यह
समझना अति आवश्यक है कि वास्तविक ज्ञान क्या है तथा यह ज्ञान किससे व कैसे प्राप्त
करे ।
जिस
ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को
देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक (श्रेष्ठ) समझो । ।।18.20।।
अध्यात्म ज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना,
तत्त्व ज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सब जगह देखना -- यह
(पूर्वोक्त साधन-समुदाय) तो ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है
वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है । ।।13.12।। जिस
ज्ञान से हम वस्तुओं की भिन्नता में भी एकता देख पाते हैं वही ज्ञान है । गणित में
विभिन्न प्रश्नों को हल करने के लिये पहले यह समझे की विभिन्न दिखते हुये भी वे एक मूल सूत्र से हल हो सकते हैं और उस सूत्र
को समझना ही ज्ञान है । पृथ्वी पर प्राप्त
ऊर्जा के विभिन्न – विभिन्न ऊर्जा
स्त्रोतों के मूल मे हमें सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा ही है और ये
सभी ऊर्जाएं, सूर्य से मिली ऊर्जा के विभिन्न या परिवर्तित रुप मात्र है यह समझना
ज्ञान है । यह जाने बिना कि सम्पूर्ण
पदार्थ इलेक्ट्रान, प्रोटान न्युट्रान से बने हैं, सम्पूर्ण पदार्थो के नाम याद
रखना विद्वता हो सकती है ज्ञान नही और आप विद्वान हो सकते है ज्ञानी नही । वास्तविक
ज्ञान आपको काल, परिस्थिति, भू-भाग जन्य संस्कार / पूर्वाग्रह
से मुक्त कर देगा । जो जानकारी आपको इन बन्धनों/पूर्वाग्रहों
में डालती है वह ज्ञान नही अज्ञान है । दर्शनशास्त्री J. Krishnamurty’ के शब्दों मे “Freedom from Known is Knowledge” । गीता के शब्दों में- परिवर्तनशील और नष्ट
होने वाली जितनी वस्तुएँ हैं? यह ज्ञान उन सबका मूल/प्रकाशक है और स्वयं
भी निर्मल तथा विकार रहित है । यह ज्ञान प्रकाश्य( प्रकाश
मे लाए जाने योग्य) की दृष्टि से प्रकाशक और विभक्त की
दृष्टि से अविभक्त कहा जाता है । प्रकाश्य और विभक्त से
रहित यह (वास्तविक ज्ञान) निर्गुण और निरपेक्ष
है ।
कायरता
रूप दोष से
तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्तःकरण वाला मैं आपसे पूछता हूँ
कि जो निश्चित कल्याण करने वाला हो, वह मेरे लिये
कहिये । मैं आपका शिष्य हूँ । आपके शरण हुए मुझे
शिक्षा दीजिये । ।।2.7।। कमियों को अपने में
स्वीकार करते हुए अर्जुन कहते हैं मेरा क्षात्र-स्वभाव एक तरह से
दब गया है और मैं बुद्धि से धर्म के विषय (पारिवारिक लोगों को देखते हुए युद्ध
नहीं करना चाहिये और क्षात्र-धर्म की दृष्टि से युद्ध करना
चाहिये ) में कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ । य़ाद रखे जब मनुष्य अपनी वर्तमान
स्थिति से असन्तुष्ट हो जाये, उस स्थिति में
रह न सके तब ही कल्याण की जागृति होती है । अपने
कल्याण के लिये किसी के शिष्य हो जायें उसकी शरण में
चले जाये और शिक्षा की याचना करे ।
उस- (तत्त्वज्ञान-)
को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों के
पास जाकर) समझ ।
उनको साष्टांग दण्डवत्
प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी
ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञान का
उपदेश देंगे ।
।।4.34।। ज्ञान प्राप्त करने की
प्रचलित प्रणाली है—जिज्ञासा पूर्वक गुरु से विधिपूर्वक
ज्ञान प्राप्त करना । ज्ञान-प्राप्ति के लिये गुरु को
प्रणाम
करें, नम्रता, सरलता और जिज्ञासु भाव से
उनके पास रहें, सेवा करें । उनके मन के, संकेत के, आज्ञा के
अनुकूल काम करे यही उनकी वास्तविक
सेवा है । अपने-आपको उनको समर्पित कर उनके अधीन हो जायें ।
मेरे साधन में क्या-क्या बाधाएँ हैं? उन बाधाओं को
कैसे दूर किया जाये? तत्त्व (Basic) समझ में
क्यों नहीं आ रहा है? आदि- प्रश्न केवल अपने ज्ञान प्राप्ति के लिये (जैसे-जैसे जिज्ञासा हो, वैसे-वैसे) करे अपनी
विद्वत्ता दिखाने के लिये अथवा उनकी परीक्षा करने के
लिये प्रश्न न करें ।
ज्ञान के अधिकारी (विद्यार्थी) तीन प्रकार के होते हैं--उत्तम, मध्यम और
कनिष्ठ । उत्तम अधिकारी को श्रवण मात्र से
ज्ञान हो जाता है । मध्यम को श्रवण, चिन्तन और स्वअभ्यास करने से ज्ञान
होता है, पर कनिष्ठ समझने के लिये गुरु से भिन्न-भिन्न प्रकार की
शंकाएँ किया करता है । उन शंकाओं का समाधान करने के
लिये गुरु को सिद्धान्तों का ठीक-ठीक ज्ञान होना
आवश्यक है; क्योंकि वहाँ केवल युक्तियों से समझाया नहीं जा
सकता । अतः यदि गुरु व्यवहारिक ज्ञान वाला हो, पर सिद्धान्तो का ज्ञाता न हो, तो वह शिष्य की तरह-तरह की
शंकाओं का समाधान नहीं कर सकेगा । इसी प्रकार यदि गुरु सिद्धान्तो का ज्ञाता हो, पर व्यवहारिक ज्ञान वाला न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी, जिससे कि
विद्यार्थी को ज्ञान हो जाय । अतः जिस गुरु को व्यवहारिक ज्ञान हो और वह
सिद्धान्तों को भी अच्छी तरह समझा सके ऐसे गुरु के पास जाकर ही ज्ञान प्राप्त
करना चाहिये ।
जो
जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य
ज्ञान को
प्राप्त होता है और ज्ञान को
प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्ति को
प्राप्त हो जाता है । ।।4.39।। श्रद्धावान् विद्यार्थी
को ही ज्ञान प्राप्त होता है । गुरु में , सिद्धान्तों में प्रत्यक्ष (स्वानुभव) की तरह आदरपूर्वक विश्वास होना 'श्रद्धा'
कहलाती है । ज्ञान मुझे प्राप्त हो सकता है और
अभी हो सकता है-- यही वास्तव में श्रद्धा है । जब तक
इन्द्रियाँ संयत न हों और साधन में तत्परता न हो, तब तक
श्रद्धा में कमी समझनी चाहिये । श्रद्धा पूरी न होने के
कारण ही ज्ञान के अनुभव में देरी लगती है ।
ज्ञान प्राप्ति की पहली
सीढ़ी है अपने अज्ञान को स्वीकार करना । फिर ज्ञान प्राप्त करने के लिये गुरु पर, अपने लक्ष्य पर श्रद्धा (इन्द्रियाँ
संयत कर साधन में तत्परता) होना
अतिआवश्यक है ।
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