जब हमारे दर्शन (गीता आदि) के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि, विश्व में, कुछ भी नष्ट नहीं किया
जा सकता है या उसका मूल्य कम नही हो सकता है तो WASTE (कचरा) मानव मन और समाज की एक कृत्रिम और गलत मान्यता ही है । यह समाज के आर्थिक-सामाजिक मूल्यों तथा उसकी बढ़ रही
समृद्धि से उत्पन्न एक अवांछित परिणाम (Adverse Side Effect) है।
तथाकथित कचरा (WASTE) प्रबंधन के चार स्तर हैं। 1. कचरे को एक अलग जगह इकठ्ठा कर दिया जाय. 2. कचरे का अधिकतम पुनः-उपयोग
हो। 3. उत्पादन -उपभोग प्रक्रिया ही ऐसी हो कि कचरा कम-से-कम बनें
4. अन्ततः प्रकृति द्वारा कचरे को किसी उपयोगी पदार्थ मे बदल दिया जाये । दुर्भाग्य
से हम अभी स्तर 1 पर हैं तथा स्तर 2 पर जाने
का प्रयत्न कर रहे हैं । अर्थात वर्तमान में कचरा
प्रबंधन में प्रमुख सोच यह है कि कचरा मानव गतिविधियों में अन्तर्निहित है और उसका एक मात्र समाधान निपटान ही है। कचरे के कम या शून्य उत्पादन के बारे में सोचना और उसे अनावश्यक उत्पाद की जगह पुन: उपयोग के
लिए मध्यवर्ती उत्पाद (Intermediate Product) के रूप
में मानना सामान्यतः अभी भी गायब है। इसे विस्तार से समझते हैं।
मान लें, सामग्री “अ” एक उपयोगी चीज
है और उपयोग के बाद रूपांतरित या बची हुई सामग्री “ब” है जिसके लिए वर्तमान में हमारे पास आर्थिक (सामाजिक,
धार्मिक) कारण से कोई उपयोग नहीं है। इसलिए आम भाषा में हम “ब” को कचरा या अवशिष्ट (WASTE) कहते हैं। लेकिन जरा सोचिए, क्या इसके तत्वों का आंतरिक मूल्य खो गया है? नहीं। हम “ब” को इसलिये छोड़ देते हैं, क्योंकि या तो वर्तमान में हमें “ब” के लिए कोई
उपयोग नहीं मिला है या वैकल्पिक सामग्री “स”, जिसके लिए “ब” का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, कम मूल्य पर उपलब्ध है। उदाहरण स्वरूप “अ” और “स” को शुद्ध पानी और
“ब” को अशुद्ध पानी समझकर स्पष्ट किया जा सकता है। इस तथ्य के बावजूद कि शुद्ध पानी की कमी है, हम बहुत कम मुल्य पर इसे उपलब्ध कराना जारी रखते हैं, इस प्रकार अशुद्ध
पानी “ब” को शुद्ध करने
और इसे पुनः “अ” शुद्ध पानी बनाने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत
महंगी दिखती है और इसे बड़े पैमाने पर कभी भी अपनाया नहीं जाता है। अतः जैसा की प्रारंभ मे कहा है, मूल रूप से कुछ भी बेकार नहीं है, लेकिन यह हमारे मानव समाज की मूल्य प्रणाली है जो एक उपयोगी
उत्पाद को अनुपयोगी घोषित कर देती है।
यह समस्या इस तथ्य से भी बढ़ जाती है कि कई मानवीय आदतें और सामाजिक
मूल्य ऐसे हैं कि सामग्री का उपयोगी जीवन समाप्त होने से पहले ही उसे फेंक दिया जाता
है। इस प्रकार कचरे का उत्पादन व्यक्ति और समुदाय की समृद्धि
के अनुपात में बढ़ता है जो पसंद और फैशन आदि
के नाम पर कई उपयोगी वस्तुओं को छोड़ देते हैं, जैसे क्योंकि
कुछ नया आ गया है, उपयोगी कारों, कपड़ों आदि को सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये बदल देना ( हमे निर्धारित
उपयोग हुये बगैर वस्तु को फेकने पर प्रतिबंध लगाना चाहिये ) । इस तरह भले ही समृद्धि-प्रौद्योगिकी ने मानव
जीवन को बेहतर बनाया है, इसने कचरे के
उत्पादन में भी अत्यधिक योगदान दिया है। हम इसमें कंपनियों के उन विज्ञापनो को भी जोड़ें जो कृत्रिम या नगण्य नयेपन (inconsequential addition or newness) के लिए नए
उत्पाद को बढ़ावा देती हैं और बिना किसी वैज्ञानिक प्रमाण के पहले के उत्पाद,
आदतों और मूल्यों को खराब-बेकार कह देती हैं।
उपरोक्त व्यवहार आर्थिक
(मांग-आपूर्ति-मूल्य), वैज्ञानिक (रूप
बदलने की लागत, समय आदि), सामाजिक (उपयोग आदि के बारे धारणा) परिस्थितीयों द्वारा निर्धारित होता हैं । यह समय के साथ बदलता हैं और उचित
नीतियों द्वारा बदला भी जा सकता है। गाय के गोबर और
मूत्र का ही उदाहरण लें, जिनकी उपयोगिता
के बारे में अधिक से अधिक तथ्य सामने आने के साथ ही ये वस्तुएं कचरे से दवा और प्राकृतिक उर्वरक के महत्वपूर्ण
स्रोत में बदल गई हैं। आशा करे कि निकट भविष्य में मानव सहित अन्य सभी पशुओं के के मलमूत्र के बारे में भी ऐसा
ही होगा। आज भी देश के कई हिस्सों में खेत को जैविक खाद मिल सके इसलिये किसान, चरवाहे (गडेरिया) से अनुरोध (और भुगतान) करते हैं कि वह अपनी भेड़ों को कुछ दिनों
के लिए उनके खेत में आराम करने के लिए रखे । मानव मल भी एक सदी पहले उर्वरक का एक स्रोत था, लेकिन प्रगति और सभ्यता के नाम पर हमने फ्लश-मोड प्रणाली को
अपनाया है और उर्वरक का एक स्रोत एक बड़े जल प्रदूषक (नदी और जल
निकायों तक पहुंचने वाला सीवरेज) बन गया है। पर फिर एक बार हम मानव मल - "सोन खाद" को प्रोत्साहन मिलता देख रहे हैं।
इसी तरह, अब छोटे स्तर पर ही
सही सरकार, उद्योग और समाज कचरा पदार्थों के पुन: उपयोग (स्तर 2) पर जोर दे रहे हैं। जैसे कृषि कचरे से जैव ईंधन, सीमेंट कारखाने की राख से ईंटें, प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाना आदि। टोक्यो ओलंपिक 2020 के लिए पदक
पुराने सामानों से ( जिनमें से ज्यादातर ई कचरा था) निकाली गई धातुओं से बनाये गये थे ।
इसी प्रकार, समाज में असमानता
को न्यायोचित न ठहराते हुए भी हमें यह याद रखना चाहिए कि इसी असमानता के कारण समृद्ध वर्ग द्वारा फेंकी गई कई सामग्री, जैसे बोतल, प्लास्टिक शीट, पैकेजिंग कार्टन आदि का जरूरतमंद व्यक्तियों द्वारा उपयोग करके कचरे को कम किया जा रहा है। पुणे में RCube चैरिटी स्टोर दान में प्राप्त सेकेंड हैंड ड्यूरेबल्स को
बेचने में लगा हुआ है। समस्या यह है कि जो समूह संसाधनों का दुरुपयोग करता है उसे
प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता है और जो समूह त्यागी
हुई वस्तुओं का उपयोग करता है उसे समाज में नीची दृष्टि से देखा जाता है। इसे बदला जाना चाहिए । हमें कचरा कम
करने में योगदान देने के लिये कूड़ा बीनने
वालों और स्क्रैप व्यापारीयों को भी उचित सामाजिक मान्यता देना चाहिए। यदि हम आर्थिक नीतियों (प्रोत्साहन / निरुत्साह) और सामाजिक व्यवहार
में परिवर्तन के माध्यम से एक आंदोलन चलाते हैं तो यह हो सकता है ।
इससे भी आगे जाकर हमे स्तर 3 पर काम करना होगा । कचरा प्रबंधन का उद्देश्य उत्पादों से अधिकतम व्यावहारिक
लाभ निकालना और कचरे की न्यूनतम मात्रा उत्पन्न करना होना चाहिए। कचरा प्रबंधन को उत्पाद के जीवन-चक्र में अंतर्निहित होना चाहिए। हमें डिजाइन के साथ शुरु कर, निर्माण, वितरण और प्राथमिक उपयोग के हर स्तर पर कचरे के उत्पादन का निऱीक्षण, परीक्षण (Audit) और नियंत्रण करना होगा। नीतियों का मूल आधार यह हो कि वे कचरे के उत्पादन को रोकने
के उपायों को बढ़ावा दे। हमें अंदर की 50 ग्राम/1 Sq meter वास्तविक सामग्री के लिए आधा किलो /5 Sq meter पेकेजिंग के चलन को बंद करना होगा। खुदरा सामान की
खुली बिक्री को बढावा देना होगा। कम कचरा उत्पादन करने वाला उत्पाद अधिक कचरा उत्पादन वाले उत्पादों की तुलना में कम कीमत वाला करना होगा।
अब कचरा प्रबंधन के स्तर 4 पर आते हैं। उपर लिखित सामग्री “ब” जिसे आज कचरा
कहा जाता है, कल का मूल्यवान संसाधन
है। यह रूपांतरण प्रक्रिया, मानव निर्मित (ऊपर वर्णित) या प्राकृतिक हो
सकती है। यह रूपांतरण एक सप्ताह (गीला जैव कचरा) या दस लाख वर्ष बाद हो सकता है । समुद्र में फेंका गया आज का प्लास्टिक कचरा शायद ईंधन में परिवर्तित हो जाय या विकास के प्रक्रिया में नई प्रजातियां उभर सकती हैं जो प्लास्टिक खा सकती हैं (प्लास्टिक खाने वाले नये Microb के प्रमाण मिले हैं) । यह कल्पना नही इतिहास है । आज के कैल्शियम, पोटैशियम आदि खनिज मृत पशुओं के
अवशेष हैं और कोयला आदि मृत पौधों के रूपांतरित रुप है। इसी तरह, कुछ अरब साल पहले उस समय की प्रजातियों के लिए ऑक्सीजन “जहरीली” गैस थी लेकिन फिर हम जैसी नई प्रजातियां
विकसित हुईं जिनके लिए ऑक्सीजन "जीवनदायीनी" गैस है।
निष्कर्ष दुनिया में प्रकृति के चक्र से एक संतुलन बनता है जिसमें कोई कचरा नहीं होता है। हमारा यह ग्रह और उस पर का सारा जीवन लाखों-अरबो वर्षों से जीवित
है क्योंकि प्राकृतिक प्रक्रियाएं जीवन और संसाधनो को पुन: चक्रित (Recycle) करती हैं। हालाँकि, हाल के दिनों में,
मानवीय गतिविधियाँ प्राकृतिक चक्रों को बिगाड़
रही हैं (जैसे जब हम बगीचे के कचरे को खाद के ढेर में जोड़ने के
बजाय प्लास्टिक की थैलियों में डालकर उन्हें लैंडफिल में भेजते हैं)। प्रकृति
रीसायकल करती है - क्या हमें भी नहीं करना चाहिए? हम हर संभव चीज को पुनर्चक्रित (Recycle) करके, नवीकरणीय (Renewable) संसाधनों से बने
उत्पादों का उपयोग करके और जहरीले उत्पादों (कीटनाशकों, प्लास्टिक आदि) का उपयोग न करके इस चक्र का हिस्सा बन सकते हैं। इस दिशा में सरकारी
हस्तक्षेप और सामाजिक परिवर्तन बहुत कुछ कर सकते हैं।
अंत में हमें न केवल प्रकृति से सीखना चाहिए बल्कि उस पर भरोसा भी करना चाहिए
कि अंतिम विश्लेषण में प्रकृति सभी (मानव निर्मित) कचरे को संसाधनों में बदल देगी
(समय ही एकमात्र कारक है)। हमारे लिये केवल यह
विकल्प या चुनाव है कि हम अपने लिए
अधिकतम सीमा तक संसाधनों का उपयोग ( स्तर 2,3
द्वारा) करते हैं या वर्तमान के कचरे को जमा होने देते है जो अन्य पीढ़ी, मानव प्रजाति या किसी अन्य विकसित प्रजाति के
लिए एक संसाधन होगा, लेकिन यह निश्चित रूप से
कहा जा सकता है कि, कचरा मानव मन का आविष्कार या पारगमन (Transit or In motion) घटना है और अन्ततः कोई (वस्तु) कचरा नहीं है।
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