भक्ति, कर्म और ज्ञान का पर्याय नही है, यह उनका चरमोत्कर्ष है । कर्म कितना भी कठोर और सतत हो उसका परिणाम, प्रकृति के अनन्त कारकों पर निर्भर रहेगा तथा ज्ञान कितना भी विशाल या गहरा हो अन्ततः वह आपका एक दृष्टिकोण या किसी सन्दर्भ में तथ्य ही है, शाश्वत सत्य नही । इन कारणों से और इस अनुभव से कि वस्तु, व्यक्ति आदि पूर्ण संसार निरन्तर बदल या नष्ट हो रहा है मनुष्य हमेशा सतत तृप्त या शान्त न रहकर द्वन्द में रहता है ।
इस द्वन्द को समाप्त करना ही भक्ति है । भक्ति का अर्थ है, ज्ञान और कर्म को छोड़े बिना यह ध्यान रखना कि प्रकृति में या उससे आगे ऐसा कुछ है जिसके बारे में हमें मालूम नही है तथा बदलते-नाशवान संसार को महत्व न देते हुये उस अज्ञात (परमात्मा) के निर्णय को स्वीकार करना, उसमे शरणागति रखना आदि । इससे हम द्वन्द को समाप्त कर सतत तृप्ति या शान्ति पा सकते हैं । यही सम्पूर्ण दर्शनों का सार है ।
मनुष्य
में (द्वन्द के जनक, संसार के लगाव से) मुख्य विकार चार होते
हैं -- (1)राग, (2)द्वेष, (3)हर्ष और (4)शोक । हर्ष और शोक भी राग-द्वेष के
ही परिणाम हैं । भक्त में एक साथ ही दो
विरोधाभासी वृत्तियाँ पायी जाती हैं । एक तरफ वह संसार के सम्पूर्ण प्राणीयों को
स्वयं का विस्तार मानता है अतः अपने आप में (और सभी से उसे), राग
या द्वेष नही होता । दूसरी तरफ वह, उसके
अपने कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से
भी स्वयं को अलग मानता है । अतः
उनको होने वाले मान-अपमान, सुख-दुःख, आदि से उसे हर्ष-शोक नही होता । जिन पुण्यकर्मा
मनुष्यों के पाप नष्ट हो गये
हैं, वे
द्वन्द्व मोह से रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं । ।।7.28।।
साधन पद्धति, आश्रम, काल, परिस्थिति आदि के
भेद से भक्तों के स्वभाव में परस्पर भेद रहता है । इसी कारण से भक्त का राग-द्वेष और हर्ष-शोक रहित होना बताने के लिये उनके पर्यायवाची शब्दों से अध्याय
12 के 7 श्लोको (पाँच प्रकरणों) में भक्त के 39गुण (श्लोक में गुण संख्या न पढ़े) बतायें
हैं ।अतः किसी एक प्रकरण के भी सब लक्षण जिसमें
हों, वही भक्त है ।
सब
1प्राणियों में द्वेष भाव
से रहित,
2सबका मित्र (प्रेमी) और 3दयालु, 4ममता
रहित,
5अहंकार रहित, 6सुख-दुःख
की प्राप्ति में सम,
7क्षमाशील, 8निरन्तर
सन्तुष्ट,
9योगी, 10शरीर को वश में
किये हुए,
11दृढ़ निश्चय वाला? 12मेरे
में अर्पित मनबुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मेरे को प्रिय है। ।।12.13-14।। भक्त
संसार के किसी भी प्राणी-पदार्थ के प्रति महत्त्व बुद्धि
नहीं रखता, अतः उसके असंतोष का कोई कारण ही नहीं रहता । योगी- मनुष्य का परमात्मा से कभी वियोग हुआ नहीं, इस वास्तविकता का
अनुभव करने वाला ।
13जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और जिसको 14खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं
होता तथा जो 15हर्ष, 16ईर्ष्या, 17भय और 18उद्वेग से रहित है, वह मुझे प्रिय है । ।।12.15।। 'उद्वेग'-मन में हलचल होना । उद्वेग के
होने में अज्ञान जनित इच्छा और आसुर स्वभाव ही कारण है। भक्त से किसी 1मनुष्य को,
तथा भक्त को किसी
2मनुष्य से या 3परिस्थिती से उद्वेग नहीं होता । वह हर्ष रहित
नही होता है, प्रत्युत उसकी प्रसन्नता तो नित्य, एकरस,विलक्षण और अलौकिक होती है ।
'भय'-इष्ट के वियोग और अनिष्ट के
संयोग की आशंका से होनेवाला भाव
।
जो 19आकांक्षा से रहित, 20बाहर-भीतर से पवित्र, 21दक्ष, 22उदासीन, 23व्यथा से रहित और सभी 24आरम्भों का अर्थात् नये-नये कर्मों
के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है,
वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है । ।।12.16।। शरीर से मैं-मेरापन न रहने से भक्त का शरीर व अन्तःकरण
अत्यन्त पवित्र होता है। जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया अर्थात् भगवान
को प्राप्त कर लिया,
वही वास्तव में दक्ष अर्थात चतुर है । उदासीन-
तटस्थ, पक्षपात से रहित । व्यथा- अनुकूलता/ प्रतिकूलता की
प्राप्ति होने पर चित्त में प्रसन्नता/ खिन्नता होना
।'आरम्भ'- भोग और संग्रह के
उद्देश्य से नये-नये कर्म करना ।
जो न कभी 25हर्षित होता है, 26न द्वेष करता है, 27न शोक करता है, 28न कामना करता है और 29जो शुभ-अशुभ कर्मों में राग-द्वेष का
त्यागी है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है । ।।12.17।। ममता,
आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर ही शुभ कर्म
करने के कारण भक्त के कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं। इसलिये
भक्त को शुभ कर्मों का भी त्यागी कहा
गया है ।
जो
30शत्रु और मित्र में तथा 31मान-अपमान
में सम है और 32शीत-उष्ण
(अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा 33सुख-दुःख में
सम है एवं 34आसक्ति से रहित है, और जो
35निंदा स्तुति को समान समझने वाला, 36मननशील, 37जिस-किसी
प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने में) संतुष्ट, 38रहने
के स्थान तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और 39स्थिर बुद्धिवाला
है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।।।12.18-19।। यहां भक्त में व्यक्तियों के प्रति होने वाली
समता का वर्णन है ।
भक्त के साथ भी लोग शत्रुता मित्रता का व्यवहार करते हैं पर वह सम रहता है । शरीर का मान-अपमान या निन्दास्तुति होने पर भी भक्त के अन्तःकरण में
कोई हर्ष-शोक पैदा नहीं होता । मौनी-मननशील-भक्त के
द्वारा स्वतः स्वाभाविक परमात्मा का मनन होता रहता है । वह भगवान में ही नित्य निरन्तर
संतुष्ट रहता है । अनिकेत- वे सभी जिनकी अपने रहने के
स्थान में ममता आसक्ति नहीं है । स्थिर बुद्धिवाला -बुद्धि में भगवत्तत्त्व की (एकमात्र) सत्ता और
स्वरूप के विषय में कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत
ज्ञान) नहीं होना ।
आइये हम सब व्यवहार में उपरोक्त गुण अपनाकर ईश्वर
की पूजा करें ।
भक्तीचा अर्थ पहिल्याच वाक्यात स्पष्ट झाला,मग भक्ताचे ३९ गुणही छान स्पष्ट झाले!
ReplyDeleteभक्त के लक्षणों का अत्यंत ही सुंदर व सुक्ष्म विवेचन किया है।
ReplyDeleteसाधुवाद🙏🏻👍