जब किसी व्यक्ती के मन में बहुत अधिक अतीत होता है
तो वह अपराधबोध, पछतावा, आक्रोश, शिकायत, उदासी, कड़वाहट और सभी प्रकार के गैर-क्षमा (Non forgiveness) भावों से ग्रस्त होता है, और जब मन में बहुत अधिक भविष्य होता
है तो वह बेचैनी, तनाव और चिंता महसूस करता है। उपरोक्त सभी चीजें मन के "विकार" हैं और मन की ये स्थितियाँ उत्पादकता के
साथ-साथ मानव की खुशी को भी बाधित (Obstruct) या कम करती हैं।
इसीलिये आध्यात्मिक गुरु, प्रेरक वक्ता, प्रबंधन विशेषज्ञ आदि सभी, व्यक्ति को "वर्तमान" में रहने को कहते हैं, इसके विपरीत जब समाज और राष्ट्र (जो कि
व्यक्तियों का समूह मात्र है) की बात आती है, तो यही लोग जनता को अतीत में किए गए कार्यों पर गर्व करने,
उसे संरक्षित करने, उसका पालन करने या (या उन पर हुय़े तथाकथित अत्याचार का) बदला लेने के लिए और भविष्य के लिए वर्तमान का बलिदान करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। पर वर्तमान की कीमत पर भूतकाल में शरण लेने या भविष्य के बारे में सपने देखने का कोई भी विचार समाज या राष्ट्र के लिए आत्मघाती होना चाहिए। जैसे, जब नागरिक अतीत की सामंती व्यवस्था में विश्वास करते हों तो "नई" वर्तमान (लोकतांत्रिक) व्यवस्था प्रभावी नही होगी। या समाज/राष्ट्र का सामाजिक, मनोवैज्ञानिक ताना-बाना अतीत में डूबा हुआ हो तो वह आर्थिक रूप से भविष्योन्मुखी, प्रगतिशील,
मजबूत आदि होने की आकांक्षा नही कर सकता। मन अनिवार्य रूप से एक जीवित रहने की मशीन है और इसके कार्य
जानकारी एकत्र करना, भंडारण और
विश्लेषण करने के साथ ही अन्य के खिलाफ हमला और उनसे बचाव करना भी है । अतः जैसे-जैसे मनुष्य-समाज अपने मन-मस्तिष्क (स्मृति या
कल्पना) का अधिक से अधिक उपयोग करने लगे हैं, अधिकांश रिश्ते
(व्यक्तिगत, समाज या राष्ट्रवार)
वर्तमान परिस्थिती पर आधारित न होकर अतीत या भविष्य की समस्याओं के बारे में होकर अनावश्यक संघर्षों का कारण बन रहे हैं। आज परमाणु युद्ध और जैव-युद्ध आदि को पूर्ण मानवता के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा इसलिये माना जाता है,
क्योंकि कोई व्यक्ति जो अतीत( का बदला लेने की कोशिश कर रहा है) या भविष्य में (महाशक्ति
बनने की कोशिश कर रहा है आदि) बहुत अधिक तल्लीन है वह उनका उपयोग करने का निर्णय लेगा।
अतीत और भविष्य में रहना समाज या राष्ट्र के लिए एक अन्य कारण से भी आत्मघाती है । हमने अपने ही जीवनकाल में जो कुछ भी
अनुभव किया उसके बारे में भावनाएं समय के साथ बदल जाती है और फिर हमें लगता है
कि जो हमने पहले महसूस किया. था वह सही नही था या (भूतकाल में) भविष्य की जो कल्पना की थी वह उस प्रकार साकार नही
हुआ । उदाहरण के लिए,
1998 में एपीजे कलाम द्वारा
देखे गए भारत के 2020 के सपने या
जनसंख्या विस्फोट के खतरे (जिसे अब जनसांख्यिकीय लाभांश कहा जाता है) का मामला लें,
दोनों ही साकार नहीं हुय़ें । इसी प्रकार हम (70 वर्ष
की आयु में) जानते है की आज 50 साल के पहले की परिस्थिती के बारे में जो कुछ आज हम
पढ़ या सुन रहे हैं, वह वास्तव में वैसा नही था। यदि यह हमारे
अपने जीवनकाल के अनुभव के बारे में होता है, तो उस लंबे अतीत और भविष्य जिसे हमने अनुभव
नहीं किया है और अनुभव नहीं करेंगे लेकिन जो प्रेरक व्याख्यानों,
इतिहास की पुस्तकों, आदि के माध्यम से
ही हम तक पहुँच रहा है उसके सही होने की क्या निश्चितता (Guarantee) है ? वामपंथी इतिहासकार कहते हैं कि भारत में
जो कुछ भी अर्थपूर्ण है वह पश्चिम से आया है और दक्षिणपंथी इतिहासकार हर चीज को एक
गौरवशाली प्राचीन अतीत से जोड़ते हैं। हम नहीं जानते कि कौन सही
है और कौन गलत; अंतत: जो हम तक
पहुंचता है वह है विजयी दल का वर्णन और यह कई संस्करणो में से एक संस्करण है। इसके साथ ही व्यक्तियों-समाज द्वारा अपने आर्थिक, सामाजिक या राजनैतिक लाभ के लिये
भी अतीत या भविष्य के ये भ्रामक संस्करण भी प्रसारित किये जाते है, और उन पर पूर्ण विश्वास नही किया जा सकता । विज्ञान की भाषा में यह निश्चित रूप से कहा
जा सकता है किसी (प्रिज्म) के माध्यम से जो हम तक
पहुंचता है वह आंशिक रंगीन प्रकाश ही है, और पूर्ण सफेद प्रकाश हम तक कभी नहीं पहुंचता है ।
अतः अतीत के किसी एक संस्करण के आधार पर यह मानना कि अन्य लोगों
ने हमारे साथ (भूतकाल में) जो किया है, वे हमारे वर्तमान स्थिति, हमारी भावनात्मक स्थिति के लिये जिम्मेदार हैं और उनसे ( उनके वंशजो
से) बदला लेना या संबध नही रखना स्वंय के
पैरो पर कुल्हाड़ी मारना है।यह मानना कि दूसरो को दुःखी कर हम सुखी होगें
तत्वतः गलत है। व्यक्तियों /
समुदाय के सामाजिक अलगाव के परिणामस्वरूप अंततः दोनों पक्षों का मनोवैज्ञानिक और
शारीरिक विघटन होता है। नतीजतन पूर्ण समाज और राष्ट्र भी पीड़ित होता हैं। इसलिए सबसे अच्छी बात है, वर्तमान में रहते हुये यह स्वीकार करना है कि उस (पिछले) समय में जो कुछ हुआ वह उस समय की चुनौती( राजनीतिक या सांस्कृतिक) को दूर करने में हमारी अक्षमता थी और आज हम जो कुछ हैं उसके लिए हम जिम्मेदार हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई छात्र, कक्षा की परीक्षा में दूसरे स्थान पर आने पर यह स्वीकार करें कि
पहले स्थान पर आने वाला छात्र उससे बेहतर है और पहले आने वाले
छात्र के बारे में कोई कटुता पैदा किए बिना, स्वयं को बेहतर बनाने का प्रयास करें। लौकिक शब्द में
"बिना छुए एक रेखा को छोटा करना" का अर्थ है "पहले की तुलना में एक
बड़ी रेखा खींचना"। यह आत्म सुधार के साथ-साथ संवाद के लिए भी द्वार खोलेगा। फिर हम वर्तमान के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति / समुदाय से उसकी योग्यता और
अवगुण के आधार पर संबध बना सकते हैं। इसके अलावा, इस आधार पर कि विपरीत पूरक (Opposite is Complimentary) है, हम उस दूसरे (व्यक्ति /समुदाय) के कौशल और दृष्टिकोण का उपयोग करके राष्ट्र की
आर्थिक भलाई को समग्र रूप से बढ़ा सकते हैं।
वर्तमान की इस महत्ता के बावजूद हर समाज और राष्ट्र का अतीत या भविष्य परक झुकाव होता है। अतीत-उन्मुख समाज पारंपरिक मूल्यों पर आश्रित होकर परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं। वे अतीत से प्रेरणा, पोषण, आशा, मार्गदर्शन लेते हैं । ये समाज जोखिम से दूर
हैं । वे अंतरराष्ट्रीय बाजार और संस्कृति के घुसपैठ से
परंपराओं की रक्षा करना चाहते है। ऐतिहासिक कल्पना (अतीत) अक्सर वैचारिक
रूप से नियोजित होती है और कट्टरवाद, राष्ट्रवाद और नस्लवाद का मार्ग प्रशस्त करती
है ।हालांकि ऐतिहासिक कल्पना का जीवन में एक स्थान है क्योंकि उसके बिना कोई कविता, धर्म, नैतिकता, समारोह, प्रतीक, रूपक और
छुट्टियां नहीं हो सकती हैं ।
दूसरी ओर भविष्योन्मुखी समाजों में भविष्य को लेकर काफी आशावाद होता है । उन्हें लगता है कि वे
इसे आकार दे सकते हैं और इसके
लिये वे अपने प्रयासों और
संसाधनों को लगाते हैं। वे जोखिम-केंद्रित संस्कृतियां हैं। उनकी कल्पना में, नवीनतम आविष्कार,
खोज, फैशन, विचार आदि, हमेशा सबसे अच्छे होते है। यहां प्रत्येक संघर्ष-समस्या को, व्यवस्था को सुधारने के अवसर के रूप मे देखा
जाता है। हालाँकि, भविष्य की कल्पना भी एक प्रकार के कट्टरवाद में विकसित
हो सकती है।
अतीत-उन्मुख समाजों में भारत, ब्रिटेन, जापान आदि शामिल हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्राजील, भविष्य-उन्मुख समाजों के उदाहरण हैं। यह झुकाव, व्यवहार/शासन के हर पहलू, वर्तमान में अतीत के बारे में प्रश्न और उन सवालों के जवाब और वर्तमान के भविष्य से संबंधित प्रश्नों(विचार, रणनीति, विकल्प, राजनीतिक और
सामाजिक आंकाक्षायें) को काफी हद तक प्रभावित करता है। तकनीकी(भविष्य) कल्पना बदलाव को तेजी से लागू
करती है,ऐतिहासिक कल्पना इसका प्रतिरोध करती है। जब
समूहों या समुदायों के भीतर यह झुकाव मेल नहीं खाते हैं, तो संघर्ष और एक दूसरे के
विचारो की व्यापक (overall) प्रभावहीनता स्पष्ट हैं। अतः हम एक लोकतांत्रिक संविधान के शब्दों को आयात तो कर सकते हैं और कम समय में उचित कानून बना सकते हैं, लेकिन हम कानून का पालन करने वाले
नागरिक पैदा नही कर सकते । हम उद्यमों का निजीकरण कर सकते हैं, लेकिन एक ही दिन मे उद्यमशीलता को विकसित नहीं कर सकते।
अतीत और भविष्य की छाया के बिना वर्तमान हमेशा बेहतर हो सकता है। लेकिन अतीत
और भविष्य झुकाव वाले समाज या राष्ट्रों से हमे कोई छुटकारा नहीं है । हमे यह निर्धारित
करना होगा कि वर्तमान मे अतीत और
भविष्य की क्या भूमिका हो? वर्तमान, अतीत और भविष्य
के आधार पर अपना सुधार कर सकता है। अतीत (के वर्णन) को, भी वर्तमान और भविष्य की आवश्यकता के अनुसार संशोधित करना चाहिये । अंततः हमारा भविष्य भी, अतीत और वर्तमान
से निर्धारित है। वर्तमान में प्रत्येक का उचित मिश्रण
आवश्यक है, ताकि नागरिकों की समग्र
भलाई- आर्थिक, सामाजिक और
आध्यात्मिक- हो सके। एक भी पहलू (अतीत, वर्तमान और भविष्य) को दूसरे पर हावी नहीं होने देना चाहिए। दूसरे शब्दों में समाज के सर्वांगीण विकास के लिये चर्चा करते हुए, भविष्य को महत्व देते हुये इसे वर्तमान ( लोकतंत्र) में प्राप्त करने के
लिए यह पूर्वापेक्षा (prerequisite) है कि अतीत को आगे बढ़ने के लिए एक आधार (stepping stone) के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए न कि हमारे सिर पर एक बोझ के रूप में ।
हमारे मानस में अतीत का बहुत अधिक होना, Rear View Mirror देखते हुए कार को चलाने जैसा है और फिर हम दौड़ जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते।