गीता में जो “समानता”
का सन्देश है वो (जैसा कि मान लिया
गया है,) सबके साथ समान “व्यवहार” करने का नहीं, पर सबको समान “देखने/मानने” का है। यह सन्देश “समदर्शी”
होने का है, “समवर्ती” होने का नहीं। “समवर्ती” (समान बर्ताव करने वाला) जैसा की “यमराज” है । व्यवहार में समता की “व्यवस्था” तो समाज का पतन
करने वाली
है/होगी।
जिसका
अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूट की तरह
निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में समबुद्धि वाला है -- ऐसा योगी, युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है । ।।6.8।। (कूट (अहरन) एक
लौह-पिण्ड होता है, जिस पर धातुयें अनेक रूपों में गढ़े जाते हैं,
पर वह एकरूप ही रहता है।) ज्ञानी पुरुष के लिये जैसे पत्थर है,
वैसे ही सोना है, जैसे सोना है वैसे ही ढेला है । स्वर्ण
आदि प्राकृत पदार्थों का मूल्य तो प्रकृति के साथ हमारा सम्बन्ध रखते हुए ही प्रतीत होता है। ज्ञानीपुरुष को वास्तविक बोध हो जाने पर (जब प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब) उसके अन्तःकरण में इन प्राकृत (भौतिक)
पदार्थों का
कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता । उसकी
दृष्टि मे सभी पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले स्वभाव के ही
हैं उनमे तत्त्वः कोई फर्क नहीं हैं। उसका
मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण
(द्वेष) होता है। अतः इनके आने-जाने
या बिगड़ने से उसके अन्तःकरण में कोई विकार पैदा नहीं होता, प्राप्ति-अप्राप्ति में हर्ष-शोक नहीं होता, इनके आने से धनवान या जाने से वह स्वंय को अमीर या गरीब
होना नही मानता। परन्तु व्यवहार में वह ढेले को ढेले की जगह रखता है, स्वर्ण को स्वर्ण की जगह (तिजोरी आदि में) रखता है। ढेले, पत्थर
और स्वर्ण का
ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनों का ज्ञान होते हुए भी इनमें राग-द्वेष न हों।
सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण
करने वालों
में और पाप-आचरण करने वालों
में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है। ।।6.9।।( 'सुहृद्'- बिना किसी कारण के सबका हित चाहने और करने वाला । मित्र- उपकार के बदले उपकार करने वाला ।'अरि/वैरी'- बिना कारण दूसरों का अहित करने वाला।
'द्वेष्य'- कारण विशेष को लेकर दूसरों का अहित करने वाला। 'उदासीन'
- दो
आपस में
वाद-विवाद कर रहे हैं, उनके बीच तटस्थ रहने वाला । परन्तु उन दोनों की लड़ाई मिट जाये और दोनों का हित हो जाये--ऐसी चेष्टा करने वाला 'मध्यस्थ' कहलाता है।) वास्तव मे श्रेष्ठ मनुष्य की दृष्टि मे उसका कोई-'सुहृद्', मित्र,
'अरि/वैरी', 'द्वेष्य', 'उदासीन' या 'मध्यस्थ' नही होता परन्तु श्रेष्ठ मनुष्य के द्वारा, अन्य
मनुष्य के साथ व्यवहार के कारण जो मनुष्य, उन्हे अपना 'सुहृद्', मित्र,
'अरि/वैरी', 'द्वेष्य', 'उदासीन' या 'मध्यस्थ' आदि मान लेते हैं, उनके साथ भी श्रेष्ठ
मनुष्य समबुद्धि रखता है।
ज्ञानी
महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं । ।।5.18।। जैसे हम अपने शरीर के सब अंगो के साथ व्यवहार में भेद रखते हैं (किसी को पैर लग जाय तो
क्षमायाचना करते हैं पर किसी को हाथ लग जाय तो क्षमायाचना नहीं करते। गुदा से हाथ लगने पर हाथ धोते हैं हाथ से हाथ लगने पर नहीं ) पर किसी भी अंग के प्रति हमारी आत्मीयता में भेद नहीं होता,
पीड़ित अंग की उपेक्षा नहीं होती,
सभी अंगो
के सुख-दुःख में हमारा एक ही भाव रहता है । वैसे ही ज्ञानी
महापुरुषों के
द्वारा
प्राणियों में
खानपान,
गुण,
आचरण,
आदि का
भेद होने से
उनके साथ व्यवहार में
भेद होता है । ब्राह्मण
और चाण्डाल में
तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में व्यवहार की विषमता अनिवार्य है। जैसे पूजन विद्या विनययुक्त ब्राह्मण का ही हो सकता है न कि
चाण्डाल का, सवारी हाथी की ही हो सकती है न कि
कुत्ते की। फिर भी महापुरुषों की दृष्टि तत्त्वतः सब में एक ही स्थित परमात्मतत्त्व पर रहती है और
उनकी दृष्टि में भेद नहीं होता। उन प्राणियों के प्रति महापुरुष की आत्मीयता प्रेम हित
दया आदि के
भाव में
कभी फर्क
नहीं पड़ता,
दूसरे प्राणी का
दुःख दूर करने की
और उसे सुख पहुँचाने की चेष्टा भी उनके द्वारा स्वाभाविक होती है।
पुनः--जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है जो
प्रिय-अप्रिय में तथा अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो
मान-अपमान में
तथा मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।।।14.24-25।। कोई निन्दा करे तो उसके चित्त में खिन्नता नहीं होती और कोई
स्तुति करे तो उसके चित्त में प्रसन्नता नहीं होती। निन्दा करने वालों के प्रति उसे द्वेष नहीं होता और
स्तुति करने वालों के प्रति उसे राग नहीं होता। निन्दा-स्तुति का ज्ञान तो
होता है पर
वे बर्ताव सब के
साथ यथोचित ही करते हैं
।
गीता सम
देखने ( संस्कृत-पश्य) या
समबुद्धि की ही बात कहती है जैसे समबुद्धिर्विशिष्यते (6।
9) सर्वत्र समदर्शनः (6। 29) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति (6।
32) सर्वत्र समबुद्धयः (12। 4) समं सर्वेषु भूतेषु ৷৷. यः पश्यति स पश्यति (13। 27) और समं पश्यन् हि सर्वत्र (13। 28)। श्रीशङ्कराचार्य जी
महाराज भी
कहते हैं भावाद्वैतं सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कुत्रचित्। भाव में ही सदा अद्वैत होना चाहिये क्रिया
(व्यवहार) में कहीं नहीं।
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