कर्म क्या हैं,
वे क्यों जरुरी हैं, उनके प्रकार
क्या हैं, अलग-अलग वर्ण और जीवन अवस्था के लिये उचित कर्म क्या हैं, इसी प्रकार एक
विद्यार्थी के लिये क्या कर्म निर्धारित हैं ?
मनुष्य केवल स्थूल शरीर की क्रियाओं को कर्म मानते हैं । वे बच्चों के पालन-पोषण,आजीविका-व्यापार आदि को ही कर्म मानते हैं और खाना-पीना, चिन्तन करना आदि को कर्म नहीं मानते । पर गीता ने शारीरिक, वाचिक और मानसिक रूप से की गयी सभी क्रियाओं को कर्म माना है । उसके अनुसार शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी स्थूल शरीर की क्रियाएँ; नींद, चिन्तन आदि सूक्ष्म-शरीर की क्रियाएँ और समाधि आदि कारण-शरीर की क्रियाएँ ये सब कर्म ही हैं ।
कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह
सकता; क्योंकि
(प्रकृति के)
परवश हुए सब प्राणियों से
प्रकृति-जन्य
गुण, कर्म
कराते हैं । ।।3.5।। (कारण कि) देहधारी मनुष्य के द्वारा
सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है, इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है । ।।18.11।। जब तक मनुष्य
शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानता है और शरीर से
होने वाली प्रत्येक क्रिया को अपनी क्रिया मानता है, वह किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं
रहता, क्योकिं
प्रकृति
निरन्तर परिवर्तनशील है और प्रकृति के परवश होने से उसे कर्म करने ही पड़ते हैं ।
तू शास्त्र विधि से नियत किये हुए कर्तव्य-कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है
तथा कर्म न करने से
तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा । ।। 3.8।। शास्त्रों में
नियत (स्वधर्म) तथा विहित -दो प्रकार के कर्मों को करने की आज्ञा दी गयी है ।
नियत कर्म का तात्पर्य है--वर्ण, आश्रम,
स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार प्राप्त
कर्तव्य-कर्म; जैसे—अध्ययन ,व्यापार करना आदि । विहित
कर्म का तात्पर्य है—शास्त्रो में बताये
हुए आज्ञा रूप कर्म; जैसे-- व्रत, उपवास, उपासना आदि, पर इन को सम्पूर्ण रूप से
करना कठिन है । विहित कर्म को न कर सकने में
उतना दोष नहीं है जितना निषिद्ध कर्म का त्याग (यह करना सुलभ भी है) करने में
लाभ है; जैसे झूठ न बोलना, इत्यादि ।
फिर निषिद्ध कर्मों का त्याग होने से विहित कर्म स्वतः
होने लगते हैं ।
हे
कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह किसी-न-किसी दोष से युक्त
हैं ।
।।18.48।। जैसे यद्यपि युद्ध रूप कर्म में दोष
हैं क्योंकि उसमें मनुष्यों को मारना पड़ता है, तथापि क्षत्रिय के लिये न्याययुक्त युद्ध प्राप्त
हो जाय तो उसको करने से क्षत्रिय को पाप नहीं लगता । सहज कर्म में ये दोष
हैं --(1) क्रिया मात्र
प्रकृति में होती है पर मनुष्य उसे अपने द्वारा किया मान लेता है । (2) प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ अनिवार्य हिंसा होती
है । (3) कोई भी कर्म किया जाय, वह कर्म किसी के अनुकूल और किसी के
प्रतिकूल (यह दोष) होता ही है । (4) आलस्य आदि के कारण कर्म के करने में कमी रह
जाना ।
जो कुछ कर्म है, वह दुःख रूप ही है -- ऐसा
समझकर कोई शारीरिक क्लेश के भय से उसका त्याग कर दे, तो वह (राजस) त्याग करके भी त्याग के फल को नहीं पाता । ।।18.8।। (राजस) मनुष्य /विद्यार्थी को अपने वर्ण, आश्रम आदि के
धर्म का पालन करने में पराधीनता और दुःख का अनुभव होता है तथा जैसी मरजी आये,
वैसा करने में स्वाधीनता और सुख का अनुभव होता है ।
उनके विचार में गृहस्थी/अध्ययन में आराम नहीं मिलता अतः वे उसका त्याग कर देते हैं । कर्तव्य कर्मों (विद्यार्थी के लिये अध्ययन) का त्याग करने में
तो राजस और तामस -- ये दो भेद होते हैं, पर परिणाम (आलस्य, प्रमाद, अति निद्रा
आदि) में दोनों एक हो जाते हैं जिसका फल अधोगति होता है । राजस मनुष्य (कर्म का) त्याग (अपने सुख के लिये करने से) के फल (शान्ति) को नहीं
पाता पर उसे शुभ कर्मों के त्याग का
फल दण्ड रूप से जरूर भोगना पड़ता है ।
अतः विद्यार्थी का अध्ययन न करने में झुकाव न हो, और यदि अध्ययन करते रहने पर भी वह अपनी मनचाही परिस्थिति, अनुकूलता और सुख-बुद्धि साथ में रखता हैं, तो यह अध्ययन में महान् बाधक है । वह वास्तव में सुख का रागी है, न कि अध्ययन का प्रेमी । जो सुगमता और शीघ्रता से ज्ञान प्राप्ति चाहता है, उसे क्रमशः कठिनता और विलम्ब सहना पड़ता है कारण कि विद्यार्थी की दृष्टि 'अध्ययन' पर न रहकर परिणाम पर चली जाती है, जिससे अध्ययन में उकताहट प्रतीत होती है । जिस विद्यार्थी
का यह दृढ़
निश्चय या उद्देश्य है
कि चाहे जैसे भी हो, मुझे ज्ञान की
प्राप्ति होनी ही चाहिये वह
तत्परता के साथ अध्ययन में लगा हुआ अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये कमर कसकर लग जाता है । उसे फल को प्राप्त करने की उत्कंठा होने पर, देरी तो असह्य होती है, पर वह जल्दी प्राप्त हो
जाय--यह इच्छा नहीं होती ।
आसक्ति पूर्वक (परिणाम के लिये) अध्ययन करने वाला विद्यार्थी अध्ययन में सुखभोग करता है और उसमें
विलम्ब या बाधा लगने से
उसे क्रोध आता है एवं वह अध्ययन में
ही दोष देखता है। परन्तु आदर और प्रेम पूर्वक अध्ययन करने वाला विद्यार्थी अध्ययन में विलम्ब या बाधा आने पर व्यथित होता है और उसकी उत्कंठा और तेजी से बढ़ती है । यही शीघ्रता और उत्कंठा में अन्तर है, और हर विद्यार्थी
को अध्ययन के लिये उत्कंठा रखनी चाहिये
शीघ्रता नही ।
परीक्षा के दिनों अभ्यास के कर्म के विषय मे समझाकर आपने शिक्षक की भूमिका बहुत अच्छेसे निभाई !! Kishori tai Dange
ReplyDeleteThis is totally logical but I think last para needs elaboration Further u shoul give a talk n motivate thanks
ReplyDeleteDange