जहाँ अधिकांश धार्मिक ग्रंथ, मनुष्य को स्वयं के उत्थान के लिये, संसार से विमुख होकर कठोर व्रत, तपस्या आदि करने की सलाह देते हैं, गीता किसी भी प्रकार के अतिवाद(Extreme way of life) का समर्थन न करते हुये जीवन जीने का लिये मध्य मार्ग को उपयुक्त बताती है। यदि क्रिया/भोग को करते हुये मनुष्य का मन स्थिर है या उसमे कोई इच्छा या विकार उत्पन्न नही होता तो संसार की कोई भी क्रिया या भोग वर्ज्य नही है। इसके विपरीत कोई क्रिया या भोग न करते हुये भी यदि उसका चिन्तन या इच्छा हो रही है तो वह ढ़ोंग है और मनुष्य के पतन का कारण होगा ।।2.59-60।। ।
यह योग न तो अधिक खानेवाले का और
न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोने वाले का और न बिलकुल न सोने वाले का ही सिद्ध होता है। ।।6.16।। दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार और
विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा यथा योग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है।।।6.17।। भोजन सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए
धन का हो, सात्त्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वादबुद्धि
और पुष्टिबुद्धि से न
किया जाये, प्रत्युत
साधनबुद्धि से
किया जाये। भोजन
धर्मशास्त्र और आयुर्वेद की
दृष्टि से किया जाये तथा उतना ही किया जाये, जितना सुगमता से पच सके। भोजन शरीर के अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी
मात्रा में (खुराक से थोड़ा कम) हो । विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा
घूमना फिरना न हो
प्रत्युत स्वास्थ्य के
लिये जैसा हितकर हो उतना ही हो। व्यायाम, योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रा में किये जायें और न उनका अभाव ही हो। अपने वर्ण-आश्रम के अनुकूल जैसा देश, काल, परिस्थिति आदि प्राप्त हो जाये ( सभी के लिये एक नियम नही
हो सकते), उसके
अनुसार शरीर-निर्वाह के
लिये कर्म किये जायें और
अपनी शक्ति के अनुसार
कुटुम्बियों की एवं
समाज की हितबुद्धि से सेवा की जाये तथा परिस्थिति के
अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाये; उसको बड़ी प्रसन्नतापूर्वक किया जाये । सोना इतनी मात्रा में हो, जिससे जगने के समय निद्रा-आलस्य न सताये। तात्पर्य है कि जिस
सोने और जागने से
स्वास्थ्य में बाधा न
पड़े, योग में विघ्न न आये, ऐसे यथोचित सोना और जागना चाहिये।
जिस तरह कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्म योगी इन्द्रियों (नाक, कान,
आँख, जीभ, त्वचा) के विषयों (सुंघना, सुनना, देखना,
स्वादलेना, स्पर्श) से इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि
प्रतिष्ठित हो जाती है। 2.58।। जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अङ्ग दीखते हैं--चार
पैर, एक पूँछ और एक
मस्तक। परन्तु जब वह अपने अङ्गों को छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है।
ऐसे ही स्थितप्रज्ञ (स्थिरबुद्धि वाला) पाँच इन्द्रियाँ और एक मन--इन छहों को
अपने-अपने विषय से हटा लेता है। वह मन से भी विषयों का चिन्तन नहीं करता।
वशीभूत अन्तःकरण वाला कर्मयोगी
साधक रागद्वेष से रहित अपने
वश में की हुई
इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ
अन्तःकरण की निर्मलता को
प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है ।।2.64 -- 2.65।। जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल
चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में
आकर मिलता है, पर
समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण
भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते
हैं, वही
मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं। ।।2.70।। इन्द्रियों से किसी विषय का ग्रहण रागपूर्वक न हो और न त्याग द्वेषपूर्वक हो। इन्द्रियों से विषयों का सेवन (व्यवहार) तो करे पर विषयों का भोग न करे। भोगबुद्धि से किया हुआ विषय-सेवन ही पतन का कारण होता है। राग होने से ही चित्त में खिन्नता होती है, खिन्नता से कामना पैदा हो जाती है जिससे ही सब दुःख पैदा होते हैं। पर राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों से विषयों का (संग रहित) सेवन करने से प्रसन्नता होती है। मन में राग और
द्वेष न होने पर कर्मों के अनुसार सामने दुःखदायी घटना,
परिस्थिति आ सकती है; परन्तु अन्तःकरण में दुःख, सन्ताप, हलचल आदि विकृति नहीं होगी। सब तरफ से परिपूर्ण महान् जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे गड्ढों में भरे जल
में मनुष्य का कुछ भी
प्रयोजन नहीं रहता। ।।2.46।। महान्
सरोवर के
मिलने पर
उसमें सब कुछ करने पर भी उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है। इसी प्रकार ज्ञानी महात्मा समुद्र की तरह
गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायें पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा
नहीं कर सकते। कोई
वस्तु मिल जाये और मिली हुई
वस्तु की रक्षा होती
रहे यह भाव नही होता। वास्तव में भाव ही उत्थान अथवा पतन करते हैं, अतः संसार की प्रिय-से-प्रिय वस्तु मिलने पर भी
प्रसन्न न हो और अप्रिय-से-अप्रिय वस्तु मिलने पर भी उद्विग्न न हो।
जिनके मन में भोग-पदार्थों की कामना है, उनको कितने ही सांसारिक भोग पदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती;
उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते और उनको शान्ति नही मिल सकती। उनको निश्चित रुप से दुःख प्राप्त होगा ।
छोटे शब्दो मे अति सवऀत वजऀयेत जहां तक योग साधना का पश्न है वह एक हजार मेसे एक ही आदमी निकलेगा संसार मे रहकर भी जो अपने कतऀव्य पूरा करके संयम से रहता वह भी योगी कहलाता जैसे चिकू (फल) बीज उसके अंदर रहता है पर उसमे लपेटा नही जाता स्वच्छ रहता है ।श्रीमती संगीता सुपेकर
ReplyDeleteबहुत बढ़िया है ।कमेंट्स ब्लाक में लिखा था पर रजिस्टर् नहीं होता तर्कपू्र्ण भाषा,सहज,सुलभ ।कछुए का उदाहरण सुंदर है और “सेवन एवं भोग “का अंतर सटीक है ।बहुत अच्छा लगा । Kishori Tai Dange
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