अर्थशास्त्र हमारे जीवन का एक अतिमहत्वपूर्ण व अभिन्न अंग है। शब्द 'इकोनॉमिक्स' दो ग्रीक शब्दों से बना है, 'इको' अर्थात “घर” और 'नोमोस' अर्थात “खाता” है , जो घरेलू प्रबंधन को दर्शाता है। घर के व्यक्ति या उससे बने पूरे समाज और देश की असीमित जरूरतें और आकाक्षांये हैं और उन्हें संतुष्ट करने के लिए उपलब्ध संसाधन सीमित हैं। इसलिए अर्थशास्त्र में “व्यक्ति, समाज और देश द्वारा जरूरतों और आकाक्षांओ कि प्राथमिकताएं तय कर उपलब्ध संसाधनों
का प्रबंधन और आवंटन” किया जाता है। सही प्राथमिकताएं हमें समृद्ध बना
सकती हैं और गलत प्राथमिकताएं हमें कर्ज में डुबो सकती है।
अर्थशास्त्र का सिद्धांत है "मनुष्य तर्कसंगत(लाभ / हानि देखकर ) व्यवहार करता है
" पर वास्तव में लोग अपनी भावनांओ और पूर्वाग्रह के कारण गैर-आर्थिक तर्कहीन व्यवहार भी करते हैं। अर्थशास्त्र में भी प्रकृति की तरह, (संतुलन और निरंतरता को बनाए रखने के लिए,
प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि अगर हम ऑक्सीजन
लेते हैं और कार्बन-डाइऑक्साइड छोड़ते हैं तो पौधे कार्बन-डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं) दो विपरीत समूहों या क्रियाओं का अस्तित्व होना चाहिए/ होता है (बिक्री-खरीद,
निर्माता-उपभोक्ता, आयातक-निर्यातक आदि) । बचत (भविष्य के लिए) या
निर्यात (देशों द्वारा) जैसे कई गुण एक इकाई के लिए महत्वपूर्ण हैं पर यदि सभी व्यक्तियों / देशों द्वारा यह एक ही व्यवहार अपनाया जाता है,
तो वे अन्य समूह द्वारा निवेश (बचत का उपयोग) या आयात (निर्यात के विरुद्ध) जैसी विपरीत कार्रवाई के अभाव में अस्तित्व में ही
नही आ सकते । जैसे जब तक कोई ऋण लेने वाला न हो एक बेंक के लिये जमाराशि
का कोई मूल्य नही हैं।
“मांग-आपूर्ति” का सिद्धान्त, अर्थशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धान्त है। “आपूर्ति” का अर्थ है दी गई कीमत पर बाजार में बिक्री के लिये लाया गया माल, न कि
उत्पादक/व्यापारी के पास रखा स्टॉक। इसी तरह “मांग” दी गई कीमत पर खरीदने की क्षमता और इच्छा है, क्षमता न होते हुये केवल इच्छा (वह क्या पाने का सपना देखता है) और जरूरत (उसके पास क्या होना चाहिए) मांग नहीं है। कीमत कम होने पर मांग बढ़ती है और आपूर्ति कम होती है और कीमत
बढ़ने पर इसके विपरीत होता है।
उदाहरण के लिये मान लीजिए बाजार
में 50 रुपये प्रति किग्रा. पर 10 किलो प्याज उपलब्ध हैं और अगर उपभोक्ता इस दर पर 10 किलो प्याज लेने को तैयार है, तो पैसे और प्याज का पूरी तरह से आदान-प्रदान हो जायगा। पर अगर बाजार में 50 रुपये प्रति किग्रा. पर केवल 8 किलो प्याज उपलब्ध हैं तो
दाम 65 रुपये प्रति किग्रा. तक जा सकते हैं । दर कम करने के लिए या तो आपूर्ति में सुधार किया जाना चाहिए
या उपभोक्ता की आदत को इस तरह बदला जाना चाहिए कि मांग केवल 8 किलो की ही हो। जब बाजार में उपलब्ध भौतिक वस्तुओं में वृद्धि
के बिना उपलब्ध रुपया बढ़ता है तो
मुद्रास्फीति दर बढ़ जाती है। सरल शब्दों में, अर्थव्यवस्था में 4% मुद्रास्फीति का अर्थ है, एक वर्ष की अवधि में वस्तुओं की कीमतों में औसतन 4%
की वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति गिरने का मतलब
यह नहीं है कि कीमतें गिर रही हैं; इसका मतलब केवल
यह है कि वृद्धि की दर गिर रही है।
इसी प्रकार ब्याजदर {पैसे के समय मूल्य (Time
Value of Money) के रुप ऋणदाता द्वारा लिया जाने वाला रुपया} भी निर्धारीत होती है। यदि किसी व्यवसाय में 100/- रुपये लगाने पर वर्ष के अंत में मेरे पास रु. 115/- होने हैं तो मैं 10% प्रतिवर्ष ब्याज पर 100/- उधार लेकर व्यवसाय करुंगा। वर्ष के अंत में मुझे रु. 5 (रु. 100 और रु. 10 ब्याज ऋणदाता को वापस देना होगा) का लाभ होगा। उधार लेना या न लेना मेरा निर्णय है और मेरे लिए 10%
प्रतिवर्ष की दर से ब्याज दर निश्चित है। लेकिन
अगर पूरे देश में मेरे जैसे दस लोग हैं जो कुल 1000/- (10% ब्याज पर) रुपये की मांग कर रहे हैं, पर ऋणदाता के पास इस दर पर केवल 800 रुपये उपलब्ध है तो वह ब्याज दर को 12% प्रति वर्ष तक बढ़ाएगा, जहां केवल आठ
लोगों में 12% प्रति वर्ष पर उधार लेकर व्यवसाय करने का आत्मविश्वास होगा। इसके विपरीत यदि उपलब्ध धन रु. 1200/- है तो ब्याज दर गिरकर 8%
हो जाएगी, क्योंकि दो और लोग इस दर पर उधार लेने के लिए तैयार
हैं। वृहद स्तर पर ब्याज दर निश्चित नहीं होती और दर के ऊपर/नीचे
जाने का यह व्यापक प्रभाव मैक्रोइकॉनॉमिक घटना है।
उपरोक्त तर्क निवेशकर्ता के दृष्टिकोण से है, जिसके पास पैसा नहीं है और वह इसे कम दर पर चाहता है। लेकिन
ऋणदाता (बैंक) के पास भी अपना पैसा नहीं होता है, वह जनता का "जमा" पैसा है। अब अगर निवेशकर्ता की मांग पर
ब्याज दर 10% से घटाकर 8% कर दी जाती है, तो बैंक को जमाकर्ता को दी जाने वाली ब्याज दर को 8% से घटाकर 6% (स्व-व्यवसाय के लिए 2% का मार्जिन) करना होगा। इसके दो प्रभाव होंगे। पहला, लोग बैंक से जमा निकालकर अन्य संपत्तियों
में पैसा स्थानांतरित करने का प्रयास करेंगे और बेंक की पैसा उधार देने की क्षमता कम हो जाएगी । दूसरा, एक वर्ग जिसके लिये आय का स्रोत ब्याज है उनकी आय कम होने से उनका जीवन दयनीय
हो जायगा। इस प्रकार जो, एक वर्ग के लिए
अच्छा है वह दूसरे वर्ग के लिए अच्छा नहीं है। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। निवेशकर्ता -निर्माता माल बनाने-बेचने की उम्मीद
में उधार लेता है, लेकिन जमाकर्ता के हाथ में कम आय, उसकी बिक्री को भी प्रभावित करती है और कम ब्याज दरों पर भी उधार लेने की
उसकी इच्छा को कम करती है।
अर्थशास्त्र में निर्यात (देश से
बाहर जाने वाली वस्तुएँ और सेवाएँ) और आयात (देश में आने वाली वस्तुएँ और सेवाएँ) को भी “मांग-आपूर्ति” के आधार पर
समझाया जा सकता है। लेकिन, यहां निर्यात-आयात करने वाले देश की विभिन्न “मुद्राओं” और वस्तु और सेवाओं को देश के भीतर आने और बाहर जाने पर विभिन्न प्रतिबंध-नियम लगाने के लिए “संप्रभु देशों की
शक्ति” के कारण और अधिक जटिलता उत्पन्न होती है । जैसे, भले ही न्यूजीलैंड के निर्माता भारतीय उपभोक्ता को 25 रुपये प्रति लीटर दूध बेचने के लिए तैयार हैं, सरकार घरेलू उत्पादक की
रक्षा के लिए दूध के आयात की अनुमति नहीं दे रही है। उपभोक्ता को लाभ पहुंचाने के
बजाय उत्पादक की रक्षा करना एक राजनीतिक निर्णय है।
निर्यात-आयात व्यवसाय में, आयातक को आयात के लिए पहले निर्यातक
देश की मुद्रा खरीदनी होगी और निर्यातक को निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा को देश में बेचना होगा (विदेश में रुपये का और देश में विदेशी मुद्रा
कोई उपयोग नही है)। इस कारण से एक वस्तु के रुप
में “मुद्रा” के लिए अलग
बाजार है जहां एक मुद्रा की दर (अन्य मुद्रा के मुकाबले), मांग और आपूर्ति के आधार पर ही निर्धारित होती है। इस प्रकार
आयातित-निर्यातित वस्तु का मूल्य, वस्तु व मुद्रा (दोनो) की मांग और आपूर्ति के आधार पर निर्धारित होता है। अतः भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका का निर्यातक वस्तु ए को कीमत में बदलाव न करते हुये उसे एक डॉलर में ही बेच रहा हो, भारतीय आयातक के लिए इसकी कीमत 80 रु से बढ़कर 82 रु होगी यदि 1USD
= 80 से 82 रुपये का हो जाये।
क्या एक "ए" देश के लिए केवल निर्यात करना और कुछ भी आयात
न करना संभव है? सेद्धांतिक रुप से संभव हो लेकिन सभी देशों के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि गणितीय रूप से, दुनिया में कुल निर्यात दुनिया में कुल आयात के बराबर होना चाहिए। इसके अलावा, एक समाज की तरह दुनिया भी "लो और दो" सिद्धांत के आधार पर चलती है और इसलिए, अन्य देश भी ऐसी नीति अपना सकते हैं और देश "ए" के निर्यात को
प्रभावित या पंगु कर सकते हैं । आर्थिक रूप से
भी दो पहलू हैं। पहला, जब तक "ए" देश "बी" देश से कुछ आयात नहीं करता तो
देश "बी" के
पास भुगतान करने के लिए "ए" की मुद्रा नहीं होगी, और देश “ए” के पास देश “बी” की मुद्रा का कोई उपयोग नहीं होगा। दूसरा, प्रत्येक देश के पास कम से कम लागत पर कुछ प्रकार की वस्तुओं और
सेवाओं का उत्पादन करने के लिए "प्राकृतिक लाभ" होता है। स्वदेश में
उन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन संभव नहीं हो सकता है या (आयात से) उच्च लागत पर
संभव हो सकता है। आयात प्रतिस्थापन (Import Substitution) स्वाभिमान या सुरक्षा कारणों से अपरिहार्य हो सकता है
लेकिन आर्थिक रूप से हमेशा लाभदायक नहीं होता ।
हम पुनः व्यक्तिगत स्तर पर आते हैं, मान लीजिए कि हमारे पास 100 रुपये हैं, तो उन रुपयों से (देश की आर्थिक स्थिति देखते हुये) हम अपने बिल का भुगतान करे या नई खरीदी करे आदि, इन वैकल्पिक
निर्णयों के माध्यम से, हम वस्तुओं और सेवाओं की
कीमतों को, वे समाज में उत्पादित होंगी या नहीं आदि, और अन्ततः हम हमारे अपने व्यवसाय और नौकरी से क्या कमा सकते हैं इसको प्रभावित करते हैं, बदले में यह देश की आर्थिक स्थिति को तय करता है जो ब्याज दरों, मुद्रास्फीति, निर्यात-आयात आंकड़ो आदि द्वारा जाना जाता है। इस प्रकार एक तरफ व्यक्ति/इकाई, (Macro स्तर पर) उपलब्ध परिस्थितियों के
तहत आर्थिक निर्णय लेते हैं और इनका अध्ययन सूक्ष्म अर्थशास्त्र (Micro Economics) का हिस्सा है, जो अर्थव्यवस्था में मांग
और आपूर्ति के आधार पर वस्तु, सेवा व विदेशी मुद्रा का मूल्य स्तर निर्धारित करते हैं दूसरी ओर मैक्रो इकोनॉमिक्स (Macro Economics) व्यक्तियों के समग्र व्यवहार या नीतिगत परिवर्तनों का अध्ययन है जो इस तरह (सूक्ष्म स्तर) के व्यवहार को बदलने के लिए आवश्यक हैं और किए जाते हैं । उदाहरण के लिए, सरकार कॉर्पोरेट टैक्स को कम करने का निर्णय (Macro Economics) लेती है जो सभी उद्योगों को प्रभावित करता है। इसके तहत व्यक्तिगत
उद्योग अपने स्वयं के उत्पादन, बिक्री, लाभ आदि योजना के बारे में पुनः-निर्धारण (Micro
Economics) करते है।
इस तरह सूक्ष्म और स्थूल
अर्थशास्त्र परस्पर क्रिया करते हैं और एक
दुसरे को प्रभावित करते हैं । पर जो एक स्तर पर अच्छा है
वह दूसरे स्तर पर हानिकारक हो सकता है। मान लीजिये जमाकर्ता के रुप हम प्रसन्न है
कि मुद्रास्फीति कम है और ब्याज दर (हमे मिलने वाली
आय) इससे ऊपर है पर यह जमाकर्ता के साथ-साथ निर्माता की निर्णय लेने की
प्रक्रिया को भी प्रभावित करती है। उदाहरण के लिये मान लिजीये, किसी के पास 100/- रु हैं और बाजार में मुद्रास्फीति 5% तथा ब्याज दर 7% है। अब यदि उसको किसी 100/- रु कीमत की एक वस्तु की तत्काल आवश्यकता नहीं है तो वह एक वर्ष के लिए बैंक में पैसा जमा करेगा, इससे उसके पास वर्ष के अंत में 107/-
रुपये होंगे और फिर भी वह वर्ष के अंत में 105/- रुपये में वस्तु खरीद कर 2/- रुपये बचा लेगा। तो कम मुद्रास्फीति की स्थिति में आम तौर पर कार, मकान इत्यादि जैसी खरीद को बंद कर दिया जाता है। इसी प्रकार कोई भी निर्माता-व्यापारी बिना बिका स्टॉक, मूल्य वृद्धि के मामले
में बिना बिका स्टॉक से लाभ की तुलना में ब्याज (और भंडारण आदि) के रुप में अधिक लागत वहन करता है अतः निर्माता/व्यापारी भी संचालन के लिए आवश्यक से
अधिक कुछ भी उत्पादन या भंडारण नहीं करेंगे। इस प्रकार समग्र
आर्थिक गतिविधि धीमी हो जाती है। सूक्ष्म स्तर पर जो अच्छा शुरू होता है वह मैक्रो
स्तर पर बुरा हो जाता है।
सामान्यतः हम मुद्रास्फीति
को दोष देते हैं, लेकिन यह बाजार में असंतुलन पैदा कर देश (खासकर हमारे जैसे
विकासशील देश) को आगे बढ़ाता है । ए की कमी (मूल्य वृद्धि) ए के लिए आर्थिक गतिविधि को बढ़ता है जो बी की कमी पैदा करता है और इस तरह आर्थिक गतिविधीयां बढ़ती है। उदाहरण के लिए, कारों के लिए चौड़ी सड़कों की आवश्यकता होती है, बदले में चौड़ी सड़कें, सड़क पर अधिक कारों को लाती हैं। इस असुंतलन के अभाव में हम संतुलन के निम्न स्तर पर स्थिर हो सकते हैं, जहां किसी को भी अधिक उत्पादन और उपभोग करने के लिए प्रोत्साहन
नहीं है।
संक्षेप में जब हम राष्ट्रों
की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के घटकों का अध्ययन करते हुए मैक्रोइकॉनॉमिक्स के
बारे में बात करते हैं, तो हमें एकल परिवारों और उत्पादन इकाई की मांग-आपूर्ती को भी समझना होगा, जो कि सूक्ष्म आर्थिक
अवधारणाएं हैं पर इन्हें भी आर्थिक विकास, कर नीतियों आदि से उत्पन्न व्यापक आर्थिक प्रवृत्तियों के प्रभाव (मैक्रोइकॉनॉमिक्स) को जाने बिना जाना नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में इससे ऱाजनीति (किसको क्या मिलता है) प्रभावित होती है और
बदले ऱाजनीति (किसको क्या देना है) आर्थिक नीति को प्रभावित करती है अतः हमें
अर्थशास्त्र नही राजनैतिक अर्थशास्त्र (Political Economy) का गहरा अध्ययन करना चाहिये। इसी कारण से सरकार द्वारा बनाई
गई आर्थिक नीतियों का स्वंय पर होने वाले प्रभाव को समझें पर स्वंय के आर्थिक
उन्नति-अवनति के लिये सरकार को पूर्णतया दोष न दे।