Thursday, September 30, 2021

किशोर गीता 2: द्वन्द

 

सत्तर हजार वर्ष पहले मानव ने बोध-प्रक्रिया (Cognitive Abilities) से संबंधित क्षमताओं -- सीखना, याद रखना, अनुभव करना तथा सूचनाओं, विचारों और भावनाओं के आदान-प्रदान की क्रियाओं  को विकसित कर लिया था । आगे जाकर  मनुष्य ने उन बातों के बारे मे भी उपरोक्त क्षमताओं को विकसित कर लिया जिनको उसने कभी देखा, स्पर्श तथा सुंघा नही था/है । भाषा/विचार यह शेर है (तथ्य) से शेर जंगल का राजा है (कल्पना) मे विकसित हुए । सामुहिक रुप से सा करने की प्रक्रिया से आगे  धर्म, राष्ट्र इत्यादि संकल्पनाएं विकसित हुई, और अनजान व्यक्ति भी आपस मे सहयोग करने लगे इसी प्रकार मनुष्य जन्म के समय बहुत ही कमजोर रहने से बहुत अधिक समय तक उसे लालन-पालन की आवश्यकता रही है । इस लालन-पालन के दौरान ही वह मनुष्य से हिन्दु, सिख ईसाई इत्यादि हो जाता है तथा बहुत सी सी बाते आत्मसात कर लेता है जिसका उसे प्रत्यक्ष अनुभव नही होता

इन सबका मानव जाति को बहुत लाभ हुआ मगर हम इसके दुष्परिणाम भी भोग रहे हैं । पहली बात तो यह है कि मनुष्य वर्तमानकाल मे कम और भूतकाल (याद रहने की क्षमता इत्यादि से) तथा भविष्यकाल (कल्पना इत्यादि से) मे ज्यादा रमने लगा । मनुष्य भूतकाल मे रमने से वह हमेशा, अपराध भाव, खेद, ऱोष, व्यथा, शिकायत इत्यादि से ग्रस्त रहता है । इसके विपरित भविष्यकाल मे रमने से वह हमेशा  चिंता, बैचेनी, भय, सन्देह, अनिश्चितता इत्यादि भावनाओं से घिरा रहता  है । दोनो ही अवस्थाओं मे वह अप्रसन्न तथा अक्षम रहता है (वर्तमान मे कोई विचार नही होता व कार्य क्षमता सर्वाधिक होती है) । फिर लालन-पालन का असर यह है कि हम यह भूल गये कि हम सब एक ही तरह कि ईटों से बनी दीवारें हैं और समय-समय पर  उन पर अलग- अलग रंग चढ़ने से हममे अन्य से अलग होने का भाव दृढ़ हो  गया हैं । उपरोक्त सभी का एक दुष्परिणाम यह भी है कि हमारी अनुभुति (Perception) और वास्तविकता (Reality) मे अन्तर होता है

इन सब कारणों से हम हमेशा स्वंय से तथा अन्य के साथ द्वन्द की स्थिति मे रहते है भूतकाल के अनुभवों के कारण या भविष्य के स्वप्नो के कारण वर्तमान से (आन्तरिक) द्वन्द रहता है । स्वंय का कोई निश्चित निर्णय नही हो पाता । संस्कृति, धर्म, राष्ट्र (लालन-पालन का असर) इत्यादि अवधाराणाओं के कारण हम स्वयं को दूसरे से अलग मानते हैं । एक ही तथ्यात्मक परिस्थिति के बारे मे दो अलग- अलग व्यक्तियों, समुहो की अनुभूति (Perception) अलग- अलग होती है (यह कालानुसार भी बदलती  है) । उपरोक्त दोनो बातों के कारण हम हमेशा अन्य के साथ द्वन्द (Conflict) मे रहते है

इन सब के बारे मे हमें गीता में विस्तार से अध्ययन करने को मिलता है । प्राप्त युद्ध के बारे में अर्जुन की अनुभूति (Perception) तथा अनिश्चितता--  मैं लक्षणों  (शकुनों) को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनों को मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ । ।।1.31।। इन को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा । ।।1.36।। अपने कुटुम्बियों ( भूतकाल मे रमने से आज के शत्रु को वे कुटुंबीय मान रहे हैं)   को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ।।1.37।।  हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिये युद्ध करना और न करना - इन दोनों में से कौन-सा  श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे (अनिश्चितता, सन्देह) । ।।2.6।। इसके विपरीत श्रीकृष्ण की अनुभूति (Perception) तथा निश्चितता - अपने स्वधर्म (क्षात्र धर्म) को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्म से विचलित नहीं होना चाहिये; धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है  ।।2.31।। अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगातो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा । ।।2.33।।

गीता के अनुसार, जो (ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीर की उपमा से सब जगह अपने को समान देखता है और सुख अथवा दुःख को भी समान देखता है, वह परम योगी (श्रेष्ठ) माना गया है । ।।6.32।। जिस ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभागरहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक (श्रेष्ठ) समझो ।।18.20।। विज्ञान ने भी अलग -अलग पदार्थो मे एक रुप से स्थित लेक्ट्रान, प्रोटान, न्युट्रान की खोज की है । इसी प्रकार विभिन्न घटनाओं- वस्तुओं का पृथ्वी पर गिरना, समुद्र मे ज्वार-भाटे का आना या पृथ्वी का सूर्य का चक्कर लगाने इत्यादि के लिये एक मात्र कारण गुरुत्वाकर्षण बल है यह भी विज्ञान ने खोजा है

इसी प्रकार गीता कहती है-इस संसार (वृक्ष) का जैसा रूप देखने में आता है, वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं; ।।15.3।। विज्ञान भी यह मानता है हमे जो अनुभूती हो वही वास्तवकिता हो जरुरी नही । कुछ शताब्दी पहले हम मानते थे, सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है । यहाँ पृथ्वी पर हमे आकाश नीला दिखता है , पृथ्वी  के सौरमण्डल के बाहर यह काला दिखता है

गीता से शिक्षा लेते हुये हम यह मान लें कि हमारी अनुभूति (Perception), हमारे संस्कारो के आधार पर होती है  तथा  वह अन्तिम और वास्तविक न होकर उसमे बदलाव होता रहता है तो हम जीवन मे होने वाले द्वन्द से बच सकते हैं । विज्ञान की भाषा मे कहें तो द्वन्द से बचने के लिये, हमे Classical Mechanics (सभी अलग-अलग और स्वतन्त्र ) और Statistical Mechanics ( समुह  मे एक / से प्रभावित पर अन्य समुह से अलग ) की बजाय Quantum Mechanics (सभी एक हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं ) की जीवन शैली अपनानी होगी ।

 

Monday, September 6, 2021

किशोर गीता 1- जीवन एक प्रयोगशाला

 

 गीता महाभारत का अंग है, पर इसकी रचना महाभारत के लिखे जाने के बाद हुई लगती है । जिसने भी गीता की रचना की वह संसार का एक सबसे बड़ा मनौनेज्ञानिक था । गीता में उस कवि ने मनुष्य मात्र के प्रतीक अर्जुन और परमात्मा के अवतार श्रीकृष्ण के संवाद के माध्यम से मनुष्य-जीवन के संबंध में गहनतम दृष्टि दी है  गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है, जो निकट संबंधियों के बीच लड़ा गया था । युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले उस युद्ध के नायक अर्जुन के मन में न केवल प्रस्तुत युद्ध के विषय में अपितु मानव जीवन के अर्थ के विषय में भी कुछ गंभीर प्रश्न उठते हैं जिन्हें वह अपने मित्र, गुरु और सारथी श्रीकृष्ण के सम्मुख रखता है (अध्याय-1)  वस्तुतः अर्जुन के समान हम सब भी अपने आपको एक ऐसे संसार (परिस्थिति) में पाते हैं जिसे हमने नहीं बनाया है और अवश्य ही हमने अपने आपको भी नहीं बनाया है । हम सोचते हैं कि यह संसार हमारे लिए बनाया गया है और हमारे भोगने के लिए है । हम इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं पर मनुष्य के पास कितना ही धन और ताकत क्यों न हो, वह उनके द्वारा स्थायी शांति और सुख कभी नहीं पा सकता सी तरह हर मनुष्य के जीवन में कोई-न-कोई छोटा-बड़ा द्वंद्व और उस द्वंद्व से उत्पन्न अन्य भाव भी आते रहते हैनसे छुटकारा पाने का उपाय क्या है ?

 

भगवद् गीता भारतीय चिंतन के सार-तत्व को समझ कर इन  सबसे छुटकारा पाने  का अच्छा स्रोत है 2-2 पंक्तियों के कुल 700 श्लोकों की इस छोटी-सी पुस्तिका ने पिछले 2,500 वर्षों में भारतीय मानस को सबसे अधिक प्रभावित किया है  भारतीय परंपरा में धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान को सदा ही समन्वित रूप में देखा और विचारा गया है, क्योंकि इन सभी विषयों का वास्तविक केंद्र बिंदु मनुष्य का मन और उसके द्वारा रचा गया संसार है अतः गीता में जहां धर्मक्षेत्र के पारंपरिक विषयों को लिया गया है, वहीं इस विश्व की रचना और उसमें मनुष्य की स्थिति से संबंधित गंभीर दार्शनिक प्रश्न भी उठाए गए हैं । और क्योंकि ये प्रश्न सभी मनुष्यों के लिए समान हैं इसलिए गीता का संदेश किसी विशेष समुदाय के लिए न होकर संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए है

 

दैनंदिन समस्याओं  और मनुष्य के आचरण के बारे में गीता धार्मिक पुस्तकों और उपदेशकों  के समान कोई उपदेश- सत्य बोले, चोरी न करे इत्यादि- नहीं देती । वे उपदेशच्छे हैं, पर प्रश्न यह है कि मनुष्य उन पर आचरण क्यों नहीं कर पाता ? वास्तव में मनुष्य के स्वभाव व आचरण को बदलने की आशा हम तभी कर सकते हैं, जब हम गहरे से गहरे स्तर पर उन शक्तियों को समझ लें, जो उसके जीवन का संचालन कर रही हैं जैसे विज्ञान के क्षेत्र में क चुम्बक के कार्य को समझने के लिए हमें इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन आदि के बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर जाना होता है (जो दिख रहा है, विज्ञान उसकी व्याख्या उसके आधार पर करता है, जो दृष्टि के परे है ) वैसे ही हमारे आंतरिक जीवन (आचरण) को समझने के लिए हमें उन सूक्ष्म स्तरों पर जाना होगा, जो हमारे अंदर छिपे हुए हैं अतः गीता जिस विषय पर सबसे अधिक प्रकाश डालती है, वह है मनुष्य के मन का आंतरिक संसार और उसके विविध आयाम । हम क्या हैं? हमारे आंतरिक जीवन की संरचना किस प्रकार की है और कौन-सी शक्तियां हमारे जीवन को नियंत्रित करती हैं?  हमारा मन कैसे काम करता है? हमारा कर्तव्य क्या है? हम अपना वैयक्तिक और सामाजिक जीवन कैसे बिताएं? हमारे दु:ख कैसे दूर हो सकते हैं? हमें स्थायी शांति और सुख कैसे मिल सकता है? हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? और हम उस लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकते हैं? आदि-आदि।

 

जैसा कि विज्ञान में होता है, भारतीय  आध्यात्मिक ज्ञान मे भी प्रत्येक बात दोहराई और प्रयोग द्वारा उसकी पुष्टी की जा सकती है । अंतर केवल यह है कि यहां हमें प्रयोग स्वयं अपने ऊपर करने होते हैं  अतः हम जो कुछ गीता में पढ़ते हैं उसे अपने जीवन में घटते हुए देखने का प्रयास करना चाहिए । आंतरिक अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा प्रत्यक्ष अनुभव ही वह एकमात्र साधन है, जो हमारी खोज के लिए निश्चित आधार दे सकता है । किसी भी बात को इसलिए ही स्वीकार नहीं करना चाहिए कि वह गीता में लिखी है । यह बात गीता की ही भावना के प्रतिकूल होगी वास्तव में हम गीता को समझ ही तब सकते हैं, जब हम साथ-साथ अपने जीवन को भी सबसे गहरे स्तर पर समझने का प्रयत्न करें   

 

यह संभव है कि प्रारंभ में गीता की कई बातें  हमें समझ में न आएं (ऐसा विज्ञान में भी होता है) लेकिन सच्चाई, धैर्य और परिश्रम से प्रयास करने पर हम धीमे-धीमे सभी चीजों को वैसे ही स्पष्टता से समझने लगेंगे, जैसे कि विज्ञान में होता है । अंतर केवल यह है कि गीता की बातों का संबंध आंतरिक जीवन से होने के कारण उन्हें शब्दों में पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता गीता के दर्शन को समझने के लिए हमें एक विशेष अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है । आइए, जीवन को एक प्रयोगशाला मानकर  निर्भिक, निश्चिंत, समाधानी  जीवन जीने के उद्येश्य से गीता मे कहे गय़े सिद्धान्तो को अपनाने का प्रयास करें