इस प्रकृति/पृथ्वी का अरबों वर्षों का इतिहास है, और हमारी मानव जाति का ज्ञात इतिहास केवल 5000-6000 वर्ष पुराना है। हम जो भी बदलाव दर्ज कर रहे
हैं वे सिर्फ 200-300 साल के अध्ययन या रिकॉर्ड है। इनमें से कई अवलोकन महज 40-50
साल पुराने हैं। अतः अभी हम यह भी निश्चित रूप से नहीं
जानते कि परिवर्तन क्या हैं, हैं भी या नही, और यदि हैं, तो वे मानव गतिविधि के कारण हैं या प्रकृति या पृथ्वी के चक्रीय परिवर्तन (Cyclical
Changes) के कारण हैं।
हालांकि, मैं उन लोगों की ईमानदारी को कम नहीं आँकता हूँ जो इस देश या ग्रह की
परवाह करते हैं। न ही मैं सभी हितधारकों- चाहे वह माता-पिता, स्कूल, समाचार पत्र, टीवी, सरकार, गैर सरकारी संगठन आदि- द्वारा दिए गए सुधार या पृथ्वी को बचाने
के लिए दिये जा रहे संदेशो को कम करके आंकता हूँ, पर वे यह कह कर कि मानव बदलाव ला रहा हैं, एकमात्र परिणाम “डर का भाव (Fear Psychosis /Syndrome)” पैदा कर रहे हैं, और उन्हें गंभीरता से लेना हमारे अपने जीवन को
नुकसान पहुंचा सकता है और बदले में जीवन से खुशी छीन सकता है। उदाहरण के लिए, मेरी पीढ़ी ने जनसंख्या विस्फोट की चेतावनी को गंभीरता से
लिया और परिवार को एक बच्चे तक सीमित कर बच्चे को स्वस्थ मानसिक विकास के लिये आवश्यक पारिवारिक परिवेश से वंचित कर दिया। और अब हम पिछले 30 सालों से भारत की अधिक जनसंख्या के लाभ(Demographic
Dividend) को सुन रहे हैं।
याद रखने वाली पहली बात यह है कि कयामत के भविष्य वक्ता जो भी कह
रहे हैं, वे कई दशकों से कह रहे हैं और हमेशा सही साबित नहीं होते रहे हैं। वास्तव में कोई भी, किसी देश या
समाज के 5-10 साल से आगे की परिस्थिती की भविष्यवाणी नहीं कर सकता है। दूसरी बात सभी भविष्यवाणियां वास्तव में तर्क के दो स्तंभो पर आधारित
होती हैं। पहला तर्क है- ये गतिविधियाँ हमेशा के लिए जारी रहेगी (This trend will continue forever) और दूसरा तर्क है- उपलब्ध समाधानों (
Present Solutions to problems are insufficient) के साथ परिणाम अपूर्णीय क्षति के हो सकते हैं, अर्थात, एक इन-बॉक्स (In Box) दृष्टिकोण। ये दोनो ही तर्क इतिहास की कसौटी पर सही नही
रहे हैं और आगे भी गलत साबित होगें।
हमे यह याद रखना चाहिए कि, प्रकृति-समाज हमेशा बदलते रहे हैं और मानव मन-जो अभी तक नहीं हुआ है या मन ने जिसका अनुभव नहीं किया है अर्थात -लीक से हटकर संभावनाओं को समझने/कल्पना करने
में सक्षम नहीं है। इसका सबसे अच्छा
उदाहरण है, जब हम पृथ्वी से परे जीवन की खोज करते हैं, तो हम इसे हमेशा पानी और ऑक्सीजन की उपलब्धता से जोड़ते हैं। क्या यह संभव
नहीं है कि कोई अन्य जीवन प्रणाली हो जो किसी अन्य प्राकृतिक तत्वों पर जीवित और
विकसित हो रही हो? एक और उदाहरण, सिर्फ 50 साल पहले किसी
ने सोचा नहीं होगा कि इंटरनेट हमारे संचार या सामाजिकरण के तरीके को बदल देगा।
अतः यह कल्पना करना और मानना आवश्यक है कि आज की घटना-व्यवस्था कल बदल जाएगी, और नई चीजें अस्तित्व में आएंगी- न केवल विज्ञान के कारण बल्कि बदलती धारणाओं, कानूनों, धर्म, राजनीति और अर्थशास्त्र
आदि के कारण भी। इसे एक छोटे से अर्थशास्त्र के उदाहरण से देखा
जा सकता है। पेट्रो उत्पाद से नष्ट होने वाले प्रदूषण से बचने के लिये वैकल्पिक ऊर्जा
स्रोत उपलब्ध हैं और उनका उपयोग करने के
लिए साधनों की कमी भी नहीं है, लेकिन वर्तमान में पेट्रो उत्पादों की तुलना में वे अधिक कीमत पर उपलब्ध हैं। अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार, यदि पेट्रो उत्पादों की आपूर्ति कम हो जाती है, तो उनकी कीमतें बढ़ जाएंगी। यह पेट्रो उत्पादों के प्रतिस्पर्धी ऊर्जा के
वैकल्पिक स्रोतों के उपयोग पर बल देगा । यह होने लगा है, और सौर ऊर्जा बड़े पैमाने पर सामने आ रही है। इसके अलावा एक अन्य उदाहरण- एक सदी पहले भी मुंबईकर, शहर मे बाहरी लोगो के आने, आवागमन की परेशानी (Traffic Jams), दयनीय जीवन आदि पर आक्रोशित हो रहा होगा, लेकिन ऊँचे- ऊँचे अपार्टमेंट (High rise Apartments), फ्लाईओवर आदि जिनके बारे
में कभी नहीं सोचा गया था, वे लगातार बढ़ती जनसंख्या के दबाव को समायोजित करने के लिए आ ही गए हैं। तथ्य यह है कि जिस दिन मुंबई में जीवित रहने के
अवसरों की तुलना में अधिक समस्याएं होंगी, जनसंख्या प्रवाह
अपने आप उलट (Reverse) जाएगा।
झूठे अलार्म (False Alarm) बजाकर नए विकास से विनाश होगा कहकर उसका विरोध करने की
प्रवृत्ति होती ही है, जो एक पीढ़ी के अंतराल
के बाद कभी-कभी हास्यास्पद लगती है। इसलिए जब एक्स-रे की खोज की गई, तो लोगों ने सोचा, यह लोगों की निजता का अतिक्रमण करेगा और अश्लील
साहित्य और नग्नता को प्रोत्साहित करेगा। इसी तरह, जब जलविद्युत शक्ति
अस्तित्व में आई, तो व्यापक रूप से यह अन्धविश्वास था कि
टर्बाइनों से गुजरते समय पानी की शक्ति समाप्त हो जाती है और उपलब्ध पानी
न तो कृषि के लिये, न पीने के लिए अच्छा रहता है और इसे हानिकारक
माना जाता था। इनमें से कोई भी अनुमान सत्य नहीं थे।
तथ्य यह है कि महाद्वीप, राष्ट्र और शासक भले ही समृद्ध
और नष्ट हो गए हों, लेकिन मानव-इतिहास प्रगति का
एक सहज इतिहास है, जो “आग और पहिये” की खोज से लेकर “अंतरिक्ष यात्रा” के वर्तमान समय तक का है। हर पीढ़ी ने समस्याओं
का सामना किया है और उन्हें अपने तरीके से हल किया है। आज हम भोजन की कमी के बारे में शिकायत करते हैं लेकिन इसकी तुलना उन्नीसवीं सदी के
अकाल -जिसमें लाखों लोगों ने जान गंवाईं हैं- से कर सही दृष्टीकोण भी अपना सकते हैं। इसके अलावा, वर्तमान मे हम विभिन्न समूहों के बीच असमानता देख आक्रोशित होते हैं, लेकिन यह समझें कि खानाबदोश युग (Not having residence at one place, wanderers, Might is right concept), तथा गुलामी की संस्कृती से आगे विकसित होकर मानव/समाज ने लोकतंत्र प्रणाली (सभी बराबर हैं ,यह सिद्धान्त) के विकसित होने तक के कई बदलाव देखे और किए हैं। जीवन के
हर क्षेत्र में प्रगति-परिवर्तन के ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं।
अंतिम लेकिन एक महत्वपूर्ण विचार- राष्ट्र और समाज के जीवन की तुलना में, हमारा अपना जीवन बहुत छोटा है; और जीवन का हर चरण केवल एक बार हमारे पास आता है।
इसलिए हमें भविष्य में आने वाली समस्याओं और खतरों के अनुमानों और कल्पनाओं से, न भयभीत होना चाहिये, न अपना समय बर्बाद करना चाहिए, बल्कि हमें प्रकृति के प्रति लापरवाह हुए बिना उपलब्ध साधनों का
सर्वोत्तम उपयोग कर अपना जीवन आनन्द-मय बनाना चाहिये। मेरा विश्वास है, प्रकृति-पृथ्वी और उनके
संसाधन, अपवाद के बिना (Without
Exception) हमारी आने वाली पीढ़ियों सहित सभी के लिए उपलब्ध रहेंगे ही।
भविष्य से डरो मत, खुश रहो, अपना जीवन जियो तथा जिम्मेदारी से
काम करो ।
Excellently analysed contradictory propositions to conclude necessity of coexistence with nature. A great read....
ReplyDeleteNatural Resources are limited, so be careful
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