मनुष्य की कामना और उसके कर्म में चार व्यवस्थाएं हैं ।1. कामनाएं और कर्म दोनों नहीं होते हैं । 2. कामनाएं होती हैं, पर कर्म नहीं होते हैं । 3. कामनाएं और कर्म दोनो होते हैं । 4. कामनाएं नहीं होती पर कर्म होते हैं । सामान्यतः कामनाओं से “कर्म” होते हैं, किन्तु कामनाओं के बढ़ने पर धर्म-अधर्म का भेद भूलकर कर्म करना “विकर्म” कहलाता है । मनुष्य की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामनाएं न हो और कर्म होते रहें और यही “अकर्म” है ।
प्रत्येक सांसारिक वस्तु, व्यक्ति ,परिस्थिति आदि प्रतिक्षण नष्टता की ओर जा रही है; अतः उन पर (तृप्ति के लिये) आश्रित रहने वाले मनुष्य
की तृप्ति स्थायी नही रहती,
अतः वह पुनः पुनः उनकी कामना करता है । यह
तृप्ति-अतृप्ति का चक्र
जीवन में चलता रहता है, परन्तु- जो
कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह
लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता । ।।4.20।।
जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है,
जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे
केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं । ।।4.23।।
कर्म करना या
न करना,
बन्धन या मुक्ति का
कारण नहीं है । इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है ( मैं करता
हूँ, इसका फल मुझे मिले) यह
भाव, बन्धन का कारण है । इससे छूटने का उपाय है-फलेच्छा का त्याग करके केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना । निःस्वार्थ-भाव से केवल दूसरों के लिये कर्म करना 'यज्ञ' है । यह जानना की कर्मों का सम्बन्ध 'पर'-(शरीर-संसार-)
के साथ है, 'स्व'-(स्वरूप-) के साथ
नहीं, ही 'ज्ञान' है । इस ज्ञान रूप अग्नि से सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं
अर्थात् कर्मों में
फल देने की
(बाँधने की)
शक्ति नहीं रहती । अतः जो
अपने कर्तव्य का
पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है और उनसे अपना सम्बन्ध नहीं मानता, वही मुक्त है ।
जिसका अहंकृत भाव नहीं है और जिसकी
बुद्धि लिप्त नहीं होती,
वह इन सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।
।।18.17।। अहम् दो प्रकार का होता है -- अहंस्फूर्ति और अहंकृति । मनुष्य
को अपने होने का भान होता है,
यह अहंस्फूर्ति (जो
सामान्य) हैं और उसमे क्रिया को लेकर मैं करता हूँ, ऐसा भाव है, यह अहंकृति हैं । जब अहंकार पूर्वक
क्रिया होती है,
तब कर्ता, करण और कर्म -- तीनों मिलते हैं और तभी
कर्म संग्रह होता है ।
अहंकृत-भाव और बुद्धि में
लेप न रहने का उपाय है, यह अनुभव करना, कि केवल प्रकृति से ही क्रिया और पदार्थ में परिवर्तन होता है और प्रकृति ही क्रिया और फल में परिणीत होती है और हमारा इन दोनों से कोई सम्बन्ध नही है । फिर जो परिस्थिति आ जाती है, उसमें प्रवृत्त होने पर भी मनुष्य को पाप नहीं लगता ।
जो
मनुष्य
फल की इच्छा के बिना, अपने-आप जो कुछ मिल जाये, उसमें सन्तुष्ट रहता है
और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से अतीत तथा सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म
करते हुए भी उससे नहीं बँधता । ।।4.22।। जो मनुष्य निष्काम भावपूर्वक सम्पूर्ण
कर्तव्य-कर्म करता है और
फल के रूप में उसे अनुकूलता या प्रतिकूलता, लाभ या हानि, मान या अपमान, स्तुति या निन्दा, सिद्धि-असिद्धि आदि जो कुछ मिलता है, उसका ज्ञान होकर भी जिसके अन्तःकरण में कोई असन्तोष या द्वन्द्व पैदा नहीं होता उसे कर्म नही
बाँधते ।
हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की
आकांक्षा करता है;
वह सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि
द्वन्द्वों से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ।।5.3।। संसार में उलझने या शान्ति की प्राप्ति मे अवरोध के दो ही कारण हैं- राग और द्वेष । जितने भी साधन हैं, सब राग-द्वेष को मिटाने के लिये ही हैं । निर्द्वन्द्व होने से ये दोनों मिट जाते हैं और नित्यप्राप्त शान्ति की अनुभूति स्वतः-सिद्ध होती है । यही नित्य संन्यास अर्थात् भीतरी
एवं सच्चा संन्यास है । अतः व्यवहार में संसार से सम्बन्ध दिखने पर भी भीतर से सम्बन्ध नहीं होता, उस मनुष्य
को संन्यास-आश्रम में जाने की
आवश्यकता नहीं है । यही 'कर्म में अकर्म' देखना है ।
जिसके सम्पूर्ण कर्मों का आरम्भ संकल्प और कामना से रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण
कर्म ज्ञान-रुपी
अग्नि से
जल गये हैं, उसको ज्ञानीजन
भी पण्डित (बुद्धिमान्) कहते हैं । ।।4.19।। 'ये विषय पदार्थ अच्छे हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी बुद्धी का होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धि का होना 'विकल्प' है । संकल्प से 'उन विषय-पदार्थ को प्राप्त करने की
जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है । संकल्प और कामना न रखते हुये कर्म करने वाले मनुष्य के कर्म
अकर्म हो जाते
हैं ।
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का
त्याग करके स्पृहा रहित,
ममता रहित और अहंकार रहित होकर आचरण करता है, वह
शान्ति को प्राप्त होता है । ।।2.71।। मनुष्य निःस्पृह-(जीवन निर्वाह की वस्तुओं का सेवन करते हुए भी उन पर आश्रित न) होकर, ममता रहित-(वस्तु, आदि को अपनी न मानकर) और निरहंकार- (स्व- द्रष्टा, दृश्य-शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि से अलग है ऐसा अनुभव) होकर स्वतः-सिद्ध शान्ति का अनुभव कर सकता है ।
संसार में
संन्यासी पुरुष का महत्व तो है, पर गृहस्थ में रहकर सब कर्तव्य-कर्म करते हुए
भी जो निर्लिप्त रहता है वह समाज के लिये अत्याधिक महत्वपूर्ण है ।
विचार उत्तम है
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