मनोविज्ञान में गीता का एक महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उसमें मनुष्य या उसके
स्वभाव को तीन वर्गो में विभाजित किया है। मनुष्य के वर्ग को पहचानकर हम किसी भी
व्यक्ति (समाज और राष्ट्र) के अगले कदम और उसके परिणाम (भविष्य) का अनुमान लगा
सकते हैं। इसी प्रकार एक समाज और ऱाष्ट्र में तीनो ही प्रकार-स्वभाव के मनुष्य अवश्य
होगें। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अन्य स्वभाव के व्यक्ति के साथ व्यवहार करते आना
चाहिये। समाज या शासक को भी अपने नीति-नियम बनाते समय तीनो स्वभाव के व्यक्तियों को
ध्यान में रखकर उनमें उचित प्रोत्साहन/ दण्ड का प्रावधान रखना चाहिये।
हे महाबाहो !
प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले सत्त्व, रज और तम- ये
तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं।।।14.5।। तीनों
गुणों के तारतम्य से प्राणियों के
अनेक भेद हो जाते हैं। वह (स्वयं) ही- मैं शरीर हूँ या शरीर मेरा है -ऐसा मानकर इन गुणों के साथ सम्बन्ध (गुणों के कार्य -स्वभाव, वृत्तियाँ, क्रियाएँ आदि-को अपना मानना) जोड़कर बँध (स्वयं को सात्विक, राजस और तामस मानना) जाता है।
जब इस मनुष्य
शरीर में सब द्वारों-(इन्द्रियों और अन्तःकरण-) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान
(विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण
बढ़ा हुआ है। ।।14.11। हे पापरहित अर्जुन ! उन गुणों में
सत्त्व गुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और
ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।।।14.6।।। सत्त्वगुण की अधिकता होने से काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि दोषों का स्पष्ट ज्ञान
होता है। इन्द्रियों में प्रकाश, चेतना
और हलकापन प्रतीत होता है, बुद्धि
पूरी तरह कार्य करती है, कार्य करने में बड़ा उत्साह रहता है । मनुष्य ज्ञानमय होकर निर्विकार, सुखी और शान्त
रहता है, और इच्छा होती है यह स्थिती हमेशा बनी रहे। उसे मैं ज्ञानी हूँ-यह अभिमान भी हो जाता
है। इस तरह सत्त्वगुण सुख (शान्ति) और ज्ञान की आसक्ति/ अभिमान से मनुष्य को बाँध देता है ।
हे कुन्तीनन्दन
! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम राग स्वरूप समझो। वह कर्मों
की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है। ।।14.7।।हे भरतवंशमें
श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति,
कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -ये
वृत्तियाँ पैदा होती हैं।।।14.12।। किसी
वस्तु और व्यक्ति आदि में
प्रियता पैदा हो जाना रजोगुण या राग है और वे मिले-मिलते रहे (तृष्णा) और बने रहे (आसक्ति), इस इच्छा-भाव
से मनुष्य नये-नये कर्म का चिन्तन और कर्म करना शुरू कर देता है । फल की इच्छा से
कर्मों को करने में और कर्मों के फल भोगने में भी एक सुख होता है । इस
कर्म और फल-सुख की आसक्ति से मनुष्य बँध जाता है।
निर्वाह की चीजें पास में होने पर भी उनको अधिक
बढ़ाने की इच्छा का नाम 'लोभ' है। कार्यमात्र में लग जाने का नाम 'प्रवृत्ति' है। रागपूर्वक क्रिया में प्रवृत्त हो जाना ही दोष है। संसार में धन, मान, आदि पाने के
लिये नये-नये कर्म करना 'कर्मों का आरम्भ' है। अन्तःकरण में हलचल रहने का नाम अशान्ति है। स्पृहा नाम आवश्यकता का
है और वे मिल
जाय - ऐसी इच्छा करना ही दोष है।
हे भरतवंशी
अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न
होनेवाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा
देहधारियों को बाँधता है। ।।14.8।। तमोगुण अज्ञान से अर्थात् बेसमझी तथा मूर्खता से पैदा होकर देहधारियों को मोहित कर देता है अर्थात् कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं होने
देता। यह सांसारिक सुखभोग,और संग्रह में भी नहीं लगने देता, उसकी उन्नति नहीं होने देता । प्रमाद, आलस्य और निद्रा दो तरह के होते है । प्रमाद- करने लायक काम को न करना और न करने लायक काम को करना। आलस्य -सोते रहना, निकम्मे बैठे रहना (दोष है) और निद्रा आदि के पहले शरीर भारी हो जाना आदि,(दोष नहीं है) । निद्रा – स्वास्थ के लिये आवश्यक निद्रा दोष नहीं है और केवल अनावश्यक निद्रा ही त्याज्य और दोष है।
(विवेकी पुरुषों ने)
शुभ-कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल
दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है। ।।14.16।। जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से
आरम्भ में अमृत की तरह और परिणाम में विष की तरह होता है, वह सुख राजस कहा गया है। ।।18.38।। सभी
कर्म क्रिया मात्र ही होते हैं। उनका कर्ता ही सात्त्विक, राजस और तामस होता है। सत्त्वगुणवाला कर्ता जो कर्म करेगा, वह कर्म सात्त्विक होगा और फल स्वरूप जो परिस्थिति बनेगी, वह भी शुद्ध, निर्मल और सुखदायी
होगी । रागवाले कर्ता के
द्वारा जो कर्म होगा, वह
कर्म भी राजस ही होगा और उस राजस कर्म का
फल, भोग (शरीर में सुख-आराम) होगा। परन्तु ये जितने भी (लोभ आदि से
उत्पन्न) सम्बन्धजन्य भोग हैं वे सब के सब (अन्ततः समाप्त होने से) दुःखों के ही कारण हैं । तामस
कर्ता सामर्थ्य और परिणाम को न देखकर मूढ़ता पूर्वक
जो कुछ कर्म करेगा उसका फल अज्ञान ही होगा।
उपसंहार- कैसी भी परिस्थिति आ जाये सात्त्विक पुरुष को दुःख नहीं हो सकता, राजस पुरुष सुखी नहीं हो सकता और तामस पुरुष में विवेक जाग्रत् नहीं हो सकता । मनुष्य को चाहिये कि वह तमोगुण,रजोगुण त्यागकर सत्त्वगुण अपनाये और शान्त, सुखी व
ज्ञानमय जीवन बिताये और अन्ततः वह यह मानकर
कि सभी गुण प्रकृति के कार्य हैं और उसका इनसे कोई
संबन्ध नही है, गुणातीत हो जाये।
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