लिए, यह आवश्यक है कि हम हिंसा के अंतर्निहित उपरोक्त कारणों-जिन्हें हम मानसिक प्रदूषण कह सकते हैं- को हटा दें। यदि
प्रत्येक व्यक्ति अपने अहंकार, लालच और ईर्ष्या आदि को दूर करता है; दूसरों की
उपलब्धि, समृद्धि में खुश रहना सीखता है तो उसके दिमाग में कभी
भी हिंसा का विचार नहीं आएगा। हिंदू धर्म और इसकी परंपराओं में अहिंसा को सर्वोच्च
कर्तव्य माना गया है। प्राचीन भारत में, लोग व्यावहारिक रूप से 'अहिंसा परमो धर्म' (अहिंसा सर्वोच्च आचरण है) के सिद्धांत पर रहते थे। पुनः आज, प्राचीन
पतंजलि के अष्टांग (आठ
तत्व) तत्वों में से (व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए) तीसरा और चौथा तत्व- आसन और प्राणायाम- दुनिया भर में लोकप्रिय होकर बड़ी संख्या में
लोगों द्वारा इनका अभ्यास किया जा रहा है। लेकिन इनका पूरा लाभ उठाने के लिए और जीवन से हिंसा समाप्त करने का लिये अष्टांग योग के पहले दो तत्व, यम और नियम को जीवन में अपनाना जरुरी
है।
यम का अर्थ है 'संवर लेना'
जबकि नियम का अर्थ है 'आचरण का नियम'। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी न करना), ब्रह्मचर्य या निरंतरता और अपरिग्रह ( अलोभ) ये पांच यम होकर उनमें एक सुविचारित क्रम है । नियम में भी पांच अंग होते हैं, शौच (आंतरिक और बाहरी शुद्धि), संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और देवत्व के प्रति समर्पण। इससे व्यक्ति, हिंसा के मूल कारण, तृष्णा, अनावश्यक चाहतों रखने और भोगने की इच्छा से मुक्त हो जाता है ।
आईये हम अपने शब्दो और कार्यो से दुसरो पर होने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर,
आचरण में यम-नियम पालकर और अन्ततः अद्वैतवाद (जिसंमे हिंसा के लिये कोई अन्य है ही
नही) अपना कर “अहिंसा” का पालन करे और जीवन
सुखमय और आनन्दमय बनायें।
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