जिस- (तत्त्वज्ञान-) का अनुभव करने के बाद तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा, और हे अर्जुन ! जिस-
(तत्त्वज्ञान-) से तू सम्पूर्ण प्राणियों को निःशेषभाव से पहले अपने में और उसके बाद मुझ
सच्चिदानन्दघन परमात्मा में
देखेगा । ।।4.35।। सामान्य दृष्टि से
समुद्र और लहरों में भिन्नता दिखाई देती है । लहरें समुद्र में ही उठती और
लीन होती रहती हैं । परन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से
अस्तित्व न समुद्र का है न लहरों का । अस्तित्व तो केवल एक जल-तत्त्व का है ।
पृथ्वी से सम्बन्ध होने के कारण समुद्र और लहरें सीमित है ; परन्तु
जल-तत्त्व सीमित नहीं है । अतः समुद्र और लहरों को न देखकर एक
जल-तत्त्व को देखना ही यथार्थ दृष्टि /ज्ञान है । इस वास्तविक
ज्ञान का अनुभव नहीं होता और इसका वर्णन भी कोई कर नहीं सकता ।
कारण कि वास्तविक ज्ञान करण-निरपेक्ष (unaffected
by instrument by which it is received) है अर्थात् इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि आदि करणों (Instruments) पर निर्भर नहीं है ।
करणों (अर्थात
दूसरों) से होनेवाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देह रहित नहीं होता । हम जानते हैं,आंखों से और वायुमंडल के कारण देखा गया, नीला आकाश करण-सापेक्ष है और यह सत्य नही हैं । किसी
ध्वनि को हम मनुष्य सुन नही सकते इसका अर्थ ध्वनि नही है, यह नही होता । विद्यार्थी किसी की भी मदद से जानने का कितना भी प्रयत्न क्यों न
करे, पर अन्त में वह अपने-आपसे ही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है । करण तथा श्रवण-मनन आदि साधन (ways)- ज्ञान की बाधाओं (distraction)
को
दूर करने वाले साधन हैं पर ज्ञान अपने-आपसे ही होता है ।
जिस विद्यार्थी को ऐसे ज्ञान का अनुभव हो गया
है, उसकी बुद्धि में (यह) ज्ञान इतनी
दृढ़ता से उतर जाता है कि उसमें कभी विकल्प, सन्देह,
विपरीत भावना आदि होती ही नहीं और फिर उसे कभी मोह भी नहीं होता । पर यह ज्ञान तब होता है, जब मनुष्य
अपने विवेक को महत्त्व देता है ।
इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह दूसरा कोई साधन
नहीं है । जिसका योग
भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह (कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें
पा लेता है । ।।4.38।। वस्तुओं की स्वतन्त्र उपयोगिता
को
मानने से तथा उससे सुख लेने की इच्छा से
ही सम्पूर्ण दोष,
पाप(distraction) उत्पन्न होते हैं । अनित्य
(Temporary ) कर्मों से
नित्य (Permanent)
नही मिल सकता है अतः कर्मों के द्वारा कुछ नहीं पाना है --यह 'कर्मविज्ञान'
है । इसको अपनाने से
कर्म से फल लेने की इच्छा खत्म हो जाती है अर्थात् कर्म से
सुख लेने की आसक्ति सर्वथा मिट जाती है, जिसके
मिटते ही वास्तविक ज्ञान का अनुभव हो जाता है, जो 'योगविज्ञान' है ।
ज्ञान होने पर संसार के दोष(distraction) सर्वथा नाश हो जाते
है और महान् पवित्रता आ जाती है । कर्मयोग का ठीक-ठीक पालन करने से संसार से तादात्म्य, ममता और
कामना मिट जाती है, और अपने-आपमें ही ज्ञान का सुखपूर्वक
अनुभव हो जाता है ।
जो प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रिय
को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो,
वह स्थिर बुद्धि वाला, मूढ़ता रहित तथा
ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य ब्रह्म में स्थित है। ।।5.20।। शरीर, इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदि के
अनुकूल (प्रतिकूल) प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि की प्राप्ति होना ही प्रिय (अप्रिय)
को प्राप्त होना है । प्रिय और अप्रिय को
प्राप्त होने पर भी विद्यार्थी के अन्तःकरण में
हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये । यहाँ प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति का
यह अर्थ नहीं है कि विद्यार्थी के हृदय में अनुकूल या प्रतिकूल
प्राणी-पदार्थों के प्रति राग या द्वेष है, प्रत्युत
यहाँ उन प्राणी-पदार्थों की प्राप्ति के ज्ञान को ही प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति कहा गया है ।
प्रिय या अप्रिय की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति का
ज्ञान होने में कोई दोष नहीं है । अन्तःकरण में
उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्ति का असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोक आदि विकार होना ही दोष है ।
जिसके सब पाप नष्ट
हो गये हैं, जिसका रजोगुण तथा मन सर्वथा शान्त(निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मस्वरूप योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त
होता है। ।।6.27।। जिसके सम्पूर्ण
पाप (आसक्ति) नष्ट हो गये हैं अर्थात् तमोगुण की -अप्रकाश
अप्रवृत्ति, प्रमाद (आलस) और मोह -वृत्तियाँ
नष्ट हो गयी हैं तथा जिसके
रजोगुण की -लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये
कर्मों में लगना, अशान्ति और स्पृहा -
वृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं अर्थात् जिसको
पदार्थों से तथा संकल्प-विकल्पों से भी उदासीनता हो गयी है, ऐसे विद्यार्थी
के
मन में राग-द्वेष न होने से उसका मन स्वाभाविक ही
शान्त हो जाता है । ऐसे विद्यार्थी को स्वाभाविक ही
उत्तम सुख अर्थात् सात्त्विक सुख प्राप्त होता है । जो
विद्यार्थी इन सबसे उदासीन हो गया है, उसको
उत्तम सुख की खोज नहीं करनी पड़ती, उस सुख की
प्राप्ति के लिये उद्योग, परिश्रम आदि नहीं करने पड़ते,
प्रत्युत वह उत्तम सुख उसको स्वतः-स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाता
है ।
इस प्रकार हम देखते हैं, अन्ततः
ज्ञान स्वंय को ही प्राप्त करना होता है और ज्ञान से लाभ प्राप्त करने का मोह भी छोड़ना
पड़ता है । इसके लिये संसार मे व्याप्त -लक्ष्य से ध्यान बँटाने वाली और एकाग्रता भंग करने वाली
-वस्तुओं की उपेक्षा करना अत्यन्त जरुरी है । वास्तविक ज्ञान प्राप्त
होने पर सुख अपने आप प्राप्त हो जाता है ।
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