उपरोक्त गुणो के कारण लेजर, जो परीक्षण के दौरान ही एक रेजर के ब्लेड में भी छेद बना सकी थी, एक ऐसी तकनीक के रूप में विकसित हुई है, जिसके सहारे आधुनिक जगत में इसका प्रयोग हर जगह मिलता है,जैसे- आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में दंत चिकित्सा और आंख के व अन्य शारीरिक ऑपरेशन । वास्तव में लेजर कुछ नया न होकर एक संयमित प्रकाश ही है, पर प्रकाश से सर्वथा अलग गुण प्रदर्शित करता है ।
इसी प्रकार हम मन को संयमित कर लें तो जीवन और समाज मे
अदभुत परिवर्तन ला सकते हैं ।
संयम का अर्थ है मन की
बिखरी शक्ति को एक निश्चित दिशा देना, सचेत रहना कि इसमें
क्या घट रहा है , इसको किसी एक लक्ष्य पर दृढ़ता से लगा देना आदि । फिर मन पर उन बाहरी तत्वों का असर भी नही होगा जो समय अनुसार बदलते हैं या
समाप्त हो जाते है और ऐसे पदार्थ और व्यक्ति निरर्थक लगने लगेगें जो
लक्ष्य प्राप्ति में
सहायक नहीं हैं
। इस सन्दर्भ में
की जाने वाली सतत् विचार प्रक्रिया सहज संयम का
कारण बनती है ।
गीता के अनुसार- जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके आसक्ति रहित होकर समस्त इन्द्रियों के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है । ।।3.7।। जिसका शरीर और
अन्तःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के
संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशा रहित कर्म योगी केवल
शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता । ।। 4.21।। संसार में आशा या इच्छा रहने के कारण ही शरीर,
इन्द्रियाँ, मन आदि वश में नहीं होते । कर्मयोगी में आशा या इच्छा नहीं रहने से उसका शरीर, इन्द्रियाँ और मन स्वतः वश में रहते हैं । इनके वश में रहने से उसके द्वारा व्यर्थ की कोई क्रिया नहीं होती । मन से इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य है कि विवेकवती बुद्धि के द्वारा 'मन और इन्द्रियों से स्वयं का कोई सम्बन्ध नहीं है'--ऐसा अनुभव करना । मन से इन्द्रियों का नियमन करने पर इन्द्रियों का अपना स्वतन्त्र आग्रह नहीं रहता
अर्थात् उनको जहाँ लगाना चाहें,
वहीं वे लग जाती हैं और जहाँ से उनको हटाना चाहें, वहाँ से वे हट जाती हैं ।
अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना
पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना
शत्रु है । जिसने
अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है
और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही
शत्रुता में शत्रु की
तरह बर्ताव करता है । जिसने
अपने-आप पर अपनी विजय कर ली है उस, शीत-उष्ण
(अनुकूलता-प्रतिकूलता) सुख-दुःख तथा मान-अपमान में निर्विकार,
मनुष्य को परमात्मा नित्यप्राप्त हैं ।
।।6.5-6-7।। शरीर, इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि, प्राण आदि, उत्पन्न और
नष्ट होनेवाले जड़ पदार्थ से अपने-आपको
स्वतन्त्र रखें इनसे प्रभावित न हों वरन इन्हे अपने आधीन
रखें । जड की आवश्यकता
समझना ही खास बन्धन है । (बदलती
हुई वस्तुओं, परिस्थितीयों पर मन निर्भर रहता है या बदलता है तो हम एक लक्ष्य पर स्थिर नही रह सकते – यही बन्धन है ।) संसार में दूसरों की सहायता के बिना कोई
भी किसी पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरों की सहायता
लेना ही स्वयं को पराजित करना है । जैसे, कोई शास्त्र के द्वारा, बुद्धि के द्वारा शास्त्रार्थ करके
दूसरों पर विजय प्राप्त करता है, तो वह स्वयं पहले शास्त्र और बुद्धि से पराजित
होता ही है । अतः जो अपने लिये दूसरों की किंचितमात्र भी
आवश्यकता नहीं समझता, वही अपने-आपसे अपने-आप पर विजय
प्राप्त करता है और वही स्वयं अपना बन्धु है ।
शीत अर्थात अनुकूलता की प्राप्ति
होने पर भीतर में एक तरह की शीतलता
मालूम देती है और उष्ण अर्थात् प्रतिकूलता की प्राप्ति
होने पर भीतर में एक तरह का सन्ताप
मालूम देता है । अतः भीतर में न शीतलता
हो और न सन्ताप हो, प्रत्युत एक समान शान्ति बनी रहे अर्थात्
इन्द्रियों के अनुकूल-प्रतिकूल- विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि- की प्राप्ति
होने पर भीतर की शान्ति भंग न हो । पर भीतर से विलक्षण
आनन्द (परमात्मा) मिले बिना, बाहर की अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि और मान-अपमान में मनुष्य प्रशान्त
नहीं रह सकता और जो प्रशान्त रहता है उसको एक रस रहनेवाला
विलक्षण आनन्द मिल जाता है ।
संसार में जो भी उपलब्धियां आज दृष्टिगत हो
रही हैं, वे संयमित मन द्वारा ही अर्जित
है । यह व्यक्ति के जीवन को
खुशियों एवं सुखों से भर देता है । विद्यार्थी
अवस्था में ही संयम की महान विद्या सीख लेनी चाहिए इससे
एकाग्रता को भी, जो जीवन की
एक महान शक्ति है को पा लेंगे (विनोबा
भावे )। जो आत्मसंयमी है वही
सर्वशक्तिमान है । जो आत्मसंयमी नहीं है , वह स्वतन्त्र नहीं है (पाइथागोरस) । जो
अपने ऊपर शासन कर
सकते हैं वही दूसरों पर भी शासन करते हैं (हैजलिट)।
Amazing
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