फल की इच्छा
किये बिना कर्म करना ही ईश्वर की पूजा है ।
जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और
जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का
अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । ।।18.46।। प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा
का अपने स्वभावानुसार
(As
per aptitude and skill) कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिये । अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार
जो जो कर्तव्य कर्म हैं, वे सब संसार रूप परमात्मा की पूजा के लिये ही हैं । अगर मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा श्रद्धा तथा- मेरे पास जो कुछ है वह सब
उस सर्वव्यापक परमात्मा (संसार) का
ही है और उन
कर्मों में एंव उनको
करने के करणों (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि,
प्राण), उपकरणों (कर्म करने में उपयोगी सामग्री) में ममता न रखते हुए- मुझे तो केवल निमित्त बनकर उसकी दी हुई शक्ति से उसका पूजन करना है --
इस भाव से पूजन
करता है, तो
उसकी क्रियाएँ ही परमात्मा
की पूजा हो जाती है ।
तू
विवेकवती बुद्धि के
द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को
मेरे अर्पण करके कामना, ममता और संताप-रहित होकर युद्ध रूप कर्तव्य-कर्म को
कर ।
।।3.30।। मनुष्य ने करणों, उपकरणों तथा क्रियाओं को भूल से अपनी और अपने लिये मान लिया है जो कभी
इसके थे ही नहीं । कर्मों को चाहे संसार को,
प्रकृति को य़ा भगवान को
अर्पण कर दें—तीनों का एक ही नतीजा होगा । अपर्ण करने के बाद भी कर्म और शरीर आदि पदार्थ, (कामना, ममता या
सन्ताप से) अपने
प्रतीत होते हैं । उदाहरणार्थ--
हमने किसी को
पुस्तक दी । उसे
वह पुस्तक पढ़ते हुए देखकर हमारे मन में
ऐसा भाव आ जाता है कि वह मेरी पुस्तक पढ़ रहा है । इस अंश (भाव) का भी त्याग करने के लिये नयी वस्तु की 'कामना',
प्राप्त वस्तु में
'ममता' और नष्ट वस्तु का 'संताप' न
करे ।
इसलिये तू निरन्तर आसक्ति रहित होकर कर्तव्य-कर्म का भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य
परमात्मा को
प्राप्त हो जाता है । ।।3.19।। कर्म सदैव 'पर'-(दूसरों-) के लिये होता है तथा
दूसरों के
लिये कर्म करने से
कर्म करने का राग (attachment) भी मिट जाता है । अपने से विजातीय (नाशवान )
पदार्थों के प्रति आकर्षण को 'आसक्ति' कहते हैं । इनका महत्व अन्तःकरण में अंकित होने से उन पदार्थों में आसक्ति हो जाती है । आसक्ति के कारण ही मनुष्य अपने आराम, सुख-भोग के लिये तरह-तरह के कर्म करता है और वह दूसरों का हित नहीं कर सकता ।
अतः निरन्तर आसक्ति-रहित रहते हुए जो
विहित-कर्म सामने आ जाये, उसे कर्तव्य मात्र
समझकर कर देना चाहिये ।
कर्तव्य का अर्थ होता
है--अपने स्वार्थ का
त्याग करके दूसरों का
हित करना अर्थात् दूसरों की
उस न्याययुक्त माँग को अवश्य पूरा करना, जिसे पूरा करने का सामर्थ्य हमारे में है । मनुष्य
हाथ और मुख दोनों को
अपने ही अंग मानता है अतः
अपने हाथों से अपना ही मुख
धोने पर मैंने बड़ा उपकार किया है और मैंने ऐसा किया
(कतृत्वाभिमान) यह
भाव नहीं आता । ऐसे
ही स्वयं को संसार का ही अंग मानकर कर्म करे पर कर्तृत्वाभिमान सदा के लिये त्याग
दे ।
कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा
अधिकार है, फलों में कभी नहीं । अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी
अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो । ।।2.47।। केवल, प्राप्त, सेवा रूप कर्तव्य-कर्म करने में ही हमारा अधिकार है । क्योंकि जितने भी कर्म होते हैं, वे सभी प्राकृत पदार्थों और
व्यक्तियों के
संगठन (सहयोग) से ही होते हैं तथा
परिणाम उन सभी बाहरी कारणों पर भी निर्भर रहता है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नही है । कर्म के अनुसार फल मिलते ही हैं और उनकी प्राप्ति में इच्छा का कोई योगदान नही है पर वे वर्तमान में नही
भविष्य में मिलते हैं ।
फिर मनुष्य जिस उद्देश्य (फल) को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होने पर भी वह उसी में तल्लीन रहता है ।
जैसे, कोई
पुरुष व्याख्यान रूप कर्म से
धन, मान,
बड़ाई, आराम आदि कुछ-न-कुछ पाने का भाव रखता है तब
उसका यह लक्ष्य (धन, मान, बड़ाई, आराम) उसके साथ हमेशा लगा
रहता है और वह अन्य कार्य नही कर पाता । पर
यदि अपने लिये कुछ भी पाने का
भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करने तक ही सीमित रहता है और फिर कभी व्याख्यान सुनने का काम पड़ जाये या उसे कोई कमरा साफ करने का काम प्राप्त हो जाये तो वह
दोनों कार्य सुगमता पूर्वक (बिना संकोच के) कर लेता है । उस समय उसे न आदर की आवश्यकता है, न ऊँचे आसन की, क्योंकि तब वह अपने को श्रोता, कार्मिक मानता है ।
स्वयं के नियंत्रण और
वर्तमान मे होने वाले
कर्म के
साथ-साथ स्वयं के नियंत्रण में न रहने
वाले और भविष्य मे मिलने वाले फल पर दृष्टि रखना या चाहना मनुष्य के लिये हितकारक नहीं है । इसी प्रकार आसक्ति सहित कर्म कर
अपनी ऊर्जा का अपव्यय करने की बजाय निष्काम कर्म करना ऊत्तम और आसान है । निष्काम
कर्म के लिये अपने
सुख-आराम का त्याग और
दूसरों को सुख-आराम पहुँचाने का भाव होना चाहिये । संसार में अपने लिये कर्म करने की कोई आवश्यकता न रहने पर भी मनुष्य के द्वारा लोक-कल्याणार्थ क्रियाएँ कर ही स्वयं का
कल्याण किया जा सकता हैं । अतः फल की इच्छा न रखकर केवल कर्तव्य-कर्म करे ।
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