अपने -अपने शैक्षणिक, सामाजिक,
आर्थिक तथा आश्रम (जीवन क्रम) के अनुसार किसी भी उपदेश या ग्रंथ का हर व्यक्ति एक
अर्थ निकाल लेता है। अतः अधिकांश लोगो के लिये गीता का अर्थ है -यदा यदा हि धर्मस्य______, ।।4.7-8।। और योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।। है अर्थात सब कुछ भगवान करेगें। पर गीता के समापन मे भगवान ऐसा
कुछ नही कहते, वे कुछ आश्वासन जरुर देते
हैं पर वह सशर्त है, और अंततः सब कुछ अर्जुन पर छोड़ देते हैं । दूसऱी ओर संजय
कहते हैं जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं विजय उस पक्ष की होगी। गीता के ये दो अलग समापन
या सार हैं।
पहले श्रीकृष्ण के शब्दो
में गीता सार- अच्छी तरह से अनुष्ठान किये हुए पर धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है, कारण कि
स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त
नहीं होता । ।।18.47।। अहंकार का आश्रय लेकर
तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; क्योंकि तेरी
क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्ध में लगा देगी।।।18.59।। हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभाव जन्य कर्म से बँधा हुआ तू
मोह के कारण जो नहीं करना चाहता, उसको तू (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा। ।।18.60।। माता-पिता से जैसे संस्कार रहे हैं,
जन्म के बाद जैसा देखा-सुना है,
जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं -- उन सब के मिलने से अपनी जो कर्म करने की एक आदत बनी है, उसका नाम स्वभाव या स्वधर्म है। यह वर्णधर्म (Aptitude) ही है। मनुष्य स्व को अर्थात् अपने को जो मानता है, वह उसका स्वधर्म (कर्तव्य) है । जैसे कोई अपने को कोई विद्यार्थी या अध्यापक
मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायेगा (पर जो कर्म किसी के लिये भी अहित-कारक होते हैं,
वे स्वधर्म नहीं होते।) । यदि अपने स्वधर्म में गुणों की कमी है, उसके पालन करने में कमी रहती है या उसको कठिनता से करना पड़ता है तो भी स्वधर्म का पालन करना , दूसरों के धर्म का पालन करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है। मनुष्य जिन प्राकृत (विनाशी) पदार्थों को अपना मान लेते हैं, उन पदार्थों के सदा ही परवश (पराधीन) हो जाते हैं। वे भ्रम तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थों के स्वामी हैं,
पर हो जाते हैं उनके नौकर । प्रकृति हर-दम क्रियाशील है, बदलने वाली है,
इसलिये कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता । वह यह नही कह सकता है कि मैं यह कर्म करूँगा और वह कर्म नहीं करूँगा । कारण कि
प्रकृति के परवश हुए मनुष्य का तो करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है- और वह इन दोनों से नही छूट सकता । अतः कृष्ण कहते हैं- स्वभाव-जन्य क्षात्र-प्रकृति से बँधा हुआ तू (अर्जुन) मोह के कारण जो नहीं करना चाहता, उसको तू परवश होकर करेगा।
यह गुह्य से भी गुह्यतर (शरणागतिरूप) ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। अब
तू इसपर अच्छी तरह से विचार
करके जैसा चाहता है, वैसा कर ।।।18.63।। हे पृथानन्दन ! क्या तुमने एकाग्र-चित्त से इसको सुना? और हे धनंजय ! क्या
तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न
मोह नष्ट हुआ ? ।।18.72।। कृष्ण ने यह कहकर गीता-उपदेश का समापन किया कि “अर्जुन ,
मैने तुम्हे सबसे गूढ़ रहस्य बताए हैं। उन पर चिंतन और विचार करके अपने
विवेकानुसार निर्णय लेना (----- यह जान लो कि यदि तुम मुझ पर विश्वास करके अन्य सभी
मार्गो का त्याग करोगे अर्थात मेरे बताये मार्ग पर चलोगे, तो मै तुम्हे मुक्त कर दूँगा
पर वे यहाँ विजय का आश्वासन नही देते हैं )”----- मुझे उम्मीद है तुमने मेरी बाते
एकाग्रता से सुनी हैं और उन पर ध्यान दिया है और इस ज्ञान ने तुम्हारे सारे भ्रम नष्ट
कर दिये हैं।
अर्जुन बोले -- हे अच्युत !
आपकी कृपा से मेरा मोह
नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब
मैं आपकी आज्ञा का पालन
करूँगा। ।।18.73।। अर्जुन ने
कृष्ण को आश्वस्त किया किया कि उसका भ्रम नष्ट हो गया है और अब उसे जो भी बताया
गया है, उस पर विश्वास है और उस अनुसार कार्य करने को तैयार है। कृष्ण तथा अर्जुन
के लिये गीता संवाद इस मनोवैज्ञानिक समाधान के साथ समाप्त हुआ।
पर संजय इस संवाद का समापन दुसरे प्रकार से करते
हैं । जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ
गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और
अचल नीति है -- ऐसा मेरा मत है।।।18.78।। संजय का मानना है की जिधर (परिवर्तित) अर्जुन हैं (या जिसका भी वैसा स्वभाव है) उसे
ही भाग्य (श्री), सफलता (विजय), प्रभुत्व (भू), स्थिरता (ध्रुव) और कानून(नीति) मिलेगी।
उसके लिये गीता राजाओं के लिये नीति वचन है, क्योंकि वह उनसे शासन करने, अपनी
प्रजा का उत्तरदायित्व लेने और भोगासक्ति में युद्ध लढ़ने के बजाय शांति और समृद्धि
लाने मे कार्यरत रहने का आग्रह करती है। गीता के ये नीति वचन है और गीता की फल
श्रुति भी है।
अतः विद्यार्थी
के रुप में सफलता के लिये हमें क्या करना है ? मन में कोई द्वन्द न रखें, मन को संयमित करे
और बुद्धि को स्थिर रखे। स्वंय का स्वभाव (Aptitude) जाने, उसी के अनुसार लक्ष्य निर्धारित करें, मेहनत
करें (कर्मयोग), ज्ञान प्राप्त करें(ज्ञानयोग) और अंततः विश्वास रखें (भक्तियोग) कि
आपको समृद्धि, सफलता, प्रभुत्व, स्थिरता आदि जरुर मिलेगीं।
सभी को शुभकामनाएं
।