कोविड-19 दौरान हमने इस महामारी के बारे में सभी नकारात्मक बातें सुनी
हैं। यह कितना हानिकारक रहा है, इसने अर्थव्यवस्था को कितना बुरी तरह प्रभावित किया है, यह रहने का कैसे सबसे बुरा समय है और भविष्य अगली
पीढ़ी के लिए कैसा चुनौतीपूर्ण होगा, इत्यादि- इत्यादि । लेकिन कोविड-19 महामारी जैसी प्राकृतिक (या मानव निर्मित) आपदाएं मानव सभ्यता की प्रगति के लिए दो
महत्वपूर्ण सकारात्मक कार्य करती है जिसे समाज/मनुष्य अपनी जड़ता के कारण नही कर पाते हैं। उनका पहला कार्य है-वे समाज की
(अर्थव्यवस्था, उद्योग, राजनीति आदि) पूरी प्रक्रियाओं को छानते हैं। इससे केवल वे संगठन /
प्रणालियाँ आदि ही छलनी के पार निकल पाते हैं जिनकी आज भी कुछ प्रासंगिकता या विशेष गुणवत्ता बची है। कंप्यूटर की सफाई के समान,अनावश्यक और
अप्रसांगिक संगठन/प्रणालियों को छलनी द्वारा अवरुद्ध किया जाता है और वे व्यवस्था को धीमा करने के लिए आपदा के बाद के समय में रह नही पाते । दूसरा कार्य यह है कि यह पुराने को नष्ट कर
देता है और समाज को नई
व्यवस्था बनाने के लिए एक साफ स्लेट या नई स्लेट देता है।
वास्तव में विनाश और सृजन की जड़ें मानव अस्तित्व के मूल में हैं। हर दिन औसत वयस्क
मानव शरीर 200 अरब से अधिक
कोशिकाओं का निर्माण करता है, और इससे भी बड़ी
संख्या में कोशिकाएं मर जाती हैं। जानवर और पौधे मर जाते हैं ताकि दूसरों को पोषण मिल सके । “विनाश-सृजन” का यह चक्र हमारे अस्तित्व के लिए संतुलन प्रदान करता है।
यह दुनिया भर में कई धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में परिलक्षित भी होता है। हिंदू धर्म में (हर) ब्रह्मांड को
भगवान ब्रह्मा द्वारा बनाया गया, भगवान विष्णु ने संरक्षित किया और भगवान शिव द्वारा अगली
रचना के लिए नष्ट कर दिया गया । शिव एक ही समय में दयालु और भयंकर संहारक हैं।
प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में भी “अपोलो” प्रकाश, ज्ञान और उपचार
के देवता थे, लेकिन उनके पास एक तामसिक
हृदय भी था और वे जल्दी से बीमारी और आपदा ला सकते थे।
ऐसा नहीं है कि केवल प्राकृतिक आपदायें ही ( जहां हमें विनाश का डर था,) अंततः समाज या देश के लिए
वरदान साबित हुई हैं, मानव निर्मित आपदायें भी अंततः हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हुई है। याद करें कि तेल उत्पादक देशों ने 1970 के दशक में ओपेक
का गठन किया था और तेल की कीमतों में वृद्धि की थी। हमें डर था कि यह हमारे विदेशी
मुद्रा भंडार को समाप्त कर देगा और हमारे पास कच्चे तेल के आयात के लिए पर्याप्त
विदेशी मुद्रा नहीं होगी। लेकिन उनको मिली नई दौलत ने
हमारी मानव-शक्ति के लिए उन देशों के विकास कार्यों में सेवा करने के लिए एक नई
खिड़की खोल दी। अंततः श्रमिको द्वारा भेजे
गये धन से, हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में कई गुना वृद्धि
हुई। अगला उदाहरण हमारे 1991 के आर्थिक संकट
से है, जब हमें विदेशी मुद्रा
भंडार को फिर से भरने के लिए हमे सोना गिरवी रखना पड़ा था। इस संकट में हमने 1956 की औद्योगिक
नीति को पूरी तरह से समाप्त कर दिया और औद्योगिक उदारीकरण के नए युग की शुरुआत की।
परिणाम में 1991 के बाद विकास की दर औसत 6-7% रही और हम 3% प्रति वर्ष की विकास वृद्धि की “हिंदू विकास दर” से छुटकारा पा सके। हम इसे “रचनात्मक विनाश” कहें जिस शब्द का पहली बार प्रयोग 1942 में ऑस्ट्रियाई
अर्थशास्त्री जोसेफ शुम्पीटर द्वारा किया गया था। शुम्पीटर “रचनात्मक विनाश” को निर्माण
प्रक्रिया में नई पद्धति के रूप में वर्णित करते है जो उत्पादकता
बढ़ाती हैं, लेकिन इस शब्द को
बाद में अर्थशास्त्र के
अलावा कई अन्य शाखाओं में भी उपयोग के लिए अपनाया गया है।
विनाश में सृजन के लिए एक शक्ति होती है। उदाहरण के लिए,
Covid19 खतरे के तहत स्वास्थ्य
सेवातंत्र संकट को कम करने के लिए तेजी से जुटा है - इसने टेली-थेरेपी और
टेली-मेडिसिन को जन्म दिया है। इसी तरह वर्चुअल मीटिंग
के लिए तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद संगठनों में शारीरिक बैठकें और परिणामस्वरूप यात्रायें जारी रही थी, Covid19 ने इसे बदल दिया । भारत में कॉल
सेंटर हैं लेकिन वे केवल महानगरों में केंद्रित हैं । छोटे शहरों से
भी ऐसा ही संभव था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। महामारी ने ऐसे व्यवसायों को
छोटे शहरों में स्थानांतरित करने के लिए मजबूर कर दिया और अब संगठन यह महसूस
कर रहे हैं कि प्रौद्योगिकी की बढ़ी हुई शक्ति के साथ व्यवसाय का स्थान अप्रासंगिक होता जा रहा है और छोटे शहरों में
व्यवसाय स्थापित करना कहीं बेहतर आर्थिक और सामाजिक प्रस्ताव है ।
सामाजिक और श्रम संबंधों में भी बदलाव आया है। पहले पिछड़े राज्यों के श्रमिको को महानगरों में स्थानीय लोगों द्वारा उनके अधिकार और स्थानों पर अतिक्रमण के
रूप में देखा जाता था। लेकिन कोविद 19 के कारण जब प्रवासी श्रमिक अपनी मातृभूमि वापस चले गए, तो इन शहरों और वहां स्थित औद्योगिक प्रतिष्ठानों के
स्थानीय लोगों को उनके योगदान के महत्व का एहसास हुआ और अब उन्हें वापस बुलाकर बेहतर शर्तों पर रोजगार दिया जा रहा है।
इस परिवर्तन का सबसे अच्छा उदाहरण भारतीय रेलवे में देखा जा सकता है। भारत में रेलवे लगभग 170 से अधिक वर्षों से मौजूद है । समय और अर्थव्यवस्था बदल गई लेकिन अपनी जड़ता
के कारण रेलवे स्वंय को नहीं बदल सकी। फिर आया Covid19
और यात्री-ट्रेन का संचालन पूरी तरह ठप हुआ। इस अवसर पर रेलवे ने लंबे समय से लंबित कई परियोजनाओं और रखरखाव कार्यों को
पूरा किया। अंतत: जब यात्री ट्रेनों को शुरु किया तो किराए में सभी रियायतें वापस ले ली गईं। इसके अलावा,
IIT मुंबई की मदद से, "शून्य बजट" अवधारणा पर आधारित नई समय सारणी बनाई गई है,
जिसने कई अवांछित ट्रेनों, स्टॉपेज और मार्गों को समाप्त कर दिया है।
यात्रियों की बढ़ी हुई भुगतान क्षमता और आराम की मांग के आधार पर,
ट्रेनो की संरचना को भी बदला जा
रहा है। इसी प्रकार खाद्य संरक्षण में नई प्रगति के आधार पर केवल बेस किचन से ही
खाद्य सामग्री एकत्र की जा रही है और "पेंट्री कारों" की जगह एक अतिरीक्त एसी-थ्री कोच लगाया गया है। इन सुधारों की सूची लंबी है और वे अन्य संगठनो
में भी हुये हैं।
सृजन के प्रत्येक कार्य में विनाश एक आवश्यक अंग है। विनाश सभी रचनात्मकता और प्रगति का एक प्रमुख
तत्व है। कुछ नया और अलग, कुछ ऐसा जो अभी
तक नहीं हुआ है, पुराने और
विशिष्ट के विनाश की मांग करता है। मनुष्य के रूप में सृजनशील न होने में कल्पना की कमियां या उदासीनता कारण हो सकते हैं पर वास्तविक समस्या है, हम नष्ट नहीं करना चाहते, विनाश में भाग नहीं लेना चाहते। चुंकि हम नष्ट नहीं
करते, हम निर्माण करने में असमर्थ हैं। हम विध्वंसक
बनने के इच्छुक नहीं हैं, अतः हम निर्माता नहीं बन सकते। हम नई संभावनाओं और वास्तविकताओं
की कल्पना करने की हिम्मत नहीं करते हैं क्योंकि ऐसा करने से हमारे द्वारा ही स्थापित वर्तमान तरीकों को नष्ट करना पड़ता है। विध्वंसक के रुप में हमारी पहचान हमें डराती है और हम स्वंय को विध्वंसक के रूप में नहीं देख सकते हैं या देखना नही चाहते। यहां तक कि अगर हम समझते हैं और स्वीकार करते हैं कि कुछ उच्च या बेहतर
बनाने के लिए कुछ चीजों-मूल्यों को नष्ट करने की आवश्यकता है या कुछ नष्ट हुआ है तो हम अक्सर किसी और को उनके विनाश के लिए
जिम्मेदार मानते/ ठहराते हैं ।
हालाँकि, अनजाने में हम सभी यह करते हैं। इच्छा और चयन के कार्य, जो हमारे मानव अस्तित्व की अनिवार्य रूप से विशेषता हैं,
एक साथ स्वीकारना और नकारना का संकेत देते हैं। हम कुछ नकारे बिना कुछ स्वीकार नहीं कर सकते
हैं । सरल शब्दों में, हम "नहीं" कहे बिना "हाँ" नहीं कह सकते और "हाँ" कहे बिना भी "नहीं" नहीं कह सकते। इसलिए,
मनुष्य के रूप में हम एक दोहरी पहचान को
स्वीकार करें और सार्थक रूप से उसे एक करें जो कि निर्माता और विध्वंसक दोनों है। जो भी एक निर्माता होना चाहता है, उसे पहले एक विनाशक होना
चाहिए और मूल्यों को तोड़ना आना चाहिए। इस प्रकार, उच्चतम बुराई उच्चतम अच्छाई है: लेकिन यह रचनात्मक है।
हमारा दायित्व उस विनाश में भाग लेना है जो उत्पादक सृजन की ओर ले जाता है। इससे हम अपनी पहचान के विध्वंसक पहलू को बेहतर ढंग से समझने में सक्षम होंगे
और खुद को "रचनात्मक विध्वंसक" के रूप में देख सकते
हैं, जो सृष्टि की सेवा में
विनाश करते हैं। यह मानसिक परिवर्तन विकास और रचनात्मक परिवर्तन के लिए हमारी
रचनात्मक क्षमता को खोलने की गुप्त कुंजी है।
कोविड-19 ने पुराने संतुलन या
यथास्थिति को नष्ट कर हमें आगे बढ़ने का अवसर दिया है। इस अर्थ में कि कोविड-19 ने सृजन के लिये आवश्यक (विनाश का) आधा कार्य कर दिया है कोविड-19 को दोष देने के बजाय, मानवता को इसके प्रति आभारी होना चाहिए कि अब हमें मनुष्य के रूप में केवल सृजन ही करना है। कोविड -19 महामारी के
प्रभाव से मानवता और समाज को नया रूप मिलने की संभावना है।
मेरा मानना है कि सभी शुरुआती चरण(start-up) की कंपनियों के पास भविष्य को आकार देने के लिए यह एक (once in a life) अवसर है। याद रखें विनाश उन व्यक्तियों और समाजों के लिए सृजन का कार्य बन
जाता है जो आगे बढ़ने और मलबे से कुछ नया बनाने के लिए पर्याप्त युवा और संकल्पित हैं।
हमेशा की तरह तर्कपूर्ण और विश्लेषणात्मक लेख!जानकारी देनेवाला! बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteThanks Kishori Tai.
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