गीता में,
सात्त्विक, राजस या तामस गुणो वाले मनुष्य की पहचान, वह यज्ञ, दान, तप, ज्ञान, आदि
कर्म करता है या नही और उनको करते समय उसके क्या भाव रहते हैं इस आधार (अन्य आधार
भी हैं) पर की गई है। परन्तु सभी मनुष्य वे कर्म करे ही यह आवश्यक नही और
करने पर भी कर्ता के भाव को पहचानना कठिन है। जैसे दान करते समय व्यक्ति के तीन
भाव हो सकते हैं- प्रतिफल की आशा करे बगैर सुपात्र को (सात्विक), प्रतिफल की आशा
के साथ पात्र-अपात्र को (राजस), और कष्ट के साथ (तामस), देना । पर अन्य व्यक्ति इन
भावों को कैसे पहचाने ? परन्तु प्रत्येक मनुष्य भोजन
तो करता ही है, अतः गीतानुसार किस तरह के आहार
में
उसकी रुचि है इस आधार पर भी
मनुष्य (आहारी) के गुणों को पहचाना
जा सकता है।
।।17.7।। आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी तीन प्रकार की रुचि होती है, तू उनके इस भेद को सुन । ।।17.7।। समस्त सामिष, निरामिष, पक्व और अपक्व आहारों के
चार प्रकार हैं । भक्ष्य-चबाने वाला, भोज्य/पेय-निगलने वाला, चोष्य-चूसने वाला और लेह्य-चाटने वाला। जैसा अन्न होता है, वैसा
ही मन बनता है । भोजन करते समय
प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीर के
सभी रोमकूपों से आसपास के परमाणुओं को भी ग्रहण करते हैं। अतः भोजन और जहाँ हम भोजन करते हैं, वहाँ का
स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा भोजन का
आसन भी
शुद्ध, पवित्र होना चाहिये। वृत्तियों का असर भी भोजन पर
पड़ता है (लोभ, द्वेष, ईर्ष्या,
भय
और क्रोध से युक्त मनुष्य जिस भोजन को करते हैं, वह
अच्छी तरह न पचकर उससे अजीर्ण हो जाता है) इसलिये मनुष्य को
चाहिये कि वह भोजन करते समय मन को शान्त तथा प्रसन्न रखे। । भोजन
कराने वाले के भाव का भी भोजन पर
असर पड़ता है अतः शुद्ध सात्त्विक भाव,
विचार
वालों से ही भोजन ग्रहण करें।
।।17.8।। आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर रहनेवाले, हृदय को शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने -- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं। ।।17.8।। जिन आहारों के करने से मनुष्य की आयु बढ़ती है, सत्त्वगुण
बढ़ता है, शरीर, मन, बुद्धि
आदि में सात्त्विक बल एवं उत्साह
पैदा होता है,शरीर निरोगी रहता
है, सुख शान्ति प्राप्त होती है, वे आहार सात्विक मनुष्य को अच्छे लगते हैं। इनमे, सुपाच्य पदार्थ
जो
अच्छे पके हुए तथा ताजे हैं, जिनका सार बहुत दिन तक शरीर को
शक्ति देता है, बुद्धि आदि में सौम्य भाव लाने वाले फल, दूध
आदि, रसयुक्त पदार्थ और सात्त्विक पदार्थों से निकले हुए तेल आदि शामिल हैं ।
अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाहकारक आहार अर्थात् भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, जो कि दुःख, शोक और रोगों को देनेवाले हैं ।।।17.9।। इस प्रकार के भोजन के पदार्थ राजस
मनुष्य को प्यारे होते हैं। परन्तु ऐसे पदार्थ परिणाम में
दुःख, शोक और रोगों को देनेवाले होते हैं।
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो महान् अपवित्र भी है, वह तामस मनुष्य को प्रिय होता है। ।।17.10।। इनमे अधपके, ज्यादा पके हुए, बिना ऋतु के पैदा किये हुए एवं फ्रिज आदि की सहायता से रखे हुए
साग, फल आदि, जिनका स्वाभाविक रस सूख
गया है अथवा मशीन आदि से जिनका सार खींच लिया गया है,
ऐसे दूध, फल आदि, सड़न से पैदा की गयी मदिरा, स्वाभाविक दुर्गन्ध वाले
प्याज, लहसुन आदि, शामिल हैं । बासी- (नमक और पानी से बने और रात बीते हुये) पदार्थ
जैसे-साग,
रोटी । जूठन- भोजन के बाद पात्र में
बचा हुआ,
जूठा हाथ लगा हुआ
या
जिसको पशु-पक्षी देख ले, सूँघ
ले या खा ले । मांस, मछली, अंडा
आदि अपवित्र पदार्थ । ऐसा भोजन तामस मनुष्य को प्रिय
लगता है।
सात्त्विक मनुष्य भोजन करने आदि
किसी भी कार्य में विचारपूर्वक प्रवृत्त होता है और उसकी दृष्टि सबसे
पहले उसके परिणाम पर जाती है पर राजस मनुष्य की
दृष्टि पहले भोजन पर जाती है और बाद में फल पर। अतः उपरोक्त श्लोको में भी उसी अनुसार क्रम है। तामस मनुष्य भोजन और उसके
परिणाम पर विचार ही नहीं करता अतः तामस
भोजन का फल बताया ही नहीं गया है।
उपरोक्त विवेचन में पदार्थानुसार गुणों का विभाजन किया गया
है। पर जैसा की पहले कहा है भोजन में भी भाव का महत्व है, अतः सात्त्विक भोजन भी
अगर अच्छे स्वाद के कारण खाया जाय, तो वह राजस हो जाता है और अजीर्ण होने तक
खाया जाय
तो वह तामस हो जाता है। ऐसे ही प्राप्त रूखा, सूखा, तीखा और बासी भोजन (जो कि राजस-तामस है) को भोग लगाकर प्रसाद स्वरुप खाया जाय, तो वह भी सात्त्विक हो जाता है।
आहार में हमने यहाँ, जीभ से ग्रहण किये जाने वाले रस को ही लिया
है पर वृहद रुप से अन्य ज्ञानेन्द्रियों आँख, कान, नाक, त्वचा द्वारा ग्रहण किये
जाने वाले विषय क्रमशः रुप, शब्द, गंध, स्पर्श भी आहार ही हैं। अतः हम इन विषयों
के आधार पर भी मनुष्यों को सात्विक, राजस या तामस मान सकते हैं। इसी प्रकार, जिस
तरह हम भोजन के चुनाव में सावधानी रखते हैं इनके चुनाव में भी सावधानी रखकर स्वंय
को सम्पूर्णतः सात्विक बनाये रखना होगा ।
Explained beautifully.🙏
ReplyDeleteBahut badhiya 👌👍👌
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