गीता -हमारी समस्यायें सुलझाने की
कुन्जी
महाभारत मे य़ुद्ध पुर्व अर्जुन द्वारा, स्वजनो के मोह, पाप
करने का डर तथा युद्ध के परिणाम की अनिश्चितता इत्यादि एक ना अनेक कारणों या कहें
अनुचित धारणाओं, भ्रमों के चलते, अपने कर्तव्य (कर्म) से मूँह मोड लिया था और फिर श्रीकृष्ण के उपदेश (गीता) से ही उनकी
धारणायें बदली, भ्रम समाप्त हुए और वे अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ सके । हम सब भी , किसी
न किसी रुप मे, किसी न किसी समय, जीवन में अर्जुन की स्थिती
मे होते हैं । हम
भी श्रीकृष्ण द्वारा गीता मे
दिये गये के उपदेशों को मानकर अपने आचार विचार उसी प्रकार से कर
लें तो हमारी सभी समस्यायें सुलझ जायेगीं ।
अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले । ।।1.27।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। ।।1.28 -- 1.30।। हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हम लोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। ।।1.36।। हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिये युद्ध करना और न करना – इन दोनों में से कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। ।।2.6।। संजय बोले - ऐसा कहकर शोकाकुल (स्वजनो की मृत्यु की कल्पना से) मन वाले अर्जुन बाण सहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथ के मध्य भाग में बैठ गये। ।।1.47।। संजय बोले - हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये। ।।2.9।।
गीता के अनुसार हमे जो कुछ भी अच्छा या बुरा लगता है वह अच्छा या बुरा न होकर, हमारे अन्दर उपस्थित राग और द्वेष (Attachment/Attraction-Repulsion/Envoy) द्वारा दी गयी प्रतिक्रिया मात्र है । विषयो से उत्पन्न सुख और दुःख की अनुभूति आने-जाने वाले और अस्थायी हैं और हमे इनके (राग और द्वेष के) अधीन नही होना है । इसी तरह हमें ध्यान रखना है, सभी भावनाएं जोडीयों (pairs) मे होती हैं । किसी व्यक्ति या परिस्थिती से हमें राग है तो किसी अन्य व्यक्ति या परिस्थिती से हमे द्वेष जरुर होगा । ऐसा ही सुख-दुःख इत्यादि अन्य सभी भावनाओं का है ।
मन की शान्तता (Peace of Mind) - अर्जुन बोले -- हे मधुसूदन ! आपने समता पूर्वक जो यह योग कहा है, मन की चञ्चलता के कारण मैं इस योग की स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ। ।।6.33।। क्योंकि हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ। ।।6.34।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है -- यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है। ।।6.35।। (ध्यान रहें) अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है। ।।2.67।। जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मक, Decisive)) बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्य परायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ।।2.66।।इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है । ।।2.68।। मनुष्य (मन पर नियंत्रण कर) अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । ।।6.6।। जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित, ममता रहित और अहंकार रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है। ।।2.71।।
काम (Lust), क्रोध (Anger) और लोभ (Greed) - भोगों की कामना से ही काम (Lust), क्रोध और लोभ होते हैं। काम , क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये। ।।16.21।। विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। ।।2.62 -- 2.63।। श्रीभगवान् बोले – रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खानेवाला और महापापी है। इस विषय में तू इसको ही वैरी जान। ।।3.37।। और हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है। ।।3.39।। इसलिये हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल। ।।3.41।। इन्द्रियों को (स्थूल शरीर से) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धि से भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धि से पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल। ।।3.42 -- 3.43।। दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें स्पृहा (कामना) नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहा जाता है। ।।2.56।। इस मनुष्य-शरीर में जो कोई (मनुष्य) शरीर छूटने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है। ।।5.23।।
अर्जुन सम्बन्धियों को मारना पाप समझते हैं और उस पापकर्म से दूर रहना चाहते हैं, पर श्रीकृष्ण ने काम को ही पापी बताया है। अब वे बिना पाप को प्राप्त हुए कैसे कर्म करे और कर्म का क्या महत्व है यह बताते हैं । वे यह भी बताते हैं कि ज्ञान से पाप को भस्म किया जा सकता हैं ।
कर्म (Action) - अपने स्वधर्म (क्षात्र धर्म)
को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याण कारक
कर्म नहीं है । ।।2.31।। अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म (कर्म) से गुणों की कमी वाला अपना धर्म(कर्म) श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है। ।।3.35।। हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि
सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह
किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।।।18.48।।जो कुछ कर्म है, वह दुःख रूप ही है -- ऐसा समझकर कोई शारीरिक क्लेश के भय से उसका त्याग कर दे, तो वह (राजस) त्याग करके भी त्याग के फल को नहीं पाता। ।।18.8।। कारण कि देहधारी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है, वही त्यागी है -- ऐसा कहा जाता है। ।।18.11।। (वास्तव मे) कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म
किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृति के) परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृति जन्य गुण कर्म कराते हैं ( हम कार्य कर
रहे हैं ऐसा न माने) । ।।3.5।। तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा। ।।3.8।। कर्तव्य-कर्म करने में
ही तेरा अधिकार है,
फलों में कभी नहीं। अतः तू
कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता (आलस्य) में भी आसक्ति
न हो। ।।2.47।। यज्ञ (कर्तव्य पालन) के लिये किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र (अपने लिये किये जाने वाले) कर्मों में लगा हुआ यह
मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है, इसलिये हे कुन्तीनन्दन ! तू
आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के लिये ही कर्तव्य-कर्म कर। ।। 3.9।। जो कर्म और फल की आसक्ति ( कर्म का फल
मिले यह इच्छा) का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। ।।4.20।। जो
(कर्मयोगी) फल की इच्छा के बिना, अपने-आप जो कुछ मिल जाय,
उसमें सन्तुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से अतीत तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह
कर्म करते हुए भी
उससे नहीं बँधता। ।।4.22।।
दैवी प्रवृत्ति(सम्पदा)- मानित्व-(अपने में श्रेष्ठता के भाव-) का न
होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन-)
का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता
और मन का वश में होना।।।13.8।। इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और
जन्म, मृत्यु,
वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुःख रूप दोषों को बार-बार
देखना। ।।13.9।।आसक्ति रहित होना; पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता
(घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम
रहना। ।।13.10।। (या 13.7,8,9) श्री भगवान्
बोले – भय का सर्वथा अभाव; अन्तःकरण की शुद्धि; ज्ञान के लिये
योग में दृढ़ स्थिति; सात्त्विक
दान; इन्द्रियों का दमन; यज्ञ; स्वाध्याय;
कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणी की सरलता।
।।16.1।। अहिंसा, सत्य भाषण; क्रोध न करना; संसार की कामना का त्याग; अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना; चुगली न करना; प्राणियों पर दया
करना सांसारिक विषयों में न ललचाना; अन्तःकरणकी कोमलता; अकर्तव्य करनेमें लज्जा;
चपलताका अभाव।।।16.2।।तेज (प्रभाव),
क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न रहना
और मानको न चाहना, हे भरतवंशी
अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण
हैं। ।।16.3।।
आसुरी प्रवृत्ति (सम्पदा)- हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेक का होना भी -- ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं। ।।16.4।। कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहनेवाले तथा अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके संसार में विचरते रहते हैं। ।।16.10।। वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहनेवाले और 'जो कुछ है, वह इतना ही है' -- ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं। ।।16.11।। वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्याय पूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं। ।।16.12।। वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्व समर्थ हैं। हमारे पास भोग-सामग्री बहुत है। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं। ।।16.14।। हम धनवान् हैं, बहुत-से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान और कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे -- इस तरह वे अज्ञान से मोहित रहते हैं। ।।16.1।।
दैवी-सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी-सम्पत्ति बन्धन के लिये है। हे पाण्डव तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम्हें शोक (चिन्ता) नहीं करना चाहिये।।।16.5।।
उपसंहार- यदि हम यह समझ ले की- संसार अनिश्चित, परिवर्तनशील और नाशवान है, सुख-दुःख नही होता, परिस्थितीयां अनुकूल-प्रतिकूल होती हैं और हम कोई कार्य नही करते प्रकृति हमसे कार्य करवा लेती है - तो हमारे जीवन की अधिकांश चिंताएँ और व्यर्थ की दौड धूप खत्म हो जायेगी । शांतमय जीवन के लिये हमे स्थिर (सम) बुद्धि व श्रद्धावान बनना होगा । जो कर्ता राग रहित, अनहंवादी, धैर्य और उत्साहयुक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है। ।।18.26।। जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होनेवाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टि से) सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख रूप द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे (ऊँची स्थिति वाले) मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद-(परमात्मा-शान्ति) को प्राप्त होते हैं। ।।15.5।। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ । ।।9.22।। मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायेगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायेगा । ।।18.58।।