यहां मुझे बचपन की दो कहानियों की याद आती है। पहली कहानी में, एक चूहा था जो बड़ा और मजबूत बनना चाहता था। उसने तपस्या कर एक ऋषि से वरदान
मांगा । मनोकामना पूर्ण
हुई। अधिक बड़ा और मजबूत होने के लालच में वह पहले वर्षा बन गया, फिर हवा, उसके बाद एक
पहाड़ और इसी तरह और भी कुछ। लेकिन अंतत: वह सबसे मजबूत
बनने की अपनी अनंत चाह-खोज में पुनः चूहा बन गया।
प्रत्येक परिवर्तन ने उसे यह अहसास दिया कि कोई और अधिक मजबूत है और इस प्रकार प्रकृति के चक्रीय परिवर्तन ने उसे अपने मूल रूप में ला
दिया। दूसरी कहानी भी एक चूहें से ही संबंधित है। एक दिन जब शेर ने चूहें को पकड़ लिया, तो उसने शेर से उसे मुक्त करने की प्रार्थना की, और बदले में जरूरत पड़ने पर शेर की मदद करने का
वादा किया, अतःशेर ने चूहें को मुक्त कर दिया। एक दिन शेर शिकारी के जाल में फंस गया और चूहें ने जाल काटकर उसे छुड़ा लिया।
दोनों कहानियों से यह सीख मिलती है कि प्रकृति ने सभी को अलग-अलग बनाया
है फिर भी सबका एक समान महत्व है। इसमें कुछ या कोई भी महत्वपूर्ण- बड़ा या कुछ भी तुच्छ- छोटा नहीं है। प्रत्येक घटक एक-दूसरे पर आश्रित है तथा एक-दूसरे के पूरक है। ऋतुओं का उदाहरण लें- गर्मी, बरसात और सर्दी- उनके बीच तीव्र अन्तर होने के बावजूद हर मौसम का महत्व (हमारे लिये भी ) समान है। चक्रीय व्यवस्था होने से कौन-सी ऋतु प्रथम और
कौन-सी अन्तिम है यह भी नही कहा जा सकता।
इसके विपरीत मानव निर्मित प्रणालियों को लें। आनुवंशिक
कारक (Genetic) और विरासत (Inheritance ) के कानूनों के कारण परस्पर-अंतर अंतर्निहित (inbuilt, inevitable) है। पर इस अन्तर को
मानव ने ऊर्ध्वाधर असमानता पर आधारित कर दिया हैं। एक घटक दूसरे से ऊपर है और इस व्यवस्था के दो सिरे आपस में नहीं मिलते हैं अर्थात ऊपर का अन्तिम घटक नीचे के अन्तिम घटक से नहीं मिलता है। इस व्यवस्था में जिसका कोई प्राकृतिक या तार्किक आधार नही है हमने जीवों
में मनुष्य को श्रेष्ठ बताया, मनुष्यो में पुरुष और ब्राम्हण को श्रेष्ठ बताया-
आदि-आदि। इसका परिणाम है कि ऊपर के स्तर वाला नीचे के स्तर वाले को हेय दृष्टि
से देखता है। हर मनुष्य अपनी स्थिती से असन्तुष्ट है और स्वयं के स्वगुण को छोडकर
भी उच्च पायदान तक पहुंचने के लिए एक दौड़ में लगा रहता है- बढ़ई स्वयं की
कार्यकुशलता छोड, BA डिग्री लेकर (और बेरोजगार
रहकर) गौरवान्वित महसुस करता है।
प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। इसमें कौन महत्वपूर्ण
है और कौन गौण है यह नही कहा । पर मानव निर्मित नियमों ने पुरुष को श्रेष्ठ घोषित किया; उसका कार्य स्त्री की तुलना में श्रेष्ठ बताया - आदि। इससे समाज में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई
है । अब समाज सुधारक
और कानून निर्माता उन दोनो के कार्यों को समान करके लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए उत्साहित हैं। इस कारण, स्त्री पुरुषोचित कार्य कर
गौरवान्वित महसुस करती है (उस तरह का स्वगुण है तो स्वागत है) या पुरुषोचित कार्य
करने पर ही उसे गौरवान्वित किया जाता है । इस प्रकार समानता और झूठे अभिमान की शिकार होकर महिलाओं ने स्वंय पर दोहरा बोझ ले लिया है, एक स्वाभाविक
भूमिका का और दूसरा स्वयं/समाज द्वारा थोपा हुआ। दूसरा पहलू यह है कि आज अर्थशास्त्र के सिद्धान्तो के विरुद्ध, महिलाओं के लिए कानून द्वारा वेतन/लाभ की समानता और मातृत्व अवकाश आदि विशेष प्रावधान किये जाने से कार्यबल (working population) में उनकी वृद्धि होने के बजाय कम
हो रही है । अतः स्त्री को समानता दिलाने के लिये प्राकृतिक और कार्यात्मक अंतर को खत्म करने का कोई भी
प्रयास समाज में अव्यवस्था पैदा करने के लिए अभिशप्त हैं और असफल होने के
लिए बाध्य हैं । वास्तव में हमें ऊर्ध्वाधर पदानुक्रम की धारणा छोड़कर, उनके अपने कार्य को समान सम्मान देकर प्राकृतिक लिंग-अंतर बनाए
रखने की आवश्यकता है । यह व्यवस्था महिलाओं को, दूसरों की नकल किये बिना अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिये प्ररित करेगी।
मानव निर्मित कोई भी नया उत्पाद, विचार, सामाजिक प्रथा आदि -प्राकृतिक चक्र- (सिद्धांत-अनुसंधान-प्रयोगशाला-प्रोटोटाइप-परिचय(entry)-विस्तार और समाप्ति) से गुजरती है। प्रत्येक नया उत्पाद,विचार,प्रथा मौजूदा उत्पादों-विचारों- प्रथाओं को चरणबद्ध तरीके से नष्ट करता है। डार्विन का
सिद्धांत भी प्रकृति की प्रणाली में क्रमिक अनुकूलन का प्रस्ताव करता है।
उपरोक्त सिद्धान्त बताता है समाज के अलग-अलग घटक, अलग-अलग चक्रों में,
अलग-अलग स्तर पर होगें। इससे घटकों के मूल्यों, जीवन शैली,
आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था और अन्य सभी चीजों में अन्तर स्वाभाविक है और उन्हें दूर नहीं किया जा सकता है। 50 साल पहले बिजली
कनेक्शन है या नहीं, इस आधार पर आबादी
में अंतर किया जाता था। आज यह डीटीएच कनेक्शन या किसी अन्य मापदंड पर आधारित है। श्री नीलकेनी के अनुसार, 60-70 के दशक में राज्य का प्रयास जनता को "रोटी-कपड़ा-मकान" प्रदान करना था, 90 के दशक में
ध्यान "बिजली-सड़क-पानी" पर हुआ और वर्तमान में यह "
यूआईडी-बैंक खाता-मोबाइल" पर है । इसी तरह शासक (नेता-राजा) और प्रजा का उदाहरण लें। प्रकृति की दृष्टि से भेदभाव तो होना ही है अगर किसी को संगठन का कार्य करना है तो किसी को श्रम करना होगा, अगर सभी संगठनकर्ता बनेंगे तो श्रम कौन करेगा । भौतिक सम्पदा का भी एक उदाहरण लें, मान लें कि मोबाइल फोन के आविष्कार के साथ
ही हर व्यक्ति लैंड लाइन फोन को छोड़ (discard) देता है । लैंड लाइन को छोड़ना संसाधन की बर्बादी होगी और सभी को मोबाइल फोन देने के लिये है संसाधनों की
भारी आवश्यकता भी होगी। पुनः कोई भी अप्रयुक्त अवधारणा
या उत्पाद अत्यधिक हानिकारक और यहां तक कि अपूरणीय क्षति करने वाला भी हो सकता है । कल्पना करें संपूर्ण
विश्व ने एक साथ प्लास्टिक का उपयोग शुरु किया होता तो पर्यावरण का कितना नुकसान
होता ।
पुनः दुसरे शब्दों में मानव निर्मित प्रणाली में विभिन्न
परतें हमेशा रहेंगी और उनकी अंतर्निहित उपयोगिता है। कोई भी संस्कृति या
सुधारक इन मतभेदों को खत्म नहीं कर सकता। असमानता एक अपरिहार्य बुराई है और हमें इस के लिए दोषी महसूस करने या क्षमा प्रार्थी होने की
आवश्यकता नहीं है । हाँ, प्रकृति से हमें सीखकर यह व्यवस्था बनानी हैं कि कोई भी दूसरों के स्थान या अधिकार का अतिक्रमण न करे या श्रेष्ठ/हीन महसूस न करे जो कि वास्तव में परस्पर घर्षण या वैमनस्य का कारण है। पर आज, सार्वजनिक वस्तुओं (Public
Goods) के उपयोग का भुगतान न कर,
उन्हें नुकसान पहुँचाकर या उन्हें
प्रदूषित कर ही अधिकांशतः निजी लाभ पाया जा रहा है। इसका एक सरल उदाहरण सड़क पर वाहन पार्क करना है। इसे रोकना होगा। इसी प्रकार एक शहरी नागरिक को न तो किसी
आदिवासी को उसके जैसा व्यवहार करने के लिए मजबूर करने की कोशिश करनी चाहिए और न ही
उस पर अपनी श्रेष्ठता को लादना चाहिए ।
अन्तर होते हुए भी समानता रखने के अलावा एक विषय- आपस में जुड़ाव (Connectivity) का है; उच्च या भिन्न स्तर के लोगों को पदानुक्रम के निम्नतम स्तर
से जुड़ना होगा। यह जुड़ाव सीईओ का चपरासी से, पीएम का आम इंसान से, आदि हो सकता है। एक
कहावत है "जनता पर शासन करने का रामबाण अस्त्र उनकी सेवा करना
है"। वास्तव में, एक बार जब हमारी
मानसिकता ऊर्ध्वाधर पदानुक्रम की अवधारणा से मुक्त हो जाती है, तो जुड़ाव (Connectivity) का मुद्दा स्वतः
हल हो जाता है।
निष्कर्ष यह है कि व्यक्तिगत स्तर पर हमें पदानुक्रम में अपनी स्थिति पर गर्व या
असंतुष्ट महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। वृहद या सामाजिक स्तर पर हमारी
संस्कृति को सभी घटकों को समान
महत्व देकर सह-अस्तित्व, के साथ बिना किसी प्रतिरोध के गुणानुसार एक स्तर से दूसरे स्तर में जाने की स्वतन्त्रता व गतिशीलता (Mobility) को प्रोत्साहित करना होगा। हम बायें हाथ से शौच साफ करते हैं और दायें हाथ
से भोजन करते हैं फिर भी हमारे लिये दोनो का समान महत्व है और नमस्कार के लिये दोनो
हाथ जोड़ें जाते हैं। हमे यही मानसिकता-दृष्टिकोण समाज के सम्पूर्ण घटकों के लिये
अपनानी होगी।
यह समाज में, प्राकृतिक प्रणालियों की एक विशेषता सद्भाव
और सह-अस्तित्व को सुनिश्चित करेगी जोकि विश्व शांति के
लिए आवश्यक है ।