जिस प्रकार गीता में परम-तत्व (ज्ञान) की प्राप्ति में साधन रूप कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग इत्यादि अलग-अलग साधनों से प्राप्त होने वाले परम-तत्व -की अनुभुति, उससे प्राप्त शान्ति, आनन्द इत्यादि -में सूक्ष्म अन्तर होने के बावजूद साध्य रुप परम-तत्व एक ही है । उसी प्रकार अलग-अलग साधनों से परम-तत्व प्राप्त सिद्ध पुरुषों के लक्षणों और उनके द्वारा किये गये व्यवहारों में सूक्ष्म अन्तर होने के बावजूद मूलतः सभी के लक्षण और व्यवहार समान हैं । इन लक्षणों, व्यवहारों तथा अन्तर्निहित कारणों का भगवान ने जगह-जगह पर अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में अथवा स्वयं ही वर्णन किया है । इन वर्णनों को हम गीता- के स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण (अध्याय 2 श्लोक 54-72), ज्ञानवान के लक्षण ( अध्याय 3 श्लोक 25-35), योगी महात्मा पुरुष के आचरण (अध्याय 4 श्लोक 19-23), साँख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण (अध्याय 5 श्लोक 7-12), भगवत्प्राप्त पुरुष (सिद्ध भक्त) के लक्षण (अध्याय 12 श्लोक 13-20), गुणातीत पुरुष के लक्षण (अध्याय 13 श्लोक 19-27) तथा दैवी सम्पदायुक्त पुरुष के लक्षण (अध्याय 16 श्लोक 1-5)- में पाते हैं । इस लेख में, उन सभी लक्षणों, व्यवहारों तथा अन्तर्निहित कारणों का एक जगह प्रस्तुतिकरण करने का प्रयास किया गया है ।
परिचय रुप मे साधारणतः हम कह सकते हैं, सिद्ध पुरुष
अपनी साधना द्वारा स्वयं के व्यक्तित्व में कुछ नया जोड़ने की अपेक्षा, स्वयं में
जो कुछ विकार चिपके हुए हैं, उनको दूर
करने मे सफल होते हैं । मुख्य विकार चार हैं - (1) राग, (2) द्वेष, (3) हर्ष और (4) शोक । पुनः हर्ष और शोक, दोनों राग-द्वेष के ही परिणाम हैं । इन मूल विकारों को
दूर करते ही अन्य विकार भी स्वतः दूर हो जाते हैं । ये विकार दूर करने के अलावा वे
स्वतः को सतत् परिवर्तनशील प्रकृति से तथा उनसे उत्पन्न करणों (instruments of action) से स्वयं को अलग करते
हुए निर्विकार परम तत्व से अपने आप को जोड़ लेते हैं ।
ऱाग-द्वेष - सिद्ध न
किसी से राग, करता है न द्वेष करता है, वह शुभ-अशुभ में राग-द्वेष भाव से रहित, तथा कर्मों में भी राग-द्वेष का त्यागी है । इन्द्रियों के विषय में अनुकूलता का भाव होने पर मनुष्य का उस विषय में 'राग' हो जाता है और
प्रतिकूलता का भाव होने पर उस विषय में 'द्वेष' हो जाता है । संसार के पदार्थों का मन पर जो रंग चढ़ जाता है उसको 'राग' कहते हैं । अन्तःकरण में जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम ही 'वासना' , 'आसक्ति' या प्रियता
है । मेरे को वस्तु मिल जाय, ऐसी जो इच्छा होती है, उसका नाम 'कामना'
है ।
कामना पूरी होने की
जो सम्भावना है, उसका नाम 'आशा' है । कामना पूरी होने पर भी पदार्थों के बढ़ने की तथा पदार्थों के और मिलने की जो इच्छा होती है, उसका नाम 'लोभ' है । लोभ की मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम 'तृष्णा' है । तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति-विनाशशील
पदार्थों में जो
खिंचाव है, श्रेष्ठ और महत्त्व-बुद्धि है, उसी को
वासना,
कामना आदि कहते हैं । पदार्थों में राग होनेपर अगर कोई सबल
व्यक्ति उन पदार्थोंका नाश करता है, उनसे
सम्बन्ध-विच्छेद करता है, उनकी प्राप्ति में विघ्न डालता है, तो मन में
'भय' (इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग की आशंका से होने वाला विकार ।) होता है । अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है, तो मनमें 'क्रोध' (दूसरों का अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में जलनात्मक वृत्ति पैदा होना) होता है । पर जबतक अन्तःकरण में दूसरों का अनिष्ट करने की भावना पैदा नहीं होती, तब तक वह क्षोभ
है )। राग-द्वेष न होने से क्रोध और भय भी नही रहते । [- अ 2-श्लो.
56-57-64,अ 3 श्लो.34,अ12- श्लो.13-15-17,अ 16- श्लो.1-2]
सम- सिद्ध सब प्राणियों में परमात्मा ही परिपूर्ण हैं और अपने से सब की सेवा बन जाए --इस भाव में कोई फर्क नहीं आने देता । सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा ही उसकी आत्मा होती है । उसके द्वारा प्राणियों के भाव, गुण, आचरण आदि की भिन्नता को लेकर उनके साथ बर्ताव करने में विषमता तो होती है, कारण कि वह बर्ताव तो उनके भाव, आचरण, परिस्थिति आदि के अनुसार ही है और उनके लिये
ही है, उसके अपने लिये नहीं । पर उसका उनकी हितैषिता में अर्थात् उनका हित करने में, दुःख के समय उनकी सहायता करने में उसके अन्तःकरण में कोई विषम भाव, पक्षपात नहीं होता । प्राणी के अतिरिक्त पदार्थ अर्थात-मिट्टी के ढेले (लोष्ट), पत्थर (अश्म), स्वर्ण (कांचन),-इन सब में वह सम रहता है । उसको यह ढेला है, यह पत्थर है,
यह स्वर्ण है--ऐसा ज्ञान तो अच्छी तरह से होता है और उसका व्यवहार भी
उनके अनुरूप , वैसा ही होता है अर्थात् वह स्वर्ण को तिजोरी में सुरक्षित रखता है और ढेले
तथा पत्थर को बाहर ही पड़े रहने देता है । ऐसा होने पर भी स्वर्ण, धन चला जाय या मिल जाय, तो उसके मन पर कोई असर नहीं पड़ता यही
उसका सम रहना है । बाहर से व्यक्ति,वस्तु, पदार्थ आदि का संयोग रहते हुए भी वह भीतर से सर्वथा निर्लिप्त रहता है । सर्वत्र स्नेह रहित, निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलता को लेकर अभिनन्दन नहीं करता और
प्रतिकूलता को लेकर द्वेष या शोक नहीं करता । तात्पर्य है कि उसको अनुकूल-प्रतिकूल अच्छे-मन्दे अवसर
प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर
सदा निर्लिप्तता बनी रहती है । उसकी प्रसन्नता सांसारिक पदार्थों के संयोग-वियोग से उत्पन्न क्षणिक, नाशवान तथा घटने-बढ़ने वाली नहीं होती । प्रत्युत उसकी प्रसन्नता तो
नित्य (सदा), एक रस, विलक्षण और अलौकिक होती है ।
य़ह जानते हुए कि सभी भाव युगल (pair) में होते हैं व एक भाव आने पर दूसरा भाव
अवश्य आयेगा, वह सिद्धि और असिद्धि में, सुख-दुःख, शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता), हर्ष, निन्दा- स्तुति (निन्दा स्तुति मुख्यतः नाम की होती है।), मान को न चाहते हुये, मान-अपमान को समान समझने वाला ( मान -अपमान परकृत क्रिया है, जो शरीर के प्रति होती है) तथा सम बुद्धि वाला होता है । वह प्रिय-अप्रिय, मित्र-शत्रु (जो बिना किसी कारण के सब का हित चाहने के और हित करने के स्वभाव वाला होता है, उसको 'सुहृद्' कहते हैं
और जो उपकार के बदले उपकार करने वाला होता है, उसको मित्र कहते हैं । जिसका बिना कारण दूसरों का अहित करने का स्वभाव होता है उसको 'अरि' कहते हैं। जो अपने स्वार्थ से अथवा अन्य किसी कारण विशेष को लेकर दूसरों का अहित, अपकार करता है, वह 'द्वेष्य' होता है।) के साथ सम रहता है । [अ 2-श्लो 57, अ 4-श्लो 22, अ 5-श्लो 7, अ 6-श्लो7-8, अ 12-श्लो
13-15-17-18, अ 14-श्लो 24-25,
अ 16-श्लो 3]
निर्विकार- संसार की कोई, स्वतन्त्र सत्ता नहीं है - इस वास्तविकता का अनुभव कर लेने के बाद (जड़ता का कोई सम्बन्ध न रहने पर) सिद्ध का केवल परम-तत्व के साथ अपने नित्य सिद्ध सम्बन्ध का अनुभव अटल रूप से रहता है । उसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि
विकारों से सर्वथा मुक्त होता है । जैसे रात्रि के समय अन्धकार में दीपक जलाने की कामना होती है; दीपक जलाने से हर्ष होता है, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले - ऐसी चिन्ता होती है । परन्तु मध्याह्न का सूर्य तपता हो तो दीपक जलाने की कामना नहीं होती, दीपक जलाने से हर्ष नहीं होता, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध नहीं
होता और (अँधेरा न होने से) प्रकाश के अभाव की चिन्ता भी नहीं होती । इसी प्रकार परम-तत्व का साक्षात्कार होने पर (सिद्ध के) ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं । सिद्ध पुरुष के सामने तरह-तरह
की परिस्थितियाँ आती हैं, पर वह कूट (कूट, अहरन एक लौह-पिण्ड होता है, जिस पर लोहा, सोना, चाँदी आदि अनेक
रूपों में गढ़े जाते हैं, पर वह एक रूप ही रहता है) की तरह ज्यों-का-त्यों
निर्विकार रहता है । जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे
ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ सिद्ध को विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं । सिद्ध के शरीर, इन्द्रियाँ, मन,
सिद्धान्त आदि के अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति,
घटना आदि का संयोग या वियोग होने पर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलता का 'ज्ञान' तो होता है,
पर उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोकादि कोई 'विकार' उत्पन्न नहीं
होता । [अ 2-श्लो 70, अ
6-श्लो 8 ]
वश/शुद्ध- इन्द्रियाँ-
जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अंग दिखते हैं--चार
पैर, एक पूँछ और एक मस्तक । परन्तु जब
वह अपने अंगों को छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है । ऐसे ही सिद्ध पाँच
इन्द्रियों और एक मन--इन छहों को अपने-अपने
विषय से हटा लेता है । अतः उसका इन्द्रियों से किसी विषय का ग्रहण राग पूर्वक नही होता और किसी
विषय का त्याग द्वेष पूर्वक नही होता । सिद्ध इन्द्रियों से विषयों का सेवन
अर्थात् सब प्रकार का व्यवहार तो करता है, पर विषयों का भोग नहीं करता । जैसे साँप के दाँत
निकाल दिये जायें तो फिर उसमें
जहर नहीं रहता। ऐसे ही इन्द्रियों को राग द्वेष से रहित कर
देना ही मानो उनके जहरीले दाँत निकाल देना है । प्रायः निराहारी
(इन्द्रियों को विषयों से हटानेवाले) मनुष्य के विषय तो
निवृत्त हो जाते हैं,
पर रस (इच्छा) निवृत्त नहीं
होता । परन्तु सिद्ध
का
तो रस भी परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से निवृत्त हो जाता है । उसकी इन्द्रियाँ
अपने वश में होती हैं, वह जितेन्द्रिय होता हैं । वह
इन्द्रियों का दमन कर (इन्द्रियों को पूरी तरह
वश में करने का नाम दम है ) भोगों मे रुचि न
रखने वाला होता है ।
शरीर -अन्तःकरण -नाशवान
वस्तुओं की प्राप्ति का उद्देश्य होने से अन्तःकरण में मल (मन के भीतर काम, क्रोध,
लोभ, मोह मत्सर और जब तक जियें, सुख से जियें, ऋण करके भी घी पियें यह प्रवृत्ति), विक्षेप (मन की चंचलता, अस्थिरता, अनेकाग्रता, जप-ध्यान करने बैठते हैं तो बस, जैसे फिल्म की पट्टी चलती वैसे ही विचार-पर-विचार आना) और
आवरण आत्मा के ऊपर अविद्या का आवरण, ‘मैं क्या हूँ’ इसका पता
नहीं है और देह को ‘मैं’ मानकर ‘मैं फलाना हूँ मानना ) ये तीन तरह के दोष आते
हैं । शास्त्रों में मल दोष को दूर करने के लिये
निष्काम भाव से कर्म (सेवा), विक्षेप दोष को दूर करने के लिये उपासना और आवरण दोष को दूर करने के लिये ज्ञान प्राप्ति करना बताया है । पर श्रेष्ठ
उपाय है –अन्तःकरण को अपना न
मानना । संसार के साथ राग द्वेष करने से ही
अन्तःकरण में अशान्ति आती है, और उनके न
होने से अन्तःकरण स्वाभाविक ही शांत, प्रसन्न रहता है । नाशवान
वस्तुओं की प्राप्ति का उद्देश्य न होने से सिद्ध का अन्तःकरण शुद्ध होता
है । सिद्ध का अन्तःकरण वशीभूत,
पवित्र, निर्मल,
ज्ञान-विज्ञान से तृप्त, व कोमल होता है । शरीर में
अहंता-ममता (मैं-मेरा पन) न रहने से सिद्ध का शरीर भी बाहर-भीतर से वश में, शुद्ध ,पवित्र/ 'शौच' ( बाह्य शुद्धि एवं
अन्तः शुद्धि ) होता है । [ -अ 2-श्लो
58-59-64, अ 4-श्लो -21, अ 5-श्लो -7-27, अ 6-श्लो 4-8-10, अ 12-श्लो 14-16, अ 16-श्लो 1-2-3]
कामना,
स्पृहा रहित व सदा सन्तुष्ट- मनुष्य को कामना (अप्राप्त वस्तु की इच्छा), स्पृहा, (जीवन-निर्वाह के लिये प्राप्त और अप्राप्त वस्तु
आदि की जरूरत ) ममता और अहंता से रहित होने पर ही शान्ति, सन्तोष प्राप्त होता है । इन चारों में कामना स्थूल है । कामना से सूक्ष्म स्पृहा, स्पृहा से सूक्ष्म ममता (मेरे पन का भाव) और ममता से सूक्ष्म अहंता (अपने आपको औरों से बहुत अधिक योग्य, समर्थ या बढ़कर समझने का भाव ।) है ।
इसलिये संसार से
सम्बन्ध छोड़ने में
सबसे पहले कामना का
त्याग कर दिया जाय, तो अन्य का त्याग करना सुगम हो जाता है । मन एक करण है और उसमें कामना आती जाती है- परन्तु शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के कारण साधारण मनुष्य मन में आने वाली कामनाओं को अपने में
मान लेता है पर सिद्ध नही । अनुकूलताएँ आने पर भी सिद्ध के
मन में 'यह परिस्थिति ऐसी ही
बनी रहे; -ऐसी स्पृहा भी नहीं होती । सिद्ध प्रारब्धानुसार शरीर निर्वाह के लिये जो कुछ मिल जाये, (सांसारिक पदार्थ, परिस्थिति) उसी में संतुष्ट दिखता
है पर वास्तव में यह स्थायी संतोष, उसे नित्य परमात्मा की अनुभूति से ही होता है, क्योंकि न तो उसका परम-तत्व से कभी वियोग होता
है और न उसको नाशवान संसार की
कोई आवश्यकता ही रहती है ।
इस संतुष्टि के
कारण वह संसार के
किसी भी प्राणी- पदार्थ के प्रति किंचित मात्र भी महत्त्व बुद्धि नहीं रखता । वह सदा तृप्त रहता है । [-अ 2-श्लो 55-56-57-71, अ 3-श्लो 28-30 अ 4-श्लो -19-20-21-22-23,
अ. 5-श्लो 11 अ. 6-श्लो 4-10- अ. 12-श्लो14- 16-17-18-19, अ. 16 श्लो 2]
ममता-मोह-आसक्ति -मनुष्य जिन वस्तुओं को अपनी
मानता है, वे वास्तव में अपनी
नहीं हैं प्रत्युत संसार से मिली हुई हैं, इस तरह जानकर सिद्ध, पदार्थ- शरीर- इन्द्रियाँ
आदि में ममता से रहित हो जाता है । यद्यपि सिद्ध का प्राणि मात्र के प्रति हमेशा ही मैत्री
और करुणा का भाव रहता है, तथापि उसकी
किसी के प्रति किंचित मात्र भी ममता नहीं होती । सत् और असत् को ठीक तरह से न जानना
ही मोह है । सिद्ध अलोलुप्त्व ( इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध
होने से अथवा दूसरों को भोग भोगते
हुए देखने से मन का, भोग भोगने के लिये, ललचा उठने का नाम
लोलुपता है और उसके सर्वथा अभाव अलोलुप्त्व है) होता है
। सत्त्व गुण का कार्य- प्रकाश (इन्द्रियों
और अन्तःकरण की स्वच्छता, निर्मलता) रजोगुण का कार्य -प्रवृत्ति और
तमोगुण का कार्य- मोह - ये
सभी अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी सिद्ध मनुष्य इनसे
द्वेष नहीं करता, और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा
नहीं करता । [-अ 2-श्लो
71, अ 3-श्लो 30, अ 5-श्लो 11 अ 12-श्लो 13-19, अ 14-श्लो 22 अ 16-श्लो 2]
गुण- गुणों का कार्य
होने से इन्द्रियों और उनके विषयों को 'गुण' ही कहा जाता है । प्रकृति से उत्पन्न
गुणों-(सत्त्व, रज और तम-) का कार्य होने से बुद्धि, अहंकार, मन, पंचमहाभूत, दस इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के शब्दादि
पाँच विषय-- ये भी प्रकृति के गुण कहे
जाते हैं । सिद्ध कभी भी उनके साथ अपनी एकता
स्वीकार नहीं करता, इसलिये उनके द्वारा
होने वाली क्रियाओं को वह अपनी
क्रियाएँ नही मानता । वास्तव मे गुणों के सिवाय
अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणों से ही हो रही
हैं, सम्पूर्ण परिवर्तन गुणों में ही हो
रहा है । क्रिया का तात्पर्य
है—परिवर्तन । क्रिया मात्र को चाहे
प्रकृति से होने वाली कहें, चाहे प्रकृति के कार्य
गुणों के द्वारा होने वाली कहें, चाहे इन्द्रियों के द्वारा
होने वाली कहें, बात वास्तव में एक ही है । जिस समष्टि
शक्ति से शरीर, वृक्ष आदि पैदा
होते और बढ़ते-घटते हैं, उसी समष्टि शक्ति से मनुष्य की देखना, सुनना, खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ होती हैं । सिद्ध स्वंय
को इन सबसे अलग मानता है , वह 'सम्पूर्ण गुण ही
गुणों में बरत रहे हैं (गुणो को
कर्ता मानना), या सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में बरत रही
हैं ऐसा मानकर 'मैं (स्वयं)
कुछ भी नहीं करता हूँ' मानते हुए, वह वास्तव में कुछ भी
नहीं करता। 'तथा गुणों के द्वारा विचलित भी नहीं किया
जा सकता । [अ 2-श्लो 71,अ 3-श्लो 28, अ 4-श्लो 20,अ 5-श्लो
8-9, अ 14-श्लो 19-20-23]
यज्ञ-कर्तव्य-कर्म-तप
व स्थिर बुद्धि- अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदि के अनुसार
जिस किसी समय जो कर्तव्य (संस्कृत- कृ-करना
व्य-चाहिये) प्राप्त हो जाए, उसको स्वार्थ और अभिमान का त्याग
करके दूसरों के हित की,भावना से करना यज्ञ है । सिद्ध यज्ञ (कर्तव्य) के लिये कर्म
तथा तप (साधन करते
हुए अथवा जीवन निर्वाह करते हुए देश, काल, परिस्थिति आदि को लेकर जो
कष्ट, विघ्न आदि आते हैं, उनको
प्रसन्नतापूर्वक सहना । अनुकूलताओं की चाह न
करना अर्थात् उनके अधीन न होना भी तप है ।) करने वाला होता है । सिद्ध कर्मफल का
आश्रय न लेकर यज्ञ-कर्तव्य कर्म करता है, कर्तव्य-पालन
के लिये कष्ट सहता है तथा
उसे अकर्तव्य करने में लज्जा ( शास्त्र और
लोक मर्यादा के विरुद्ध
काम करने में जो एक संकोच ) होती है । वह दृढ़ निश्चयी, स्थिर (जिसका विचार
दृढ़ है, जो साधन से कभी विचलित नहीं होता) व विवेकवती
बुद्धिवाला-( सिद्ध पुरुष की दृष्टि में संसार की स्वतंत्र सत्ता का सर्वथा
अभाव रहकर एक परमात्मा की ही अटल
सत्ता रहती है । अतः उसकी बुद्धि में विपर्यय दोष- प्रति क्षण बदलने वाले संसार का स्थायी दिखना, और संशय रूप दोष नहीं रहता । विपर्यय और संशय युक्त बुद्धि
कभी स्थिर नहीं होती) । उसकी बुद्धि में उसका
भगवान मे ही दृढ़ निश्चय होता है । स्थिर बुद्धि होने में कामनाएँ
ही बाधक होती हैं और उनके त्याग से ही स्थिर बुद्धि होना
सम्भव है । सिद्ध की बुद्धि, स्वरूप के ज्ञान में, तथा ज्ञान के
लिये योग (समता) में दृढ़
स्थित होती है। [- अ
3-श्लो 30 अ 4-श्लो 23, अ 6-श्लो 1, अ 12-श्लो
14-19 अ 16-श्लो 1-2]
आरम्भ- संकल्प -भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्म
करने को 'आरम्भ' कहते हैं । सिद्ध पुरुष
सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी
होता है । वह अपरिग्रही (अपने लिये
सुखबुद्धि से कुछ भी संग्रह न करने वाला) होता है । सिद्ध के
कर्म का हेतु (Motive) उद्येश्य होता है, कामना नही । मन में जो
स्फुरणाएँ होती हैं अर्थात् तरह-तरह की बातें याद
आती हैं, उनमें से जिस
स्फुरणा-(बात-) के साथ मन चिपक जाता है, वह 'संकल्प' हो जाता है । संकल्प-विकल्प भूत और भविष्य
काल के होते हैं; वर्तमान के नहीं । अतः जो अभी
नहीं है, उसके चिन्तन में समय
बरबाद करना मूर्खता है, ऐसा
जानकर सिद्ध सम्पूर्ण संकल्पों का त्यागी (संसार से विमुख हो
जाना ही असली त्याग है) भी होता है । [-अ 4-श्लो 19-21, -अ 6-श्लो 4-10, -अ 12-श्लो 16, -अ 14-श्लो 25]
मनन, स्वाध्याय
तथा तेज- निरन्तर अनासक्त-कामना रहित रहना ही सिद्ध की
सावधानी है व उसके लिये वह मनन (आत्म चिन्तन) करता
है । अपने ध्येय की सिद्धि के लिये वह जप और गीता, भागवत, आदि के पठन-पाठन का स्वाध्याय तो करता है पर उसके लिये अपनी
वृत्तियों का, अपनी स्थिति का ठीक तरह से अध्ययन
करना ही स्वाध्याय है । इस कारण से
उसमे तेज ( वह शक्ति
जिससे सिद्ध का संग मिलने पर उनके
प्रभाव से प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण-दुराचारों का त्याग
करके सत-गुण-सदाचारों में लग जाते
हैं ।) होता है । [ अ 12-श्लो 19, अ 16-श्लो 1-3]
इसके अतिरिक्त वह अहंकार ( यह शरीर मैं ही हूँ इस तरह शरीर से तादात्म्य
मानना अहंकार है । अहंकार रहित होने से जब
व्यक्तित्व मिट जाता है, तब उसकी स्थिति स्वतः ही ब्रह्म में होती है-अ 2-श्लो 71, अ 12-श्लो 13), अमर्ष (ईर्ष्या) (किसी के उत्कर्ष-उन्नति-को
सहन न करना- अ 4-श्लो 22 ,अ 12-श्लो
15), उद्वेग (मन का एकरूप न
रहकर हलचल युक्त हो जाना । मनुष्य को
दूसरों से उद्वेग तभी होता है, जब उसकी कामना,
धारणा आदि का विरोध
होता है । कामना न होने से दुखों, कर्तव्य मे बाधा आदि होने पर भी सिद्ध के मन में
उद्वेग नहीं होता । किसी प्राणी से उसको या
उससे किसी प्राणी को उद्वेग
नहीं होता । ) [-अ 2-श्लो 56, अ 12-श्लो 15] रहित होता
है । सिद्ध व्यथा
(अ 12-श्लो
16) व संताप-रहित (अ 3-श्लो 30) तथा
द्वन्द्वों से अतीत (अ 4-श्लो 22) होता है । वह अचपल -(कोई भी कार्य
करने में चपलता का अर्थात्
उतावलापन का न होना है - अ16-श्लो
2), अपैशुनी (किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट
करके दूसरों में उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका
सर्वथा अभाव ही अपैशुन है -अ16-श्लो
1) तथा चुगली न करने (अ 16-श्लो 2) वाला होता है ।
वह उदासीन-(दो व्यक्ति
परस्पर विवाद करते हों, तो उन दोनों में से किसी एक का पक्ष लेने वाला पक्षपाती कहलाता है और दोनों का न्याय
करने वाला मध्यस्थ कहलाता
है । परन्तु जो उन दोनों को देखता तो
है, पर न तो किसी का पक्ष लेता
है और न किसी से कुछ कहता ही है, अ12-श्लो 16 अ 14-श्लो
23), क्षमाशील,
क्षमी - (अपना किसी
तरह का भी अपराध करने वाले को किसी भी
प्रकार का दण्ड देने की, क्षमता
होने पर भी, इच्छा न रखना अ 12-श्लो 13 अ 16-श्लो 3) होता है । वह आर्जव (शरीर-मन-वाणी की सरलता, अ 16-श्लो 1) व मार्दव (बिना कारण
दुःख देनेवालों और वैर रखने वालों के प्रति भी
अन्तःकरण में कठोरता का भाव न
होना तथा स्वाभाविक कोमलता का रहना अ 16-श्लो 2) स्वभाव का तथा अहिंसक (शरीर, मन, वाणी, भाव आदि के द्वारा
किसी का भी किसी प्रकार से अनिष्ट न
करने को तथा अनिष्ट न चाहना अ 16-श्लो2), सत्यभाषण (अपने स्वार्थ
और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से जैसा सुना, देखा, पढ़ा,समझा और निश्चय
किया है, उससे न अधिक और न कम – वैसा का वैसा प्रिय
शब्दों में कह देना अ
16-श्लो 2) करने वाला तथा 'धृति'-धैर्य
( किसी भी
अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में विचलित न
होकर अपनी स्थिति में कायम रहने की शक्ति का नाम अ 16-श्लो
3) वाला होता है । वह दक्ष ( जिसने करने योग्य काम कर
लिया है, वही दक्ष है । मानव-जीवन का उद्देश्य
भगवत्प्राप्ति ही है । जिसने अपने इस उद्देश्य को पूरा कर
लिया वही वास्तव में दक्ष अर्थात् चतुर है । सांसारिक
दक्षता, चतुराई वास्तव में दक्षता
नहीं है अ 12-श्लो 16), सात्त्विक
दानी- (लोक दृष्टि में जिन
वस्तुओं को अपना माना जाता है, उन वस्तुओं को सत्पात्र का तथा देश, काल, परिस्थिति आदि का विचार
रखते हुए आवश्यकतानुसार दूसरों को दे देना अ 16-श्लो 1), दयालु,-( दूसरों को दुःखी
देखकर उनका दुःख दूर करने की भावना अ 12-श्लो 13, अ 16-श्लो 2), अद्रोही (बिना कारण
अनिष्ट करने वाले के प्रति भी
अन्तःकरण में बदला लेने की भावना का न होना -अ 16-श्लो 2) होता है । वह सबका मित्र (प्रेमी) ( अ12-श्ला13) व किसी से वैर भाव
(अ16-श्लो 3) न रखने वाला होता है ।
सिद्ध पुरुष भगवान को मन, बुद्धि अर्पण करता है । वह आसक्ति का
त्याग करके कर्म (स्वंय को कर्ता न मानते हुए ) करता हुआ सम्पूर्ण
कर्मों को भगवान में अर्पण करता है । इस प्रकार वह संसार मे
रहकर भी जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त
नहीं होता । [अ3-श्लो 30,अ 5-श्लो 10-11,अ12-श्लो 14]