गीता महाभारत का अंग है, पर इसकी रचना महाभारत के लिखे जाने के बाद हुई लगती है । जिसने भी गीता की रचना की वह संसार का एक सबसे बड़ा मनौनेज्ञानिक था । गीता में उस कवि ने मनुष्य मात्र के प्रतीक अर्जुन और परमात्मा के अवतार श्रीकृष्ण के संवाद के माध्यम से मनुष्य-जीवन के संबंध में गहनतम दृष्टि दी है । गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है, जो निकट संबंधियों के बीच लड़ा गया था । युद्ध प्रारंभ होने से ठीक पहले उस युद्ध के नायक अर्जुन के मन में न केवल प्रस्तुत युद्ध के विषय में अपितु मानव जीवन के अर्थ के विषय में भी कुछ गंभीर प्रश्न उठते हैं जिन्हें वह अपने मित्र, गुरु और सारथी श्रीकृष्ण के सम्मुख रखता है (अध्याय-1) । वस्तुतः अर्जुन के समान हम सब भी अपने आपको एक ऐसे संसार (परिस्थिति) में पाते हैं जिसे हमने नहीं बनाया है और अवश्य ही हमने अपने आपको भी नहीं बनाया है । हम सोचते हैं कि यह संसार हमारे लिए बनाया गया है और हमारे भोगने के लिए है । हम इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं । पर मनुष्य के पास कितना ही धन और ताकत क्यों न हो, वह उनके द्वारा स्थायी शांति और सुख कभी नहीं पा सकता । इसी तरह हर मनुष्य के जीवन में कोई-न-कोई छोटा-बड़ा द्वंद्व और उस द्वंद्व से उत्पन्न अन्य भाव भी आते रहते है । इनसे छुटकारा पाने का उपाय क्या है ?
भगवद् गीता भारतीय चिंतन के
सार-तत्व को समझ कर इन सबसे छुटकारा पाने का अच्छा स्रोत है । 2-2 पंक्तियों के कुल 700 श्लोकों की
इस छोटी-सी पुस्तिका ने पिछले 2,500 वर्षों में भारतीय मानस
को सबसे अधिक प्रभावित किया है । भारतीय परंपरा में धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान
को सदा ही समन्वित रूप में देखा और विचारा गया है, क्योंकि
इन सभी विषयों का वास्तविक केंद्र बिंदु मनुष्य का मन और उसके द्वारा रचा गया संसार
है । अतः गीता में जहां धर्मक्षेत्र के पारंपरिक
विषयों को लिया गया है, वहीं इस विश्व की रचना और उसमें मनुष्य की स्थिति से संबंधित
गंभीर दार्शनिक प्रश्न भी उठाए गए हैं । और क्योंकि ये प्रश्न सभी
मनुष्यों के लिए समान हैं इसलिए गीता का संदेश किसी विशेष समुदाय के लिए न होकर संपूर्ण
मनुष्य जाति के लिए है ।
दैनंदिन समस्याओं और मनुष्य के आचरण के बारे में गीता धार्मिक पुस्तकों और उपदेशकों के समान कोई उपदेश- सत्य बोले, चोरी न करे
इत्यादि- नहीं देती । वे उपदेश अच्छे हैं, पर प्रश्न यह
है कि मनुष्य उन पर आचरण क्यों नहीं कर पाता ? वास्तव में मनुष्य के स्वभाव व आचरण को बदलने की आशा हम तभी कर सकते
हैं, जब हम गहरे से गहरे स्तर पर उन शक्तियों को समझ लें, जो उसके जीवन का संचालन कर रही हैं । जैसे विज्ञान के क्षेत्र में एक चुम्बक के कार्य को समझने के
लिए हमें इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन आदि के बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर जाना होता है । (जो दिख रहा है, विज्ञान उसकी
व्याख्या उसके आधार पर करता है, जो दृष्टि के परे है ।) वैसे ही हमारे आंतरिक जीवन (आचरण) को समझने के लिए हमें उन सूक्ष्म
स्तरों पर जाना होगा, जो हमारे अंदर छिपे हुए हैं । अतः गीता जिस विषय पर सबसे अधिक
प्रकाश डालती है, वह है मनुष्य के मन का आंतरिक संसार और उसके विविध आयाम । हम क्या हैं? हमारे आंतरिक
जीवन की संरचना किस प्रकार की है और कौन-सी शक्तियां हमारे जीवन को
नियंत्रित करती हैं? हमारा मन कैसे काम
करता है? हमारा कर्तव्य क्या है? हम
अपना वैयक्तिक और सामाजिक जीवन कैसे बिताएं? हमारे दु:ख कैसे
दूर हो सकते हैं? हमें स्थायी शांति और सुख कैसे मिल सकता है?
हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? और हम उस
लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकते हैं? आदि-आदि।
जैसा कि विज्ञान में होता है, भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान मे भी प्रत्येक बात दोहराई और प्रयोग द्वारा उसकी पुष्टी की जा सकती है । अंतर केवल यह है कि यहां हमें
प्रयोग स्वयं अपने ऊपर करने होते हैं अतः हम जो कुछ गीता में पढ़ते हैं
उसे अपने जीवन में घटते हुए देखने का प्रयास करना चाहिए । आंतरिक अध्यात्म के क्षेत्र
में हमारा प्रत्यक्ष अनुभव ही वह एकमात्र साधन है, जो हमारी खोज के लिए निश्चित आधार दे
सकता है । किसी भी
बात को इसलिए ही स्वीकार नहीं करना चाहिए कि वह गीता में लिखी है । यह बात गीता की ही भावना के
प्रतिकूल होगी । वास्तव में हम गीता को समझ ही
तब सकते हैं, जब हम साथ-साथ अपने जीवन को भी सबसे गहरे स्तर पर समझने का
प्रयत्न करें ।
यह संभव है कि प्रारंभ में गीता
की कई बातें हमें समझ में न आएं (ऐसा
विज्ञान में भी होता है) लेकिन सच्चाई, धैर्य और परिश्रम से प्रयास करने पर हम
धीमे-धीमे सभी चीजों को वैसे ही स्पष्टता से समझने लगेंगे, जैसे
कि विज्ञान में होता है । अंतर केवल यह है कि गीता की बातों का संबंध आंतरिक जीवन से होने के कारण
उन्हें शब्दों में पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता । गीता के दर्शन को समझने के लिए
हमें एक विशेष अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है । आइए, जीवन को एक
प्रयोगशाला मानकर “निर्भिक, निश्चिंत, समाधानी” जीवन जीने के उद्येश्य से गीता मे कहे गय़े सिद्धान्तो को अपनाने
का प्रयास करें ।
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