प्रत्येक व्यक्ति / समूह /समाज/ राष्ट्र की “वास्तविकता” (वस्तुस्थिती) के बारे में अपनी एक “धारणा” (सोच, मान्यता) होती है, क्योंकि हम में से प्रत्येक दुनिया को अपनी आंखों से देखता हैं, हर व्यक्ति की वास्तविकता अन्य व्यक्ति की वास्तविकता से अलग हो जाती है । अतः सिर्फ इसलिए कि हम सोचते हैं कि कुछ वास्तविकता है, यह वास्तविक नहीं बन जाता । इस (तथ्य/सिद्धान्त) को समझने, स्वीकारने और व्यवहार मे लाने या न लाने से स्वयं और सामाजिक सद्भाव आदि के लिए, क्या अर्थ, उपयोग या परिणाम है? क्या स्वयं की धारणा (Perception) को वास्तविकता मानने से हमें जीवन में मदद मिलती है ? इसके विपरीत यह स्वीकारना की मेरी/हमारी धारणा वास्तविकता नहीं (भी हो सकती) है, मैं/हम गलत हो सकते हैं स्वयं के अस्तित्व, विकास और सामाजिक सद्भाव आदि में सुधार कर सकती है?
धारणा की शब्दकोश परिभाषा1: "किसी चीज को समझने या व्याख्या करने का तरीका; एक मानसिक प्रभाव । ” परिभाषा2: "अवलोकन का परिणाम", यह "अनुभव के प्रकाश में व्याख्या की गई एक शारीरिक संवेदना" है। वास्तविकता की शब्दकोश परिभाषा: "दुनिया या चीजों की स्थिति जैसे वे वास्तव में मौजूद हैं ... अस्तित्व जो पूर्ण, आत्मनिर्भर, है, और मानव निर्णयों या संवेदनाओं के अधीन नहीं है।" स्पष्ट रूप से, धारणा और वास्तविकता की बहुत अलग-अलग परिभाषा और अर्थ हैं। धारणा पूरी तरह से दिमाग में होती है जिसमें मानसिक बाजीगरी से किसी भी विश्वास को (स्वंय के लिये) वास्तविकता में बदला जा सकता है। इसके विपरीत वास्तविकता पूरी तरह से दिमाग के बाहर मौजूद है और इसमे हेरफेर नहीं किया जा सकता है।
हमारी प्रवृत्ति यह मानने
की होती है कि हम जिसे वास्तविकता समझते हैं वह ही वास्तव में
वास्तविकता है। लेकिन ऐसा नहीं है । कारण की जिस लेंस (धारणा) के माध्यम से
हम अनुभव करते हैं वह अक्सर हमारे आनुवंशिक पूर्वाग्रहों, पिछले अनुभवों,
पूर्व ज्ञान, भावनाओं, पूर्वकल्पित धारणाओं, स्वार्थ आदि द्वारा पहले से ही विकृत (Distorted) होता है। हमारी धारणाएं
प्रभावित करती हैं कि हम वास्तविकता पर कैसे ध्यान केंद्रित करते हैं, समझते हैं - आदि-आदि। फिर हम वास्तविकता
को इंद्रियों के माध्यम से ही अनुभव करते हैं (जिनकी अपनी सीमाएं हैं) । उदाहरण के लिए,
मनुष्य
ध्वनियों की एक सीमित तरंग-श्रेणी के बाहर सुन नही सकते अतः हम कुत्ते के सीटी ( उन्हे
प्रशिक्षण के दौरान बजाई जाने वाली उच्च तरंग की ध्वनी) सुन नही सकते हैं इसका
अर्थ यह नहीं होता कि, ध्वनि-तरंग वातावरण में वास्तव में मौजूद नहीं है। क्योंकि हम सीधे वास्तविकता
का अनुभव नहीं करते हैं, कुछ दार्शनिकों का तर्क है कि वास्तविकता वास्तव में मौजूद ही नहीं है,
बल्कि एक व्यक्तिपरक कल्पना है ।
"हमारी धारणा वास्तविकता
से अलग होने से क्या लाभ या हानि है?" एक
मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है जो सकारात्मक भ्रम कहलाता है, जिसमें किसी की
क्षमताओं के बारे में थोड़ा फुलाया हुआ दृष्टिकोण शामिल है, जिसके व्यावहारिक लाभ(आशा
देना है, दृढ़ता को बढ़ाना) हो सकते हैं । जैसे विद्यार्थी माने की वह वर्तमान में
प्राप्त 90 प्रतिशत की जगह 95 प्रतिशत अंक ला सकता है, यह धारणा उसे प्रेरणा देगी। हालांकि,
अगर धारणा
वास्तविकता से बहुत दूर भटकती है (विद्यार्थी माने की वह प्राप्त 60 प्रतिशत की जगह 95
प्रतिशत अंक ला सकता है) तब यह भ्रम (गलत विषय या
संकाय के चुनाव से) हानिं पहुंचा सकता है । य़ही नियम समाज और ऱाष्ट्र के लिये भी लागू
होते हैं। भारत के संदर्भ मे हम क्या धारणा रखें ? विश्व की 5वीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति या व्यक्तिगत आय के आधार पर 194 देशो
में 144वें क्रम का देश ? यह सही है कि हमे पराधीनता से उत्पन्न हीन भावना
को समाप्त करना है पर हमारी संस्कृति की (कमीयों को अनदेखा कर) श्रेष्ठता और (जहां पहुचंना है, वहां पहुंच गये हैं मानकर)
आर्थिक समृद्धि के बारे में उल्लासमय/ खुशी से भरी(Euphoric)
मानसिकता अन्ततः नुकसान ही पहुंचाएगीं। गलत धारणा से राष्ट्र विश्व
मे अपनी स्थिती का गलत मुल्याकंन कर सकता है, समाज के लिये उसकी प्राथमिकतायें गलत
हो सकती हैं, आदि आदि। इनके
दुष्परिणाम के रुप में विद्यार्थी/
राष्ट्- अप्राप्य, अवाछिंत लक्ष्य निर्धारित करेगा, कठिन कार्य के
लिए कम तैयारी करेगा और अन्ततः
निराशा ही हाथ आयेगी ।
एक और अलग पहलु है, जब व्यक्तियों, समुहों,
राष्ट्रों में अलग-अलग मगर विपरीत धारणाएं विकसित होती हैं, तो आपसी सहयोग का कोई आम आधार नहीं मिलता। जैसे राष्ट्र/राज्य की वर्तमान स्थिती और इच्छित दिशा के बारे में विभिन्न
राजनीतिक दलों में व्यापक रूप से विरोधी धारणाएं हो तो शासन और विकास करना असंभव हो जाता है।
किसी देश में धारणाओं के बीच बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण से समाज को एक
साथ रखने वाली संस्थाओं के धीमे, लेकिन निश्चित, विघटन की संभावना भी होगी।
वास्तविक दुनिया में रहने, दूसरों के साथ आम सहमति खोजने और जीवन के लिए आवश्यक संस्थाओं को बनाए रखने
के लिए यह आवश्यक है कि हमारी धारणाएं
वास्तविकता के करीब रहें । अपनी धारणा को हम वास्तविकता के करीब कैसे रखें? किसी भी स्थिति
में, कुछ प्रश्न हैं जो हम अपनी धारणा को बेहतर ढंग से समझने के
लिए खुद से पूछ सकते हैं। क्या मेरी धारणा स्थिति की वास्तविकता से मेल खाती है? स्थिति के तथ्य
क्या हैं? (मै सोचता हुं कि मैं गरीबी के कारण आगे नही बढ़ पा रहा हुं, पर आसपास देखता
हुं तो मुझसे भी गरीब लोगो को तरक्की किये हुये पाता हुं) । खुद को अन्य व्यक्ति (संस्था) की धारणा में रखकर देखना (Empathy) भी फायदेमन्द होगा। फिर सभी सामाजिक
मुद्दों को पारस्परिक संवाद करके हल भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए: मान लें कि मेरे एक नये मित्र ने रात्रिभोज
पर आने का वादा किया पर वह नही आया। यदि मेरे पिछले अनुभवों में छूटे हुए (left out) या महत्वपूर्ण नहीं होने की हीनभावना शामिल है,
तो मैं स्वतः ही यह धारणा बना सकता हुं कि इस नए
मित्र को मुझसे मित्रता करने में कोई दिलचस्पी नहीं है पर श्रेयस्कर य़ह होगा कि मैं मित्र से न आने का कारण पता
करुं।
सबसे महत्वपूर्ण, हमारी
धारणा वास्तविकता नही है फिर भी वह हमारी वास्तविकता
है और हमारा भविष्य निर्धारित करती है। अतः हमारी वास्तविकता में स्वयं की भूमिका को
समझना और आवश्यक हो तो बदलना महत्वपूर्ण है। एक धारणा (सोच) रखने की कोशिश
करें जिसमें कृतज्ञता/ सकारत्मकता शामिल हो। इसके लिये अपने विचारों और निराशा की भावनाओं को चुनौती दें कि
चीजें कैसे बदतर हो सकती थी या इसका कोई अन्य अर्थ है क्या ? उस नए मित्र का उदाहरण लें जो आप के साथ रात्रिभोज पर नही आया। क्या होगा अगर मैं महत्वहीन
महसूस करने के बजाय, स्थिति को वैसा ही देखुं जैसी की वह है –एक स्थगित रात्रिभोज, जिसने मेरे पास खाली समय छोड़ दिया। क्या होगा
यदि मैं इसे एक संकेत के रूप में लूं कि मुझे अकेले समय बिताने की आवश्यकता है? उस खाली समय में (मित्र के न
आने के कारण पर विचार करने की बजाय) मैं अपने लिए जो कुछ कर सकता हैं, उस पर ध्यान
केंद्रित करने से मुझे अधिक लाभ होगा । मेरी धारणा कुछ गलत से, कुछ सही में बदल सकती
है। यह वह क्षण है, जहां हमे विश्वास होता है- अगर ऐसा (नहीं) हुआ तो यह एक बड़े अच्छे कारण के लिए (नहीं) हुआ है। मुझे
व्यक्तिगत रूप से लगता है कि यह विश्वास हमारी धारणा और भविष्य को बेहतर बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
कृतज्ञता, सकारात्मक
दृष्टिकोण, विश्वास आदि क्यों रखना चाहिए ? क्योंकि भावनाओं से ही, हम अच्छे और
बुरे दोनों से भरी, दुनिया को अनुभव करते हैं। वे (अच्छी और बुरी) वास्तव में हमारी अपनी रचनाएं (Creations) हैं, और उनके पास
हमारी सबसे पुरानी और सबसे मौलिक मस्तिष्क संरचनाओं का ज्ञान और विपरीत ज्ञान दोनों हैं। बुरा
लगने से चीजें कठिन लगने लगती हैं। जो कोई भी कभी उदास या निराश महसूस करता है,
वह जानता है ऐसे समय में दुनिया का
सामना करना मुश्किल होता है। "भावनाएँ
वस्तुओं, लोगों और स्थितियों के पास जाने या उनसे बचने के लिए लाल या
हरी बत्ती का काम करती है, ।" इसका अर्थ है कि हमारी सकारात्मक भावनाओं को प्रोत्साहित करने से हमें
कठिन कार्यों को (वस्तुओं, लोगों और स्थितियों से interact कर) आसानी से करने में मदद मिलती है।
तथ्यों को अस्वीकार कर धारणा को वास्तविकता मानना विनाश को न्यौता देना है। इससे बचने के लिए: यह मत
मानिए कि हमारी धारणाएँ सार्वभौम
(Univarsal) वास्तविकता हैं । अपनी धारणाओं को बहुत कसकर न पकड़ें; वे गलत हो सकती हैं । धारणाओं
को विकृत करने वाली स्वयं के भीतर की विकृतियों को पहचानें । स्वयं की धारणाओं को चुनौती दें और विशेषज्ञों और विश्वसनीय लोगों से तथ्य प्राप्त करें । यदि तथ्य मांग करते हैं तो अपनी धारणाओं
को बदलने के लिए तैयार रहें। सबसे मुक्ति दायक चीजों में से एक, जो हम कर सकते हैं वह है आत्मनिरीक्षण करके एक नया
दृष्टिकोण प्राप्त करना । आत्मनिरीक्षण हमें अपने पिछले अनुभवों की जांच करने,
उनके माध्यम से
काम करने, उनसे सीखने आदि में मदद करता है। तर्क और धारणा में संतुलन बनाकर अपनी नई वास्तविकता का
निर्माण करें । अन्तिम पर महत्वपूर्ण, कम से कम, दूसरों की
धारणाओं का सम्मान करें क्योकिं वे सही हो सकती हैं।
धारणा के बारे में धारणा के
इस बदलाव से हम सभी को फायदा होगा। एक कहावत है “नजरिया बदले,
नजारा बदल जायेगा” ।
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