मनुष्य मूलतः शुभ प्रवृत्ति का हैं। अतः (राक्षसो
से भिन्न) असुरों के गुण भी मूलतः सत्पुरुषों के समान ही होते हैं, परन्तु त्रुटिपूर्ण/सीमित दृष्टिकोण के कारण, उनका दुरुपयोग हो जाता है। शुभ प्रवृत्ति का त्रुटिपूर्ण अर्थ/उपयोग ही अशुभ-असुर प्रवृत्ति है। अपनी त्रुटियों/(अव)गुणों को पहचानना, उनका कारण जानना और उनके प्रति पश्चाताप या घृणा होना ही उनसे छुटकारा पाने का सरल उपाय है ।
अपनी सीमित बुद्धि/दृष्टिकोण के कारण आसुरी प्रवृत्ति का मनुष्य, नितान्त संशयी और भौतिकवादी होता हैं । वह न तो जीवन का चरम लक्ष्य देख पाता हैं और न ही इस परिवर्तनशील और परस्पर असंबद्ध प्रतीत होने वाली घटनाओं से अन्य संपूर्ण-जगत् के किसी स्थिर-आश्रय को स्वीकार कर पाता है। परन्तु, विज्ञान भी अब स्वीकार करता है कि परिवर्तन तो एक सापेक्ष घटना मात्र है और जैसै एक स्थिर पर्दे के बिना चलचित्र देखा नहीं जा सकता उसी प्रकार स्थिर, अपरिवर्तनशील आश्रय(Support, Base) के बिना, न जगत् में परिवर्तन हो सकता है और न ही वह ज्ञात हो सकता है। {कक्षा 9 का छात्र भी जानता है की किसी भी पदार्थ की गति को ज्ञात करने के लिये एक स्थिर केन्द्र को मानना आवश्यक है।} संपूर्ण-जगत् का यह स्थिर-आश्रय ही सत्य, ईश्वर, परमात्मा कहलाता है।
मनुष्य में आसुरी प्रवृत्ति होने या आने का पहला कारण प्रवृत्ति (कर्तव्य कर्म) और निवृत्ति (निषिद्ध कर्म) को न जानना है । इससे उन में शुद्धि-अशुद्धि, सांसारिक बर्ताव आदि का खयाल न होकर वे असत्य बोलते और आचरण करते हैं। उनकी दृष्टि में यह (जड़) जगत् ही सत्य है और इसको रचने वाला, इस पर शासन करने वाला, और किये हुए पाप-पुण्यों का फल देने वाला कोई (ईश्वर) नहीं है। उनके मतानुसार यह सम्पूर्ण चराचर जगत् संयोगवश (बिना किसी नियम के) केवल महाभूतों (जड़) के परम्पर संबंध से उत्पन्न हुआ है और कामवासना ही प्राणियों की उत्पत्ति का एकमात्र कारण है। वे अप्रत्यक्ष चेतन-तत्त्व (ईश्वर, आत्मा पाप-पुण्य, शुचिता और सदाचार) का अस्तित्व नही मानते । उनका लक्ष्य कमाओ, खाओ, पीओ और मौज करो का रहता है। यही चारवाक दर्शन है पर वे ( इस दर्शन से अलग) अपनी कामना और हित की पूर्ती के लिये अन्य मनुष्य, प्राणी का अहित करना तथा सार्वजनिक या प्राकृतिक वस्तुओं का उपभोग और विनाश करना उचित समझते हैं। ।।16.7-8-9।।
उनके विश्वास में कामना के बिना आदमी की उन्नति हो ही नहीं सकती । वस्तुओं को
प्राप्त करने के लिए परिश्रम और संघर्ष
तथा प्राप्त की गयी वस्तुओं के रक्षण की व्याकुलता, यही उनके जीवन की
चिन्ताएं होती हैं। वे यही समझते हैं कि हम चिन्ता करते हैं, कामना करते हैं, तभी चीजें मिलती
हैं. अन्यथा भूखों मरना
पड़े। भोग के लिए
विषयों का संग्रह आवश्यक होता है अतः वे, इतना धन और मान हो जायगा, आदि सैकड़ों आशाएं लगाये रखते हैं । उनके पास लाखों-करोड़ों रुपये हो जायँ, तो भी उनकी तृष्णा समाप्त नही होती । ।।16.10-11-12।।
जहाँ सत्कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होती, वहाँ सद्भाव भी दबते चले जाते हैं और फिर कामना तथा आशा पूर्ति के लिये आसुरी व्यक्ति, दुर्गुणों का सहारा लेता है, जो मनुष्य के हृदय में व्यक्त होकर अपना विनाशकारी
प्रभाव दिखाती हैं। दम्भ –अपना मूल स्वभाव(अच्छा-बुरा दोनो) न होने पर भी लाभ के लिये वैसा दिखाना। घमण्ड - मेरे पास (ममता )ये चीजे
हैं और अभिमान – मै ऐसा हुँ (अहंता)- को लेकर अपने में बड़प्पन का अनुभव होना । क्रोध – दूसरों का अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में जलन की वृत्ति पैदा होना। कठोरता- यह कई प्रकार की होती है-जैसे वाणी और व्यवहार की । अज्ञानम् (अविवेक)- यह सोच न पाना कि ये नाशवान् पदार्थ कब तक हमारे साथ रहेंगे और हम कब तक
इनके साथ रहेंगे। वे तात्कालिक इन्द्रिय संयोग/वियोगजन्य नाशवान सुख- दुःख को ही वास्तविक सुख- दुःख मानते हैं अतः वे उद्योग तो सुख के लिये करते हैं, पर परिणाम में उनको पहले से भी अधिक दुःख मिलता
है । ।।16.4।।
इस प्रकार जीवन में चेतन और जड की मुख्यता को लेकर प्राणियों के दो भेद हो जाते हैं । जड़ की मुख्यता को लेकर आचरण में लाई गई दुष्प्रवृत्तियाँ, मनुष्य को भ्रान्ति, मानसिक रोग और उनसे उत्पन्न शारिरीक रोग (सदाचार का जीवन, अपने आप में ही इस प्रकार के रोगों का उपचार कर देता
है) के साथ बांध कर रखती हैं। ऐसा पुरुष कभी भी स्वयं में शक्तिवर्धक प्रसन्नता, आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प को नहीं पाता है जो कि
आत्मनिरीक्षण कर आत्म-उपचार और आन्तरिक व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। जड़ की मुख्यता छोड़कर, चेतन की ओर लक्ष्य कर, नैतिक गुणों का पालन करना मनुष्य की क्षीण शक्तियों और प्रेरणाओं को
पुनर्जीवित करने का बुद्धिमत्तापूर्ण साधन है। इन गुणों को अपने जीवन में जीने से, मनुष्य खुद बनाये हुये बन्धनों से मुक्त हो जाता है । ये (दैवी-प्रवृत्ति के) गुण स्वाभाविक (In Built) रहते हैं। इसके विपरीत आसुरी प्रवृत्ति आगन्तुक (acquired) है
और विद्यार्थी को अपने में आसुरी प्रवृत्ति दिख भी जाये, तो उसे कभी निराश नहीं होना चाहिये और स्वयं की उन्नति के लिये उस
प्रवृत्ति को समाप्त करने के उपाय करना चाहिये।।।16.5-6।।
हमें निरन्तर
कार्यरत रहने के लिए किसी जीवन विषयक उचित और समग्र दृष्टिकोण की
आवश्यकता है। उसके बिना हम जीवन के सतही असामंजस्य और विषमताओं के पीछे जो सामंजस्य और लय है, उसे जानेगें ही नहीं और हमारे प्रयत्न असंबद्ध, निरर्थक और हीनस्तर के होकर जीवन सतत संघर्षमय होगा और हम सुखी और शान्तिमय
जीवन से वंचित रहेगें।