जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मक) बुद्धि नहीं होती और व्यवसायात्मिका बुद्धि न
होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होने से उसको शांति नहीं मिलती। फिर शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
।।2.66।। मन और इन्द्रियोँ का संयम करना मुख्य है यह किये बिना कामना (That cause
distraction) नष्ट नहीं होती। कामना के नष्ट हुए बिना बुद्धि
स्थिर न होने
से ध्येय स्थिर नही होता। वह कभी मान चाहता है, कभी सुख-आराम चाहता है, कभी धन चाहता है, कभी भोग चाहता है । ध्येय
स्थिर न होने
से, उसमें कामना, आसक्ति आदि
का त्याग कर,
केवल अपने कर्तव्य का पालन करना है ( केवल एक ध्येय पूर्ती के लिये काम करना) ऐसी भावना नहीं होती ।
अपने कर्तव्य के पालन में दृढ़ता न रहने से ही अशांति पैदा होती है। बाहर
से उसको कितने ही अनुकूल भोग आदि मिल जायँ तो भी उसके हृदय की हलचल नहीं मिट सकती अर्थात् वह सुखी नहीं हो सकता।
अपने-अपने
विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से
एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन, जल में नौका को वायु की तरह, इसकी बुद्धि को हर लेता है। ।।2.67।। जब
मनुष्य कार्यक्षेत्र में व्यवहार करता है,
तब उसकी इन्द्रियों
के सामने अपने-अपने विषय (भोग)
आ ही जाते हैं। उनमें से जिस
इन्द्रिय का अपने विषय मे राग हो जाता है,
वह इन्द्रिय मन को अपने साथ कर लेती है। मन उस विषय का सुखभोग
करने लग जाता है । जैसे, भोजन
करते समय किसी पदार्थ का स्वाद आता है तो रसनेन्द्रिय उसमें आसक्त हो जाती है और मन को भी खीँच लेती है । जब
मन में विषय
(भोग) का महत्त्व बैठ जाता है,
तब वह मन ही मनुष्य की बुद्धि को हर लेता है अर्थात् उसमें
कर्तव्य-परायणता न रहकर भोगबुद्धि पैदा हो जाती है। जैसे, यदि कोई मनुष्य नौका के द्वारा नदी या समुद्र से अपने गन्तव्य स्थान को जा रहा है उस समय वायु, नौका को अपनी दिशा मे ले जाकर उस नौका को गन्तव्य स्थान से विपरीत ले जाती है। पर यदि नाविक चतुर है तो वह वायु को अपने अनुकूल बना लेता है, जिससे वायु नौका को अपने मार्ग से अलग नहीं ले
जा सकती, प्रत्युत उसको गन्तव्य स्थान तक पहुँचाने में
सहायता करती है। वैसे ही मन
बुद्धिरूप नौका को हरकर, मनुष्य की
विषयों में सुख-बुद्धि और उनके उपयोगी पदार्थों में महत्त्वबुद्धि पैदा कर उसे ध्येय
से विपरीत ले जाता है। पर जिसने
मन और इन्द्रियाँ वश में
कर
ली हैं, उसकी बुद्धि को मन विचलित नहीं करता, प्रत्युत ध्येय तक पहुँचने में बुद्धि
की सहायता ही करता है।
पर मन संयमित न हो तो, विषयों (भोगों) का चिन्तन करने वाले
मनुष्य की
उन विषयों में
आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा
होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर
सम्मोह (मूढ़ भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है।
स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर
मनुष्य का पतन हो जाता है। ।।2.62 -- 2.63।। आसक्ति पैदा होने
पर मनुष्य उन विषयों का सेवन, मानसिक / शारीरिक रुप से
करता है। विषयों के सेवन
से
सुख,
सुख से
प्रियता और, अन्ततः उनमें राग पैदा होकर उनको प्राप्त करने की कामना
पैदा हो जाती है । कामना
अनुसार पदार्थों
के मिलते रहने से लोभ
होता है, या उसमें बाधा देने वाले पर
क्रोध आ जाता है। क्रोध के
मूल में राग अवश्य होता है। जैसे, अच्छाई
का अभिमान है तो आदर
सम्मान आदि की कामना रहती है इसमें बाधा पड़ने पर क्रोध पैदा हो जाता है। क्रोध से सम्मोह (मूढ़ता,
folly, stupidity)) होता है । वास्तव में काम, क्रोध लोभ और ममता इन चारों से ही सम्मोह (मूढ़ता) होता है। जैसे(1)
काम से सम्मोह होकर
विवेक शक्ति ढक जाने से मनुष्य न करने लायक कार्य भी कर
बैठता है।(2) क्रोध से सम्मोह होकर मनुष्य अपने मित्रों
तथा पूज्यजनों को भी उलटी सीधी बातें कह बैठता है ।(3) लोभ से सम्मोह होकर मनुष्य में सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदि का विचार नहीं रहता और वह कपट
करके लोगों को ठग लेता है।(4) ममता से जो सम्मोह होता है
उसमें समभाव नहीं रहता प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है। क्रोध से हुआ
सम्मोह सबसे
भयंकर होता है
क्योंकि अन्य (काम, लोभ ममता) में तो अपने सुखभोग और स्वार्थ
की वृत्ति रहती है पर क्रोध में दूसरों का अनिष्ट करने की वृत्ति रहती है। यहाँ
विषयों का ध्यान करने मात्र से राग- काम-क्रोध-सम्मोह-स्मृतिनाश-बुद्धिनाश-पतन यह क्रम है। इनका
विवेचन करने में तो देरी लगती है पर इन सभी वृत्तियों के पैदा होने में और उससे
मनुष्य का पतन होने में देरी नहीं लगती।