COVID-19 के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए अपनाई गई नीतियों के कारण भारत में स्कूल लगभग डेढ़ साल से बंद थें और छात्र ऑनलाइन पढ़ाई करने लगे थे। भारत में अब कोविड लगभग नियंत्रण में है और हम सभी क्षेत्रो में कार्यकलाप शुरू कर रहे हैं, ज्यादातर स्कूल भी फिर से खुल गए हैं और छात्र स्कूल लौट रहे हैं । मगर दुर्भाग्य से समाज और अभिभावक शिक्षा क्षेत्र, जो हमारे भविष्य की नीवं है (और वैज्ञानिको के अनुसार भी बच्चो को संक्रमण का खतरा सबसे कम है) को खोलने के निर्णय से ड़र रहे हैं। आश्चर्य जनक रूप से वे (सिर्फ इसी क्षेत्र के बारे में) सवाल पूछ रहे हैं कि अगर ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा है तो छात्रों को स्कूल क्यों भेजें? या "ऑनलाइन के युग में वास्तव में स्कूलों की आवश्यकता है क्या?"
यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि स्कूली बच्चों (18 वर्ष से कम आयु के कारण) को अभी तक कोविड का टीका नहीं लगाया गया है, और खबरों से यह भी पता चलता है कि शुरू किए गए कई स्कूलों में कोविड संक्रमण फैल गया है और स्कूलों को फिर से बंद किया गया है। इस पृष्ठभूमि में, हम दो संदर्भों में " स्कूल की आवश्यकता क्यों है" की जांच करेंगे। एक, ऑनलाइन कक्षा में सभी छात्र शत-प्रतिशत शिक्षा (पाठ्यक्रम) को पूरा नहीं कर पाते हैं। दो, ऑनलाइन कक्षा में, भले ही छात्रों की शिक्षा (पाठ्यक्रम) शत-प्रतिशत पूरी हो, पर सम्पूर्ण शिक्षा पूरी नहीं होती है या यह संभव नहीं है। दूसरे शब्दों में, एक छात्र के "जीवन विकास" में शिक्षकों और स्कूल की भूमिका को समझना महत्वपूर्ण है।
संदर्भ 1 - ऑनलाइन शिक्षा के लिए महंगे कंप्यूटर, स्मार्टफोन और इंटरनेट की आवश्यकता होती है। भारत में गरीबी के कारण अधिकतर लोगों के पास ये सभी मूलभूत सुविधाएं न होने से, ऑनलाइन शिक्षा बहुत लोकप्रिय नही रही है। पर पिछले 5-6 वर्षों में, सरकार के डिजिटल इंडिया कार्यक्रम और सस्ते हुए मोबाइल और इंटरनेट से ये सुविधाएं धीरे-धीरे भारत में आम आदमी तक पहुंच रही हैं, और शिक्षा के डिजिटलीकरण को 2022 तक पूरा करने की योजना थी। हालांकि, दिसंबर 2019 में फैले कोरोना वायरस ने 2020 में दुनिया भर में लॉकडाउन कर दिया। परिणामस्वरूप, शेष विश्व की तरह भारत में भी इन स्कूली बच्चों को अपेक्षा से पहले ऑनलाइन शिक्षा का सामना करना पड़ा।
मार्च-अप्रैल 2020 तक, भारत के सभी निजी और कुछ सरकारी स्कूलों ने ऑनलाइन शिक्षा शुरू कर दी। यह सच है कि कोविड 19 ने भारत में ऑनलाइन शिक्षा की शुरुआत की, लेकिन ऑनलाइन शिक्षा कितनी सार्थक है - यह बहस का विषय है। दरअसल, ऑनलाइन शिक्षा में इतनी कमियां हैं कि वह (खासकर भारत में) शत-प्रतिशत सफल नहीं हो सकती । सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, गरीबी रेखा से नीचे के लोगों में ऑनलाइन शिक्षा के लिए आवश्यक स्मार्ट फोन, कंप्यूटर और इन्टरनेट का खर्च उठाने का सामर्थ्य नहीं है । फिर दूरदराज के क्षेत्रों में इंटरनेट की कमी एक गंभीर समस्या है और ऐसी जगहों के बच्चे अन्य बच्चों से पीछे रह जाते हैं। पर जिनके पास सभी सुविधाएं हैं, उन्हें भी ऑनलाइन क्लासरूम के कारण कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ता है - बार-बार बिजली गुल होना, क्लासरूम से सपंर्क टूटना, घर में शांतिपूर्ण माहौल न बनना; कहीं किचन में खाना बनाते वक्त प्रेशर कुकर की सीटी की आवाज आती है तो कहीं संयुक्त परिवार के बच्चों के रोने की आवाज आती है।
इसके अलावा शिक्षकों की भी समस्या है। औसत शिक्षक के पास वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऐप के लिए एक बुनियादी योजना (Basic Plan) है, जिसमें केवल 40 मिनट का मुफ्त मीटिंग समय उपलब्ध है। मीटिंग 40 मिनट के बाद अपने आप समाप्त हो जाती है, और शिक्षक को एक नई मीटिंग आईडी और पासवर्ड बनाना होता है, जबकि बच्चों को फिर से लॉग इन करना होता है। इस के अलावा, शिक्षक केवल पहले 20 बच्चों को ही स्क्रीन पर देख सकता है और इस कारण से वे केवल पहले बीस छात्र पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर पाते हैं और बाकी बच्चों की उपेक्षा होती है। ऐसे बच्चे पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते हैं, वे बात करने, गाने सुनने या ऑनलाइन गेम खेलने में मशगूल रहते हैं। एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि पिछले डेढ़ साल में अधिकांश बच्चे नया पाठ्यक्रम तो सीख ही नही पाये पर इसके साथ ही वे यह भी भूल गए हैं कि उन्होंने स्कूल में पहले क्या सीखा था। अब इनसे सभी पाठ्यक्रम का रिवीजन करवाना जरुरी है।
दूसरा संदर्भ यह है कि यदि ऑनलाइन सीखने की उपरोक्त सभी कठिनाइयों को दूर कर भी ली जाये तो भी इस शिक्षण पद्धति में शिक्षक और छात्र एक दूसरे से (व्यक्तिगत रूप से) नहीं मिलते हैं। लेकिन चूंकि मनुष्य इस दुनिया में एक सामाजिक प्राणी के रूप में पैदा हुआ है, इसलिए उसे पाठ्यक्रम के अलावा जीने की कला और दूसरी बुनियादी समस्याओं का सामना करने के लिए भी तैयार होना होता है-घनिष्ठ संबंध बनाना, समूहों में स्थिति बनाए रखना, मित्र खोजना और बातचीत के आधार पर समूह बनाना इसके विकास के लिए सभी सामान्य गतिविधियाँ हैं। कोविड 19 के दिनों में और खासकर स्कूलों के बंद होने से यह सब चुनौतीपूर्ण और असंभव हो गया है। इस स्थिति का विवरण और परिणाम (स्कूल न होंने से) हम कुछ समय पहले यानि (कोविड के कारण) एक साल पहले क्या स्थिति थी और उस समय छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों ने क्या अनुभव किया और अब शिक्षक / स्कूल को छात्रों पर हुये सामाजिक और मानसिक तनाव को कम करने के लिए क्या करना चाहिये यह देखें।
कई को रद्द परीक्षाओं (यहां तक कि डिग्री और नौकरी तक), खेल प्रतियोगिताओं आदि का सामना करना पड़ा है। इन सभी बदली हुई परिस्थितियों के प्रति छात्रों की "स्वाभाविक मानसिक" प्रतिक्रिया, “चिंता और बेचैनी” पैदा करने की थी। लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और चिंता की बात यह थी कि सीमित सामाजिक संपर्क के कारण छात्रों में प्रतिकूल व्यवहारिक और मानसिक परिवर्तन हुए ।यह सब वैश्विक महामारी के परिणामस्वरूप उनकी शिक्षा और विकास में परिलक्षित होता है। इसे नज़रअंदाज करते हुए हमने (स्कूलों और अभिभावकों ने) अपने प्रयासों को केवल पाठ्यक्रम पूरा करने पर केंद्रित किये और सरकार ने भी केवल "शारीरिक स्वास्थ्य की सुरक्षा और वित्तीय संकट में कमी" पर नीतिगत दिशा निर्धारित कीये। हम भूल गए हैं कि वयस्क तो अतिरिक्त काम करके आर्थिक नुकसान की भरपाई कर सकते हैं, लेकिन अगर छात्रों की मानसिक ऊर्जा समाप्त हो जाती है, तो उसके प्रतिकूल प्रभाव और नुकसान शारीरिक और वित्तीय परिणामों की तुलना में अधिक गंभीर होंगे और लंबे समय तक (देश) की आर्थिक प्रगति को भी प्रभावित करेंगे। ।
जैसा कि ऊपर लिखा है, एक बहुत ही महत्वपूर्ण, अनदेखी समस्या -छोटे बच्चों और किशोरों पर कोविड -19 के प्रकोप का मनोवैज्ञानिक प्रभाव है। बचपन में पर्यावरणीय कारकों के माध्यम से सीखे गए अनुभव आजीवन व्यवहार और सफलता के लिए बुनियादी सिद्धांत बनाते हैं। COVID-19 जैसी गंभीर महामारी के समय में, स्कूल, पार्क और खेल के मैदानों को बंद करने जैसी समुदाय आधारित गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने से बच्चों का दैनिक जीवन बाधित हो गया और उनका संकट और भ्रम बढ़ गया। अकेलापन, हताशा, सहपाठियों, दोस्तों और शिक्षकों के साथ आमने-सामने संपर्क की कमी, घर में पर्याप्त व्यक्तिगत स्थान की कमी, शारीरिक गतिविधि और सामाजिक गतिविधियों से वंचित परिस्थिती ने सभी बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला हैं। इस कारण से मानसिक रूप से मंद युवाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। संक्रमण से “अधिक खतरें” के कारण से बच्चों की जोखिम लेने (Risk taking capacity) की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कोरोना वायरस का खतरा जितना अधिक समय तक मन में बना रहेगा, बच्चे के व्यक्तित्व में ये परिवर्तन उतने ही स्थायी होंगे। अब इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि शारीरिक दूरी के इस युग में भी सामाजिक समर्थन और रिश्तों को तलाशना और देना महत्वपूर्ण है।
कोविड -19 को लेकर तेजी से बढ़ रहे उन्माद और दहशत ने छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दिया है, जो लंबे समय में वायरस से भी ज्यादा घातक हो सकता है। अगर कोविड 19 के कारण वे (भविष्य के नागरिक) उद्यमशीलता या जोखिम लेने की क्षमता खो देते हैं, तो हम भविष्य में कभी भी आर्थिक रूप से प्रगति नहीं कर पाएंगे। कोविड-19 का भय, जिसे "कोरोना-फोबिया" के रूप में भी जाना जाता है, संक्रमण आदि के खतरे के कारण होता है। इसने लोगों में नकारात्मक मानसिक प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं। (इस डर से ही इस निबंध का विषय भी दिमाग में आया है, इसलिए इस मुद्दे पर विस्तार से लिखा है।) लेकिन उससे भी ज्यादा मानसिक पीड़ा, सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही व्यापक (गलत) जानकारी ने दी है। डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ने इसे "कोरोना वायरस इन्फोडेमिक" भी कहा है। सोशल मीडिया ने चौंकाने वाली अफवाहें, ब्रेकिंग न्यूज और सनसनी फैलाकर अपरिपक्व मन में भय और दहशत पैदा कर दी है। सोशल मीडिया पर परस्पर विरोधी और गलत सूचनाओं की बाढ़ को वैश्विक सार्वजनिक-स्वास्थ्य खतरे के रूप में पहचाना जाना चाहिए और इसे दूर करने के लिए ईमानदार और पारदर्शी सूचना की योजना बनाई जानी चाहिए ताकि छात्र अविश्वसनीय वैकल्पिक स्रोतों से जानकारी न लें। इस स्थिति में स्कूल शुरू करना चाहिए और शिक्षकों को स्वस्थ नागरिक विकसित करने के लिए छात्रों को सभी झूठी सूचनाओं और फर्जी खबरों से निबटना सिखाना चाहिए। सच तो यह है कि कोविड 19 के टीके के साथ-साथ हमें "दिमाग/विचार वैक्सीनेशन" प्रोग्राम को भी अपनाना होगा।
स्कूलों / शिक्षकों को छात्रों का डर दूर करने के लिए, बताना चाहिए कि आंकड़े बताते हैं कि परीक्षण किए गए लोगों में से केवल 5 से 10% में ही कोविड़ की सकारात्मक रिपोर्ट आती है और उनमें से केवल 2.8% (भारत में) को विशेष उपचार की आवश्यकता होती है (उनमें से आधे 60 वर्ष से अधिक आयु के रहते हैं)। । कोविड 19 ने अब तक भारत में अनुमानित 465,000 लोगों की जान ले ली है; उनमें से कई को सह-रुग्णता थी, कुछ की जीवनशैली अस्वस्थ थी और कुछ को स्वच्छ वातावरण (हवा, पानी, धुप) उपलब्ध नही था, लेकिन 140 करोड़ लोगों का राष्ट्र भय और चिंताओं से बंदी बना लिया गया है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह उन छोटे बच्चों के लिए विशेष रूप से सच है जिनके पास अपने जीवन में एक महत्वपूर्ण चरण में बढ़ने और सीखने के लिए सही वातावरण नहीं है। इस सबका, अगर प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया, तो हमारे बच्चों (और राष्ट्र) के व्यक्तित्व पर आने वाले लंबे समय तक कोरोना महामारी का असर बना रहेगा। एक उचित व्यक्तित्व विकसित करने के लिए, "सामाजिक दूरी" को "शारीरिक दूरी" के रूप में कहा और समझा जाना चाहिए। छात्रों को डरने के बजाय सतर्क रहने की सलाह दी जानी चाहिए।
कोरोना वायरस से संबंधित व्यवधान ने शिक्षा क्षेत्र पर पुनर्विचार करने का अवसर दिया है। यह सच है कि प्रौद्योगिकी ने एक कदम आगे बढ़ाया है और आने वाली पीढ़ियों को शिक्षित करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेगी और इसीलिए स्कूलों और शिक्षकों की भूमिका भी बदल रही है। हम सभी को पुनर्विचार करना चाहिए कि हम कैसे पढ़ाते हैं, हमें क्या पढ़ाना चाहिए और हमें अपने छात्रों को भविष्य के लिये तैयार करने के लिए क्या करना चाहिए। ऐसे बदलाव होना चाहिए जिससे स्कूल, समावेशी, लचीले नागरिक बनाने के लिए नींव का काम करें । भविष्य का स्कूल छात्रों को दीवारों (कक्षा) से परे सीखने में सक्षम बनाएगा। छात्रों को लचीला, सहयोगात्मक तरीके से, अपनी गति से सीखने में सक्षम बनाना चाहिए। आज शिक्षण संस्थानों में अधिकांश छात्र जनरेशन Z से हैं । यह एक ऐसी पीढ़ी है, जो वास्तव में वैश्वीकृत दुनिया में पली-बढ़ी है। इस पीढ़ी को प्रौद्योगिकी द्वारा परिभाषित किया गया है। यह पीढ़ी ऐप्स के माध्यम से तत्काल संवाद और प्रतिक्रिया (पसंद, टिप्पणी) की अपेक्षा करती है। इस प्रकार, "आधुनिक शिक्षा को कक्षा तक सीमित नहीं किया जा सकता है, हालांकि, “ईंट और गारे” के स्कूल भविष्य में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे। इस कठिन समय में छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिए शिक्षकों के लिए उनके साथ रहना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
कोविड 19 के कारण उत्पन्न अभूतपूर्व स्थिति से निपटने के लिए छात्र को एक मजबूत भावनात्मक घटक विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। छात्रों को अपने शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए योग का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उन्हें पर्यावरण को स्वच्छ रखने के महत्व और इसके लाभों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है। छात्रों को सोशल मीडिया का सदुपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इस प्रकार, स्कूलों और शिक्षकों को यह महसूस करना चाहिए कि "विवेकशील नागरिकों का एक जिम्मेदार वर्ग बनाना" उनका कर्तव्य है ।छात्र जब फिर से मिलते हैं तो उनकी सभी गलतफहमियों और आशंकाओं को दूर करके शिक्षक उनमें विश्वास पैदा करें, और उन्हें इसके लिए अतिरिक्त मेहनत करनी चाहिए।
कोविड़ -19 महामारी ने हमें स्पष्ट रूप से दिखाया है कि कैसे "वायरस" 21 वीं सदी में भी हमारे जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, इसने हमें एहसास कराया है कि पर्यावरण, स्वास्थ्य, शांति, प्रेम, एकता, रचनात्मकता और ज्ञान हमारी सबसे बड़ी संपत्ति है। हम आशा करते हैं कि पीढ़ी Z और आने वाली पीढ़ियों के लिए, "अपने साथियों, शिक्षकों और कक्षाओं से दूर अकेलेपन और दूरस्थ शिक्षा" के ये अनुभव मानव जाति की आवश्यकता के एक ज्वलंत अनुस्मारक(Reminder) के रूप में काम करेंगे।
उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए और यह देखते हुए कि एक स्कूल की उपयोगिता पाठ्यक्रम को पूरा करने से परे है, छात्रों की जरूरतों और देश के भविष्य को देखते हुये स्कूल शुरू करने और बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता के रूप में माना जाना चाहिए। "सबसे अच्छी संस्थाये जो अधिकांश युवाओं को प्रेरित करती हैं, वे हैं, “स्कूल और शिक्षक।" और इनका कोई विकल्प नहीं है।
अंत में, किसान (शिक्षक) ने दो बीज (छात्र) बोए- उन बीजों में से एक, जब भी जमीन से ऊपर आने की कोशिश करता, तो वह बाहर की धूप, हवा और बारिश के डर से जमीन के अन्दर लौट जाता है और अंत में एक दिन मुर्गी, मिट्टी को कुरेद कर उस बीज को खा जाती है। लेकिन दूसरा बीज धूप, हवा और बारिश से डरे बगैर जमीन के बाहर आता है और कुछ दिनों (और वर्षों) के बाद पेड़ बन जाता है। चुनाव हमारा है, हम युवा मन में किस तरह के बीज उगाना चाहते हैं।
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