Sunday, February 14, 2021

गीता -हमारी समस्यायें सुलझाने की कुन्जी

 

गीता -हमारी समस्यायें सुलझाने की कुन्जी

महाभारत मे य़ुद्ध पुर्व अर्जुन द्वारा, स्वजनो के मोह, पाप करने का डर तथा युद्ध के परिणाम की अनिश्चितता इत्यादि एक ना अनेक कारणों या कहें अनुचित धारणाओं, भ्रमों के चलते, अपने कर्तव्य (कर्म)  से मूँह मोड लिया था और  फिर श्रीकृष्ण के उपदेश (गीता) से ही उनकी धारणायें बदली,  भ्रम समाप्त हुए और वे  अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ सके  हम सब भी , किसी न किसी रुप मे, किसी न किसी समय, जीवन में अर्जुन की स्थिती मे होते हैं ।  हम भी  श्रीकृष्ण द्वारा गीता मे दिये गये के  उपदेशों  को मानकर अपने आचार विचार उसी प्रकार  से  कर लें  तो हमारी सभी समस्यायें सुलझ जायेगीं ।

 गीता  हमें होने वाली भावनाओं, (सुख- दुःख, काम, क्रोध, लोभ, घमण्ड, सन्देह, संशय, ईर्ष्या, पाप का भय, निराशा, अकेलापन, इत्यादि एक ना अनेक) के मूल कारण समझाती है । इसके साथ ही इन भावनाओं के परिणाम या दुष्परिणाम की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है । फिर वह इनका निराकरण कैसे किया जाए यह भी बतलाती है । प्रस्तुत लेख में इन्ही विषयो पर जिज्ञासा  जागृत करने के उद्येश्य से संक्षेप मे चर्चा की गयी है । अतः लेख में  गीता के 700 श्लोकों में से कुछ श्लोक ही सम्मिलित किये हैं । इस कारण से  लेख मे धारा प्रवाह की कमी है और श्लोक बिना सन्दर्भ के भी जान पडते हैं इसके लिये वाचक मुझे  क्षमा करें । सभी से विनती है कि गीता के उपदेशो का गहन अध्ययन, मनन कर स्वयं के आचरण में लाएं व  जीवन में रोज -रोज आने वाली समस्याओं का समाधान पायें ।

 हमारी समस्याओं के मूल में, हमारे द्वारा अक्षर (चेतन) की बजाय नाशवान शरीर को प्रधानता देना है गीता में शरीर को क्षेत्र नाम से (भी) सम्बोंधित किया गया है यह (शरीर) कैसा है इसको हम शुरुवात में ही समझ लेते हैं मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महा भूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों  इन्द्रियो के पाँच विषय ( -- यह चौबीस तत्त्वों वाला क्षेत्र है)। ।।13.6।। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राण शक्ति) और धृति -- इन विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है।।।13.7।। (किसी गीता मे 13.5 व 6) इन  श्लोकों के अनुसार शरीर - मन, इन्द्रिय विषय और भावनाओं इत्यादि - विकारों  की गठरी मात्र है र्जुन भी अपने स्वजनो को युद्धस्थल पर देखकर इन विकारों के वश, शोकाकुल,  मोहित, भ्रमित, संशयित इत्यादि  हो जाते हैं और मै युद्ध नही करूँगा यह निश्चय कर लेते हैं

अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरता से युक्त होकर विषाद  करते हुए ये वचन बोले । ।।1.27।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। ।।1.28 -- 1.30।। हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हम  लोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। ।।1.36।। हम यह भी नहीं जानते कि हम  लोगों के  लिये युद्ध करना और न करना – इन  दोनों  में से कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र  के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। ।।2.6।। संजय बोले - ऐसा कहकर शोकाकुल (स्वजनो की मृत्यु की कल्पना से) मन वाले अर्जुन बाण सहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथ  के मध्य भाग में बैठ गये। ।।1.47।। संजय बोले - हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये। ।।2.9।।

गीता के अनुसार हमे जो कुछ भी अच्छा या बुरा लगता है वह अच्छा या बुरा न होकर, हमारे अन्दर उपस्थित  राग और द्वेष (Attachment/Attraction-Repulsion/Envoy) द्वारा दी गयी प्रतिक्रिया मात्र है विषयो से उत्पन्न सुख और दुःख की अनुभूति आने-जाने वाले और अस्थायी हैं और हमे इनके (राग और द्वेष के)  अधीन नही होना है  इसी तरह हमें ध्यान रखना है, सभी भावनाएं जोडीयों (pairs)  मे होती हैं किसी  व्यक्ति या परिस्थिती से हमें राग है तो किसी अन्य व्यक्ति या परिस्थिती से हमे द्वेष जरुर होगा   ऐसा ही सुख-दुःख इत्यादि अन्य सभी भावनाओं का है

 राग -हमारे मन में राग होने से ही प्रिय की मृत्यु पर हमें शोक होता है पर  श्रीकृष्ण कहते है जन्म-मृत्यु जैसी घटनाएं अवश्यंभावी है और उन पर शोक नही करना चाहिये - क्योंकि पैदा हुए की जरूर  मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा । इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। ।।2.27।। श्रीभगवान् बोले - तुमने शोक न करने योग्य  का  शोक  किया है और  पण्डिताई की बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डित  लोग शोक नहीं करते। ।।2.11।। देहधारी के इस मनुष्य शरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तर की प्राप्ति होती है । उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता। ।।2.13।। (इसी प्रकार )मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही (आत्मा) पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों  में चला जाता है। ।।2.22।।

 द्वन्द्व (Conflict, Confusion) (इस कारण से वे कहते हैं) हे अर्जुन! इस विषम अवसर पर तुम्हें यह कायरता कहाँ से प्राप्त हुई, जिसका  श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्ग को देने वाली नहीं है और कीर्ति करने वाली भी नहीं है। ।।2.2।। (और) सब प्राणी भी तेरी सदा रहने वाली अपकीर्ति का कथन अर्थात निंदा करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ़कर दुःखदायी होती है। ।।2.34।। (अतः) हे पृथानन्दन अर्जुन ! (तुम) इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है । हे परंतप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके युद्ध के लिये खड़े हो जाओ। ।।2.3।। हे भरतवंश में उत्पन्न परंतप ! इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में मूढ़ता को (अर्थात् जन्म-मरण को)  प्राप्त हो रहे हैं। ।।7.27।। इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में (प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में) मनुष्य के राग और द्वेष व्यवस्था से (अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर) स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक, सुख व शान्ति के मार्ग में विघ्न डालने वाले) शत्रु हैं । ।।3.34।। हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकाङ्क्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों  से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धन  से मुक्त हो जाता है। ।।5.3।।

 समता (Equipoise) हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों के जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं तथा आने-जाने  वाले और अनित्य  (अस्थायी) हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो । ।।2.14।। क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्त (प्रारभं-अन्त) वाले और दुःख के ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता। ।।5.22।। कारण कि हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःख में सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्य को ये मात्रा स्पर्श (पदार्थ) व्यथित (सुखी-दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होने में समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है। ।।2.15।। ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनय युक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं। ।।5.18।। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करने वालों में और पाप-आचरण करने वालों में भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है। ।।6.9।। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्ध में लग जा । इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा । ।।2.38।।

मन की शान्तता (Peace of Mind) - अर्जुन बोले -- हे मधुसूदन ! आपने समता पूर्वक जो यह योग कहा है, मन की चञ्चलता  के  कारण मैं इस योग की स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ। ।।6.33।। क्योंकि हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। ।।6.34।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है -- यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है। ।।6.35।। (ध्यान रहें) अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है। ।।2.67।। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मक, Decisive)) बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्य परायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ।।2.66।।इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है । ।।2.68।। मनुष्य (मन पर नियंत्रण कर) अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । ।।6.6।।  जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित, ममता रहित और अहंकार रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।  ।।2.71।। 

 जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। ।।4.39।। कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। ।।2.61।। वशीभूत अन्तःकरण वाला कर्मयोगी साधक राग-द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्त वाले साधक की बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है। ।।2.64 -- 2.65।। जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं। ।।2.70।।

काम (Lust), क्रोध (Anger) और लोभ (Greed) - भोगों की कामना से ही काम (Lust), क्रोध और लोभ होते हैंकाम , क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकार  के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये। ।।16.21।। विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। ।।2.62 -- 2.63।। श्रीभगवान् बोले – रजोगुण से उत्पन्न हुआ  यह काम ही क्रोध  है। यह बहुत खानेवाला और महापापी है। इस विषय में तू इसको ही वैरी जान। ।।3.37।। और हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है। ।।3.39।। इसलिये हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल। ।।3.41।। इन्द्रियों को (स्थूल शरीर से) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल। ।।3.42 -- 3.43।। दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा (कामना) नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहा जाता है। ।।2.56।।  इस मनुष्य-शरीर में जो कोई (मनुष्य) शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है। ।।5.23।।

अर्जुन सम्बन्धियों को मारना पाप समझते हैं और उस पापकर्म से दूर रहना चाहते हैं, पर श्रीकृष्ण ने  काम को ही पापी बताया है अब वे बिना पाप को प्राप्त हुए कैसे कर्म करे और कर्म  का क्या महत्व है यह बताते हैं वे यह भी बताते हैं कि ज्ञान से पाप को भस्म किया जा सकता हैं

कर्म (Action) - अपने स्वधर्म (क्षात्र धर्म) को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है । ।।2.31।। अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म (कर्म) से  गुणों की कमी वाला अपना धर्म(कर्म) श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है। ।।3.35।। हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।।।18.48।।जो कुछ कर्म है, वह दुःख रूप ही है -- ऐसा समझकर कोई शारीरिक क्लेश के भय से उसका त्याग कर दे, तो वह (राजस) त्याग करके भी त्याग के फल को नहीं पाता। ।।18.8।। कारण कि देहधारी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है, वही त्यागी है -- ऐसा कहा जाता है। ।।18.11।। (वास्तव मे) कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृति के) परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृति जन्य गुण कर्म कराते हैं ( हम कार्य कर रहे हैं ऐसा न माने) । ।।3.5।। तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा। ।।3.8।। कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता (आलस्य) में भी आसक्ति न हो। ।।2.47।। यज्ञ (कर्तव्य पालन) के लिये किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र (अपने लिये किये जाने वाले) कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है, इसलिये हे कुन्तीनन्दन ! तू आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के लिये ही कर्तव्य-कर्म कर। ।। 3.9।। जो कर्म और फल की आसक्ति ( कर्म का फल मिले यह इच्छा) का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। ।।4.20।। जो (कर्मयोगी) फल की इच्छा के बिना, अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से अतीत तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता। ।।4.22।।

 पाप(Sin) (अतः) अब अगर तू यह धर्म मय युद्ध नहीं करेगातो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा। ।।2.33।। जिसका शरीर और अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशा रहित कर्मयोगी केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता। ।।4.21।। अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञान रूपी नौका के द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप समुद्र से अच्छी तरह तर जायगा । ।।4.36।। हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञान रूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है। ।।4.37।। इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है । जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है। ।।4.38।। जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता। ।।5.10।।  

 संशयी, संदेही,  हठी या भ्रमित मनुष्य -विवेकहीन और श्रद्धा रहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिये न यह लोक  है न परलोक है और न सुख ही है। ।।4.40।। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञान रूप तलवार से छेदन करके योग -(समता-) में स्थित हो जा, (और युद्ध के लिये) खड़ा हो जा ।।4.42।। अहंकार का आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्ध में लगा देगी। ।।।18.59।। हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभाव जन्य कर्म से बँधा हुआ तू मोह के कारण जो नहीं करना चाहता, उसको तू (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा ।।18.60।।

 उपरोक्त वर्णित अच्छी बुरी भावनाओं के आधार पर गीता में मनुष्यों के दो प्रकार व उनके उनके परिणाम बताये हैं

दैवी प्रवृत्ति(सम्पदा)- मानित्व-(अपने में श्रेष्ठता के भाव-) का न होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना।।।13.8।। इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रूप दोषों को बार-बार देखना। ।।13.9।।आसक्ति रहित होनापुत्रस्त्री, घर आदि में एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना। ।।13.10।। (या 13.7,8,9) श्री भगवान् बोले – भय का सर्वथा अभाव; अन्तःकरण की शुद्धि; ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियों का दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणी की सरलता। ।।16.1।। अहिंसा, सत्य भाषण; क्रोध न करना; संसार की कामना का त्याग; अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना; चुगली न करना; प्राणियों पर दया करना सांसारिक विषयों में न ललचाना; अन्तःकरणकी कोमलता; अकर्तव्य करनेमें लज्जा; चपलताका अभाव।।।16.2।।तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न रहना और मानको न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। ।।16.3।।

आसुरी प्रवृत्ति (सम्पदा)- हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेक का होना भी -- ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं। ।।16.4।।  कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहनेवाले तथा अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके संसार में विचरते रहते हैं। ।।16.10।। वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहनेवाले और 'जो कुछ है, वह इतना ही है' -- ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं। ।।16.11।।  वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्याय पूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं। ।।16.12।। वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्व समर्थ हैं। हमारे पास भोग-सामग्री बहुत है। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं। ।।16.14।। हम धनवान् हैं, बहुत-से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान और कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे -- इस तरह वे अज्ञान से मोहित रहते हैं। ।।16.1।।

दैवी-सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी-सम्पत्ति बन्धन के लिये है। हे पाण्डव तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये।।।16.5।।

उपसंहार- यदि हम यह समझ ले की- संसार अनिश्चित, परिवर्तनशील और नाशवान है, सुख-दुःख नही होता, परिस्थितीयां अनुकूल-प्रतिकूल होती हैं और हम कोई कार्य नही करते प्रकृति हमसे कार्य करवा लेती है - तो हमारे जीवन की अधिकांश चिंताएँ  और व्यर्थ की दौड धूप खत्म हो जायेगी । शांतमय जीवन के लिये  हमे स्थिर (सम) बुद्धि व श्रद्धावान बनना होगा जो कर्ता राग रहित, अनहंवादी, धैर्य और उत्साहयुक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है। ।।18.26।। जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होनेवाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टि से) सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख रूप द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे (ऊँची स्थिति वाले) मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद-(परमात्मा-शान्ति) को प्राप्त होते हैं। ।।15.5।। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ ।।9.22।। मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायेगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायेगा ।।18.58।।