विकास बनाम प्रकृति (संस्कृति समेत) संरक्षण के बारे में चल रही वर्तमान बहस, ध्यान आकर्षित
करने के लिए और शोर पैदा करने के बारे में अधिक है।
जब कोई कहता है कि दुनिया सबसे बुरे दिनो के लिए बदल रही है,
तो इसका केवल इतना अर्थ है कि यह इस तरह से बदल रही है कि यह बदलाव उसके निहित स्वार्थ (यथा स्थिति ) पर
प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। सामान्यतः यदि आप परिवर्तन से लाभान्वित होते हैं,
तो विकास प्रगति है, पर यदि आप इससे प्रतिकूल रूप से प्रभावित हैं तो यह विकास, प्रकृति/ संस्कृति को नष्ट कर रहा है।
कोई कहता है कि विकास प्रकृति के खिलाफ नहीं होना चाहिए। मैं पूछता हूं, क्या विकास और प्रकृति साथ-साथ चल सकते हैं ? प्रत्येक नयी प्रणाली, वैकल्पिक प्रक्रिया / प्रणाली उत्पन्न करती है और पुराने को नष्ट कर देती है। प्रकृति का अर्थ है उसकी चीजें बिना भेद के सभी लिए
उपलब्ध हैं । विकास का अर्थ है मानव निर्मित चीजें जो एक
कीमत देकर ही इस्तेमाल की जा सकती हैं (मुफ्त सड़क के लिए
भी हम सरकार को करों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से भुगतान करते हैं)। जरा सोचिए, विकास के खिलाफ प्रकृति पर एक बहस में, 'क्या मनुष्य ने जंगल को नष्ट कर कृषि का विकास नहीं किया है'? पूर्व मे अगर किसी ने जंगल बचाने
के लिए कागज बनाने पर रोक लगा दी होती तो ? अगर शेर शाह सूरी को वन
मंजूरी के बहाने जीटी रोड बनाने से रोका गया होता तो? हमारे पूर्वजों ने विकास के स्थान पर प्रकृति को चुना
होता तो, आदि-आदि, तो हम आज
किस वातावरण मे रह रहे होते?
अन्य कोई कहता है कि विकास के द्वारा संस्कृति को नष्ट/बदलना नहीं चाहिए। क्या यह संभव है?
इसे एक उदाहरण
से समझें- पुराने जमाने में बरसात के मौसम में बारिश के कारण (शहर से) संपर्क टूटने के कारण
गाँव से दूध/ सब्जी को बाजार में नहीं भेजा जा
सकता था। इस प्रकार (ऐसे समय में) ऐसी खराब होने वाली वस्तुओं के मुफ्त वितरण की
परंपरा या संस्कृति विकसित हुई। अब, यदि एक सड़क बन जाती है और गाँव को शहर से जोड़ दिया जाता है तो यह स्वचालित
रूप से वस्तुओं के जबरन उपभोग/वितरण के पारंपरिक तरीकों को प्रभावित करेगा ही। इसी प्रकार बारिश के मौसम में, आर्थिक गतिविधी के अभाव मे चल रही पुरानी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा और आस्थाओं को नये परिप्रेक्ष्य मे जारी रखना संभव होगा या बुद्धिमानी होगी? निश्चित रूप से नहीं।
लिंग आधारित संबंधों के बारे में भी यही सच है। स्त्री की शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और जन्म प्रक्रिया पर
नियंत्रण आदि- परिवार में और अन्ततः समाज में पुरुष और महिला के बीच शक्ति संतुलन को प्रभावित करेगें ही । पर महिलाओं को (संस्कृती
अनुसार) पारंपरिक भूमिका जारी
रखने के लिए मजबूर करना अनुचित है या संभव नही है। तथ्य यह है कि प्रत्येक
प्रणाली चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, नैतिकता, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि हो, प्रत्येक अन्य
प्रणालियों में परिवर्तन या विकास से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, सामाजिक व्यवस्था राजनीतिक व्यवस्था को
प्रभावित करती है, विज्ञान नैतिकता
को प्रभावित करता है आदि। कोई भी प्रणाली अन्य से स्वतंत्र नहीं है।
इसके अलावा, जो बदला जा रहा
है वह पहली जगह में सही या अच्छा नहीं भी हो सकता है। जिसे हम संस्कृती कहते हैं,
वह केवल बलाढ्य पक्ष का अन्य पर थोपा गया व्यवहार
होता है (जैसे पुरुषो द्वारा महिलाओं पर) और सामान्यतः न्यायोचित नहीं होता है। वर्तमान कानून,
विभिन्न समूहों के बीच समझौता हैं और विभिन्न समूहों के सापेक्ष महत्व या बल(Relative Power) को रेखांकित करते हैं तथा कानून बनाने की प्रक्रिया को भी प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये कानून के उच्चतम रूप देश के संविधान को ले, जो सभी नागरिको, समूहों तथा भू-भागों के हितों को
ध्यान मे रखकर बनाया गया था और उसमें, बदलते हुए सापेक्ष महत्व या बल के अनुरुप, संशोधन
किये जा रहे हैं । एक उदाहरण लें, संसद/विधानसभाओं
द्वारा पारित नियमों से स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण हैं पर स्वंय संसद/विधानसभाओं के लिए इस प्रकार के आरक्षण का कोई नियम नही
बनाया गया है। इसी प्रकार किसी राज्य के लाभ(रोजगार, शिक्षा आदि) लेने के
लिये साधारणतः आपको उस राज्य का रहवासी (Domicile) होना जरुरी है पर राज्य सभा में राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिये यह
आवश्यक नही रखा गया है। यह नैतिक या
न्यायोचित तो नहीं ही है पर विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं या अन्य समूहों के सापेक्ष महत्व को भी दर्शाता है । अन्य संबधो में भी यही सच
है।
पुनः प्रकृति-विकास पर आते हैं । प्रकृति-विकास की बहस में इसकी व्यवहार्य सीमाओं को समझे बिना, सतत विकास (Sustainable
Development) के बारे में जोर-जोर से बाते होती है। माना गया सरल मानदंड यह है कि "मेरी पीढ़ी/मेरे द्वारा किया गया विकास अच्छा है लेकिन मेरी अगली पीढ़ी/ दूसरे जो कर रहे हैं वह अच्छा नहीं है”। इस तरह की राय
तदर्थ हैं और हमारी अपनी सुविधा के अनुरूप हैं। इसलिए पश्चिम एशिया मे पेट्रोलियम के कुएं तो ठीक हैं लेकिन ध्रुवों पर खनन (Drilling) अच्छा नहीं है। आप अपने घर के पिछवाड़े के एक
हरे पेड़ को काट लें तो सजा देने का कानून है । लेकिन, रणनीतिक जरूरतों के आधार पर हिमालय में सड़क
निर्माण के लिए हजारों पेड़ काटने
की पर्यावरण मंजूरी संभव है।
जब चीन ने हिमालय के बेस पर एयर पोर्ट बना लिया है तो अब क्या हम वहां पर पर्यावरण के नाम पर विकास कार्यो को रोक सकते हैं ? इसी प्रकार विकसित देश कहते हैं, हमने दुनिया को प्रदूषित किया है लेकिन
विकासशील देशों को दुनिया को प्रदूषित नहीं करना चाहिए । विकासशील देश कहते हैं आपने विकास कर बहुत प्रदूषण कर लिया, आप रुकें और अब हमारी बारी है । दोनों ही पक्ष, सिर्फ दूसरे पक्ष को रोकने के लिए विकास द्वारा किए जा रहे नुकसान को
बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और बहस/ बातचीत सिर्फ
अपनी-अपनी स्थिति को बचाने या सुधारने के लिए चलती है।
विचार का एक अन्य पक्ष है- हमारी विकास
गतिविधि का प्रकृति (नकारात्मक) पर और प्रकृति के संरक्षण के लिए की गई गतिविधि (सकारात्मक) का वास्तव में क्या प्रभाव पड़ता है? हम शहर की हवा और पानी की गुणवत्ता को मापते हैं और इसे
पूरी पृथ्वी के लिए प्रक्षेपित (extrapolate) करते हैं, और कहते हैं कि पूरी प्रकृति प्रदूषित या नष्ट हो रही है।
हम कुछ तालाब साफ करते हैं और कहते हैं कि हमने प्रकृति को बचाया है। इनकी तुलना सुनामी, भूकंप और ज्वालामुखी
आदि के रूप में विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं से करें। नवीनतम घटना आइसलैंड में ज्वालामुखी है जिसने यूरोप में
हवाई यातायात को बाधित किया था। इसी तरह, अगर हम सिर्फ सौर ऊर्जा की सफाई शक्ति की गणना करें जो कि जीवमंडल के पुर्नजनन, पानी के वाष्पीकरण और बारिश के माध्यम से सभी
नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की जननी है तो हमारी गतिविधियों (नकारात्मक या सकारात्मक) की
लघुता स्वतः स्पष्ट हो जायगी । यह सब देखते
हुए मैं सोचता हूँ- “क्या किसी दिन मनुष्य
पृथ्वी को प्रदूषित भी कर सकता है ? या उसकी सफाई का
प्रयास कभी प्रकृति की सफाई शक्ति से बराबरी कर पाएगा ?”।
अगर हमारे क्रियाओं और प्रयासों का इतना कम प्रभाव है,
तो इतना शोर क्यों हैं ? याद रखें,
हर संचार (Communication) का एक उद्देश्य होता है, लेकिन यह सच हो जरुरी नहीं है। विकास के पक्ष और विपक्ष में संचार के
बारे में भी यही कहा जा सकता है। ये कंपनियों के विपणन के प्रयास भी हो सकते हैं जो प्रकृति के विनाश से उत्पन्न भय से लाभान्वित होते
हैं। दार्शनिक और गीता में विश्वास रखते हुये हम
सोचें "हम क्या बनाने में
सक्षम हैं? हम क्या नष्ट करने वाले
हैं?" बिल्कुल कुछ नहीं। हम सिर्फ चीजों का रूप बदल रहे हैं। आज, अगर हम कुछ बदली
हुई सामग्री का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं और उसे प्रदूषण मानते है तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह अपना आंतरिक मूल्य या उपयोगिता
खो चुकी है। वर्तमान समय का कोयला लाखों साल पहले
गहरे दबे संकुचित (Compressed)/ नष्ट जंगल के अलावा कुछ भी नहीं है। इसी तरह, आज के कचरे को भविष्य में किसी न किसी
रूप में कुछ उपयोग जरुर मिलेगा ही ।
उपसहांर के रुप में “प्रकृति ( तथा संस्कृती) हमारे विकास से नष्ट हो जाय इतनी कमजोर नही है”। आज के जीवन का
स्वरूप अतीत में हुए विकास का परिणाम है। आगे भी विकास ही हमारी विभिन्न
प्रणालियों में बदलाव लाएगा। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें गैर-जिम्मेदाराना
व्यवहार करना चाहिए, और नदियों की
सफाई, पेड़ लगाना आदि बंद कर
देंना चाहिये । ये हमारे स्थानीय पर्यावरण की रक्षा या सुधार
और अपने लिए रहने की लागत (Cost of living) को कम करने के लिए आवश्यक हैं । अतः हमें प्रकृति (संस्कृति समेत) को संरक्षित
करने के साथ-साथ विकास ( बदलाव) को जारी रखने के लिए आम
सहमति बनानी होगी।
लेकिन इसे पृथ्वी की रक्षा आदि जैसी बड़ी अवधारणाओं से जोड़ना मनुष्य का
अहंकार ही है।