किशोर गीता-11 मन संयमित कैसे करे
अर्जुन मन को वश मे
करना बहुत कठिन मानते हैं और श्रीकृष्ण इस बात से सहमत होकर कहते है, इसे अभ्यास
और वैराग्य से वश मे किया जा सकता है ।
जैसे आकाश में विचरण करते हुए वायु को कोई मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता, ऐसे ही इस मन को कोई पकड़ नहीं सकता । इस चंचल, प्रमाथि, दृढ़ और बलवान्
मन का निग्रह करना
बड़ा कठिन है । चंचलता के साथ-साथ यह 'प्रमाथि' (व्यथित
करने वाला) भी है
अर्थात् यह मनुष्य को
अपनी स्थिति से
विचलित कर देता है ।
यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है । 'काम'-(कामना-) के रहने के
पाँच स्थान बतायें गये हैं--इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि
विषय और स्वयं, पर
वास्तव में काम स्वयं में रहता है और इन्द्रियाँ मन
बुद्धि तथा विषयों में
इसकी प्रतीति होती है ।
जब तक स्वयं में काम रहता है, मन का पदार्थों के प्रति अधिक खिंचाव रहता है तथा मनुष्य को व्यथित करता रहता है । मन को दृढ़ कहा है क्योंकि मन किसी तरह भी विषयों की ओर जाना नहीं
छोड़ता है । मन की यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है; अतः मन को 'बलवत्' कहा है । तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान्
है, जो कि
मनुष्य को
जबरदस्ती विषयों में ले जाता है । पर जब मनुष्य स्वयं काम रहित हो जाता है, तब पदार्थों का, विषयों का कितना ही संसर्ग हो मनुष्य पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता । ।।6.33-34।।
ध्येय की सिद्धि में मन का वश में न होना जितना बाधक है उतनी मन की चंचलता बाधक नहीं है । मन वश में होने पर वह मन को जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता
है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँ से हटाना चाहे वहाँ से हटा सकता है । प्रायः मनुष्यों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे
साधन तो श्रद्धा पूर्वक
करते हैं पर उनके प्रयत्न में
शिथिलता रहती है जिससे उनमें संयम
नहीं रहता अर्थात् मन,
इन्द्रियाँ, अन्तःकरण का पूर्णतया संयम नहीं होता । मनुष्य विषय भोगों का ज्यादा अभ्यस्त होने से उसे उनमें ग्लानि नहीं होती और वे निषिद्ध और पतन करने वाले नहीं दिखते । पर राग पूर्वक विषय भोगों को भोगने से पतन होता है । तात्पर्य है कि
मनुष्य के अन्तःकरण में विषय भोगों की रुचि रहने के कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो
पाता, मन- इन्द्रियों को अपने वश में नहीं कर पाता । अतः सबसे
पहले अपने-आपको यह समझायें
कि 'मैं भोगी
नहीं हूँ ।
मैं विद्यार्थी हूँ तो केवल ज्ञान प्राप्त करना
ही मेरा काम है; मैं सेवक हूँ तो केवल सेवा
करना ही मेरा काम है ।
किसी से कुछ भी चाहना
मेरा काम नहीं है'--इस तरह अपनी अहंता का परिवर्तन कर दिया जायें तो मन
बहुत जल्दी वश में
हो जाता है। मन में उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं का राग रहना ही मन की अशुद्धि है । जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वश में हो जाता है। जो मनुष्य नियमों का नियत रूप से और दृढ़ता पूर्वक पालन करता है और जिसका मन
सर्वथा वश में है ऐसे
मनुष्य के द्वारा ध्येय प्राप्त किया जा सकता है । व्यवहार में मनुष्य यह सावधानी रखे कि कभी किसी
अंश में पराया हक न
आ जायें; क्योंकि
पराया हक लेने से
मन अशुद्ध हो जाता है ।
कहीं नौकरी, मजदूरी करे, तो जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक काम करे । व्यापार करे तो वस्तु का तौल नाप या गिनती औरों की अपेक्षा ज्यादा भले ही हो जायें, पर कम न हो । मजदूर आदि को पैसे दे तो उसके काम के जितने पैसे बनते हों, उससे कुछ अधिक पैसे उसे दे । इस प्रकार व्यवहार करने से मन शुद्ध हो जाता है । ।।6.36।।
उपरोक्त अनुसार मन को बार-बार ध्येय में लगाने का नाम 'अभ्यास' है । इस अभ्यास की सिद्धि, समय लगाने से होती है । समय भी निरन्तर लगाया जायें, रोजाना लगाया जायें । अभ्यास से उकताकर कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया--ऐसा नहीं
हो । अपने ध्येय में महत्त्व तथा आदर-बुद्धि भी होनी चाहिये । अभ्यास के दो भेद हैं--(1) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्ति को लगाये और दूसरा कुछ भी चिन्तन आ
जायें तो उसकी
अपेक्षा कर दे । (2) जहाँ-जहाँ मन चला जायें,
वहाँ-वहाँ ही अपने ध्येय को देखे ।
वैराग्यी (राग मुक्त)
होने के भी कई उपाय हैं जैसे-1 संसार प्रतिक्षण बदलता है
और स्वरूप कभी भी तथा किसी भी क्षण बदलता नहीं । अतः संसार हमारे साथ नहीं है और
हम संसार के साथ नहीं हैं, ऐसा विचार करने पर संसार से वैराग्य होता है । 2. अपने कहलाने वाले जितने कुटुम्बी, सम्बन्धी हैं, वे हमारे से
अनुकूलता की इच्छा रखते
हैं तो अपनी शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता, समझ के अनुसार उनकी न्याययुक्त इच्छा
पूरी कर दे और परिश्रम करके उनकी सेवा कर दे;
परन्तु उनसे अपनी अनूकूलता की तथा कुछ लेने की इच्छा का सर्वथा त्याग कर दे । इस तरह सेवा करने से पुराना राग मिट जाता है और उनसे
कुछ भी न चाहने से
नया राग पैदा नहीं होता ।
इससे स्वाभाविक ही संसार से वैराग्य हो जाता है । ।।6.35।।
जितने भी दोष, पाप, दुःख हैं, वे सभी संसार के राग से ही मन के असंयमित
होने से पैदा होते
हैं, और जितनी सुख, शान्ति मिलती है,
वह सब राग-रहित होने से ही मिलती है । अतः ध्येय प्रप्ति के
लिये मन को वश करना अति आवश्यक है ।
[09:41, 20/03/2022] Dange: Ur lesson 11 mind control
ReplyDeleteAgreed mind is more powerful
Then remedies are not that powerful here again mind takes part
We see how our old values are totally vanished
But the alternatives suggested by you are the only way out many Thanks for the analysis. Ps for all this child education is most imp
[09:55, 20/03/2022] Comments by Mr Dange in Whats app message