क्या हम केवल उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव वाला चुम्बक बना सकते हैं ? निश्चित ही नही, उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव
के साथ-साथ चुम्बक मे दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव स्वतः बन जायेगें। इसी प्रकार, क्या
झुले या लोलक (Pendulum) के लिये यह सम्भव है की वह एक तरफ झुलने
पर वापस मध्य स्थिती मे आकर रुक जाय ? असम्भव, वे मध्य
स्थिती से गुजरकर, दुसरे छोर पर पहुंचेगें, और वापस पहले छोर पर आयेगें। इसी
प्रकार हम एक परिस्थिती (वे हमेशा बदलती रहती हैं) के कारण सुख
का आनन्द लेगें तो निश्चित मानिये अन्य (विपरीत) परिस्थिती में दुःख का भाव स्वतः आ जायगा । एक व्यक्ति
के प्रति हमें आकर्षण, ऱाग या प्रेम का भाव है तो निश्चित रूप से किसी अन्य के प्रति
विकर्षण, घृणा और द्वेष का भाव हो सकता है।
इसके साथ ही क्या हम कह सकते हैं, उत्तरी ध्रुव अच्छा है और दक्षिणी ध्रुव
बुरा ? नही न- इसी प्रकार कोई भी परिस्थिती
अच्छी या बुरी नही होती । परिस्थिती हमारी अपेक्षा अनुरुप हुई तो अच्छी, नही तो
बुरी। यदि विषय (परिस्थिती) में राग-द्वेष (अच्छी-बुरी) स्थित होते तो एक ही विषय (परिस्थिती) सभी को समान रूप से प्रिय अथवा
अप्रिय लगता (ती)। परन्तु ऐसा होता नहीं; जैसे--वर्षा किसान को तो प्रिय लगती है, पर कुम्हार को अप्रिय। फिर एक मनुष्य को भी कोई विषय
सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता; जैसे--ठंडी
हवा गरमी में अच्छी लगती है, पर सरदी में बुरी। इस
प्रकार सब विषय (परिस्थितीयां) अपने अनुकूलता या प्रतिकूलता के भाव (interpretation) से ही प्रिय अथवा
अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयों में अपना अनुकूल
या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। (अनुकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो प्रसन्नता आती है -यह उस परिस्थिति का राग करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो दुःख होता है खिन्नता होती है --यह उस परिस्थिति से द्वेष करना है।) इन्द्रिय, इन्द्रिय के अर्थ में (प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक
विषय में) मनुष्य के राग और द्वेष व्यवस्था से (अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर)
स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये ।।3.34।।
परिस्थिती का ज्ञान होना कोई बुराई नही है, बुराई है
उसके कारण मन मे हलचल (अच्छी या बुरी) होना है।इसी प्रकार किसी क्षण को अनुभव करने
में कोई समस्या नही हैं। समस्या तब होती जब मन में अच्छा क्षण बीत जाने पर दुःख
होता है या बुरा क्षण क्यों आया या जल्दी समाप्त हो जाय यह भाव आते हैं। पर स्थिर
बुद्धि के मनुष्य में सुखों की सम्भावना और उनकी प्राप्ति होने पर स्पृहा नहीं होती
-अर्थात् वर्तमान में अनुकूलताएँ आनेपर भी
उसके मन में 'यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे;
यह परिस्थिति सदा मिलती रहे--ऐसी इच्छा नहीं होती। वह उस क्षण का उपभोग
करता है पर उसके अन्तःकरण में अनुकूलता का कुछ भी असर नहीं होता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल-प्रतिकूल (परिस्थितीयां बदलती रहने से) अच्छे-मन्दे अवसर प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है। इन्द्रियों और विषयों के संयोग से
पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःख के ही कारण हैं।
अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता। ।।5.22।।
गीता भी प्राप्त होने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सम, निर्विकार रहने की बात बताती हैं।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा। इस प्रकार
युद्ध करने से तू पाप (दुःख) को
प्राप्त नहीं होगा। ।।2.38।। इस सम बुद्धि
की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका (स्थिर) बुद्धि एक ही
होती है। अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली ही होती हैं । ।।2.41।। दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों
की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह
मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहा जाता है। ।।2.56।। सब जगह
आसक्ति रहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभ को प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है
और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित (स्थिर) है।
।।2.57।।
पर हमारे मन में उपरोक्त द्वैत रहे तो क्या
समस्या है ? समय-समय पर
सामने आने वाली परिस्थितीयों और व्यक्तियों के अनुरुप हमारे मन में भाव तथा विचार
आयें या हम उन्हें व्यक्त करे तो क्या बुराई है ? आज हम
पाठशाला मे छुट्टी घोषित होनें पर खुश हों, कल परीक्षा के समय जी घबराये तो क्या समस्या
है ? ये सब तो जीवन की सामान्य प्रक्रियाएं हैं। समस्या है,
हमारे शरीर मे जो कुछ होता है, उससे या उसके कारण, शरीर में ऱासायनिक क्रियाएं
होती है या विद्युत-तरंगे बनती है। हमारा कोई भी विचार या भावना यह निश्चित करती हैं कि शरीर मे कौनसे
रसायन बनेगें या किस तीव्रता कि विद्युत-तरंगे बनेगी आदि। इनका सीधा प्रभाव हमारे स्वास्थ
और कार्य क्षमता पर पड़ता है। आज चिकित्सा विज्ञान भी मानता है शरीर कि नब्बे
प्रतिशत बीमारियों के लिये मानसिक अवस्था (विचार -भावना) जिम्मेदार हैं।
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