मेरा मनचाहा हो यह कामना ही “काम” है । उत्पत्ति-विनाशशील जड-पदार्थों के संग्रह तथा इन्द्रिय -संयोगजन्य सुख की इच्छा तथा आसक्ति--ये सब काम के ही रूप हैं । अप्राप्त को प्राप्त करने की चाह 'कामना' है ।
अन्तःकरण में
जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं उनको 'वासना' कहते हैं । वस्तुओं की आवश्यकता प्रतीत होना 'स्पृहा' है ।
वस्तु में उत्तमता
और प्रियता दिखना
'आसक्ति'
है ।
वस्तु मिलने की
सम्भावना रखना 'आशा' है । अधिक वस्तु मिल जाये--यह 'लोभ' या 'तृष्णा' है । वस्तु की इच्छा अधिक बढ़ने पर वह 'याचना' होती है । ये सभी 'काम' या “कामना” के
ही रूप हैं और मन असंयमित होने के कारण है और असंयमित
मन ही कामनाओं का कारण
भी है ।
विचारवान् पुरुष पाप नहीं करना चाहता; क्योंकि पाप का परिणाम
दुःख होता है और दुःख को कोई नहीं चाहता । मैं तो पाप को जानता हुआ उससे
निवृत्त होना चाहता हूँ पर मुझे
कोई बलपूर्वक पाप में प्रवृत्त करता है । वह दूसरा कौन है?--यह अर्जुन का प्रश्न है । ।।3.36।। पापों में प्रवृत्ति का मूल कारण है-- 'काम' । राग और द्वेष (जो काम और क्रोध के ही सूक्ष्म रूप हैं) मनुष्य के महान शत्रु हैं । वास्तव में सांसारिक पदार्थों की कामना का त्याग होने पर ही सुख-शान्ति का अनुभव होता है, तथापि मनुष्य अज्ञानवश
पदार्थों से
सुख का होना मान
लेता है । इससे उनमें राग उत्पन्न होता है, जिससे मन में उनका महत्त्व दृढ़ हो जाता
है । फिर उन्हीं
पदार्थों का
संग्रह करने और उनसे सुख लेने की
कामना उत्पन्न होती है । पुनः कामना से पदार्थों में राग बढ़ता है । यह दुष्चक्र जबतक चलता है, तबतक पाप-कर्म से सर्वथा निवृत्ति नहीं होती अतः कामना कभी मिटती नहीं । परिणाम में तो कामना सबको दुःख देती ही
है, इसलिये यह मनुष्य की मित्र नहीं, नित्य (निरन्तर) वैरी है । ।।3.37।।
विवेक रहने से मनुष्य परिणाम पर दृष्टि रखकर ही सब
कार्य करता है ।
परन्तु कामना से विवेक ढक जाने के कारण परिणाम की ओर दृष्टि ही नहीं जाती और वह पाप कर बैठता
है । विवेक
बुद्धि में प्रकट
होता है । बुद्धि तीन
प्रकार की होती
है--सात्त्विक, राजस और तामस ।
सात्त्विक बुद्धि में
कर्तव्य (क्या करना चाहिये)-अकर्तव्य
का ठीक-ठीक
ज्ञान होता है, राजस बुद्धि में
कर्तव्य-अकर्तव्य का
ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता और तामस बुद्धि में सब वस्तुओं का विपरीत ज्ञान होता है । जैसे धुएँ से अग्नि ढकी रहती है या मैल से ढक जाने पर दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखना बंद हो जाता है, ऐसे ही कामना बढ़ने पर विवेक ढका रहता है और मेरा यह कर्तव्य और यह अकर्तव्य है' (सात्त्विक बुद्धि)-- इसका ज्ञान नहीं रहता । फिर,
जैसे अग्नि में घी की आहुति देते रहने से अग्नि बुझने के बजाय बढ़ती है ऐसे ही कामना के अनुकूल भोग भोगते रहने से कामना बढ़ती ही रहती है । जितना धन मिलता है, उतनी ही दरिद्रता (धन की भूख) बढ़ती है । वास्तव में दरिद्रता उसकी मिटती है, जिसे धन की भूख नहीं है । ।।3.38-3.39।।
काम पाँच स्थानों में दिखता है (1) पदार्थों में (2) इन्द्रियों में,
(3) मन में, (4) बुद्धि में और (5)
माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्ता में । समस्त क्रियाएँ शरीर,
इन्द्रियों, मन और बुद्धि से ही होती
हैं ।
यदि इनमें काम रहता है तो मनुष्य पहले इन्द्रियों से भोग भोगने की मन में तरह-तरह की
कामनाएँ करता है ।
बुद्धि में उन्हें प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के उपाय सोचता है । इस प्रकार
कामना पहले इन्द्रियों को संयोगजन्य सुख के प्रलोभन में लगाती है, फिर मन को अपनी ओर खींचती हैं और
उसके बाद इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धि को भी अपनी ओर खींच लेते हैं । इस तरह काम देहाभिमानी के
ज्ञान को ढककर
इन्द्रियोँ, मन और बुद्धि के द्वारा उसे मोहित कर देता है तथा उसे पतन के गड्ढे में डाल देता है । ।।3.40।।
इन्द्रियाँ, शरीर अथवा विषयों से ऊपर हैं, अर्थात इनके द्वारा ही विषयों का ज्ञान या अस्तित्व होता है पर विषयों के द्वारा
इन्द्रियों का ज्ञान नहीं होता ।
इन्द्रियों में भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने अपने विषय को ही जानती है अन्य
इन्द्रियों के विषयों को
नहीं जैसे कान केवल शब्द को जानते हैं पर स्पर्श, रूप, रस और गंध को नहीं जानते । इसी प्रकार मन, इन्द्रियों से श्रेष्ठ होकर इन्द्रियाँ मन को नहीं जानतीं
पर मन सभी इन्द्रियों (और उनके
विषयों) को जानता है ।
बुद्धि, मन से श्रेष्ठ होकर मन कैसा है शान्त है या व्याकुल
इत्यादि बातों को
जानती है ।
अतः बुद्धि, मन और इन्द्रियोँ को तथा उनके विषयों को भी जानती है । बुद्धि का स्वामी अहम् है इसलिये कहता है मेरी
बुद्धि । अतः काम
अहम्-(जड-चेतन के तादात्म्य-मैं अमुक वर्ण,
आश्रम, सम्प्रदायवाला हूँ- यह काल्पनिक मान्यता)) में ही रहता है जिससे कामना बनी रहती है । इस प्रकार श्रेष्ठता
का क्रम विषय (पदार्थ), शरीर
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम् (मैं) हुआ । ।।3.42 --
3.43।।
कामना के त्याग के लिये, मन को सयंमित
कर, इन्द्रियों को वश करे अर्थात उनकी विषयों में भोग-बुद्धि से रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और
द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो । असंयमित मन के मूल कारण कामना को
नष्ट करने का
उपाय यह है कि कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य विचार करे कि हम जिस वस्तु की कामना करते हैं, वह वस्तु हमारे साथ सदा
रहने वाली
नहीं है । कामना के त्याग से ममता और ममता के त्याग से तादात्म्य (attachment) अर्थात
होता है (या अहम् समाप्त होकर कामना भी समाप्त होती है) ।
कामना के उत्पन्न होने से लेकर उसे समाप्त करने तक कि प्रक्रिया का अत्यंत सूक्ष्म व सटीक विवेचन काफी सारगर्भित व जीवनोपयोगी है साघुवाद।
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