उपस्थित सभी भक्तो को नमस्कार व गीता जयंती कि
शुभकामानायैं। गीता के अध्याय
10- विभुतियोग तथा अध्याय 11- विश्वदर्शन
योग में वर्णित भगवान के एश्वर्य, सर्वशक्तिमानता और
सर्वव्यापकता का वर्णन जानकर और फिर - ।।4.7-8।। यदा यदा हि
धर्मस्य और ।।9.22।। योगक्षेमं वहाम्यहम् श्लोको को कंठस्त कर हम
मान लेते हैं कि सब कुछ भगवान करेगें पर भगवान द्वारा हमारा
भार वहन करने के लिये उनके द्वारा हमसे क्या अपेक्षा है इस पर हमारा ध्यान नही
जाता । गीता के समापन मे भी भगवान ऐसा कुछ निश्चित नही कहते, वे कुछ आश्वासन जरुर देते हैं पर वह सशर्त है, और अंततः सब कुछ अर्जुन अर्थात स्वंय
मनुष्य पर छोड़ देते हैं । अतः दैनिक जीवन में उन्नति के लिये हमारा जीवन किस प्रकार का हो यह हम पर ही निर्भर और उसे गीता
के कुछ श्लोकों से समझने का प्रयत्न आज हम करेगें । प्रारभं में -अर्जुन कहते हैं ।।।1.36।। हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हम लोगों
को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा । पर भगवान कहते हैं ।।2.33।। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा,
तो अपने धर्म और कीर्ति का
त्याग करके पाप को प्राप्त होगा । यहाँ हमें दो बाते समझना होगी। 1. अर्जुन वर्तमान में
सामने खडे शत्रु को भुतकाल के संबधी या बंधु-बांधव समझने की गलती कर रहा था ।
अतः हम हमेशा वर्तमान मे रहकर प्रतिक्रिया दे या Respond कर उस अनुसार कार्य करे तो गलती नही होगी । 2. जो
कुछ हम सोचते हैं वह सत्य नही होता वह एक दृष्टिकोण होता है, यहाँ युद्ध के
प्रति दो अलग-अलग दृष्टिकोण है। हमारा दृष्टिकोण , हमारे संस्कार
द्वारा निर्धारित होता है । इसको समझने के लिये मन में जयचन्द का नाम ले और फिर
भीबिषण का नाम ले यद्यपि तर्कानुसार दोनो के कार्य एक जैसे है, हमारे संस्कारो
के कारण दोनो के प्रति हमारे मन मे अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं । अतः यदि हम
यह समझ ले और अपना ले कि एक दुसरा दृष्टिकोण भी होता है और वह उचित हो सकता है तो
जीवन कि बहुत सी कटुता और परस्पर संघर्ष से बचा जा सकता है। |
आगे बढते हैं -।।2.14।। हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियों के जो विषय
(जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख
देनेवाले हैं तथा आने-जाने वाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम
सहन करो। ।।5.22।। क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो
इन्द्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्त वाले और दुःख के ही कारण
हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता । पर हम, हमारे सामने जो अच्छी या
बुरी जो भी परिस्थिती आती है उसे हम स्थायी मान लेते है, और फिर हमारा व्यवहार
बदल जाता । हम या तो घमण्ड से फुल जाते हैं या निराशा मे आत्महत्या कर लेते हैं।
यदि हम स्वीकार कर ले कि यह सब अस्थायी है और बदलता रहेगा तो हमारा
मानसिक स्वास्थ बना रहेगा। |
पर यदि
मनुष्य इन विषयों-भोगो के चक्कर में पड जाय तो क्या होता हैं -। ।।2.62 -- 2.63।। विषयों का चिन्तन करने वाले
मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा
होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो
जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का
नाश हो जाता है । बुद्धि का नाश होने
पर मनुष्य का पतन हो जाता है। संक्षेप
में भगवान कहते हैं।।16.21।। काम, क्रोध और लोभ -- ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे
जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये
इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये। |
उपरोक्त श्लोकों से एसा लगता है
कि हमे सुख शातिं चाहिये तो संसार से विमुख होना पडेगां, संबध तोडने होगें
आदि-आदि । इसी भ्रम मे हम सोचते है गीता वृद्धावस्था मे पढने का ग्रथं है और हम
हमारे नवीन पिढ़ी को इससे दुर रखते हैं। मगर गीता के अनुसार ।।6.17।। दुःखों का नाश करने वाला योग तो
यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का तथा
यथायोग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है। शर्त
है ।।2.70।। जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से
जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है,
पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल
प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार
उत्पन्न किये बिना ही उसको प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं । इस प्रकार गीता किसी भी अति-
अर्थात Extreme way of life के विरुद्ध है और जीवन में
मध्य मार्ग का समर्थन करती है, वह सभी भोग पदार्थ के सेवन का आग्रह करती है। वह
केवल यह अपेक्षा करती है , भोग पदार्थ सेवन करते वक्त कोइ विकार अर्थात कामना
उत्पन्न न हो। यानि, गुलाब जामुन खाना कोइ बुराई नही है पर कल भी ये खाने को मिल
जाय यह कामना बुरी है। |
अब गीता मे कही गयी समता को
ले- ।।5.18।। ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त
ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं। और ।।14.24-25।। जो
धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है;
जो मिट्टी के ढेले, पत्थर
और सोने में सम रहता है ----- आदि- वह मनुष्य गुणातीत
कहा जाता है। इन श्लोकों का भी हम लोग गलत अर्थ निकालते हैं, और उसे अव्यवहारिक
कह देते हैं। कैसे हम गाय और कुत्ते से एक जैसै व्यवहार कर सकते हैं या मिट्टि या सोने को
एक समझ सकते हैं । मगर ध्यान पुर्वक श्लोक 5.18 संस्कृत मे पढें ते वहां शब्द
प्रयोग समदर्शिनः है न कि समवर्तिनः है। अर्थात, उन्हे आत्म स्वरुप एक मानना है, उनसे
व्यवहार एक नही करना है। हम व्यवहार अलग-अलग कर सकते है। ऐसा ही मिट्टि या सोने
के बारे में हैं उनके मिलने या खोने से हमारे मन स्थिती मे फर्क नही पडना चाहिये
मगर उनको, उनके मुल्यानुसार, सोने को तिजोरी में और मिट्टी को सडक पर रखे।
विज्ञान भी यह मानता है कि सभी जीव व पदार्थ मुलतः, क्रमशः समान सेल्स व समान
कणो से बने हैं। इस संदर्भ में एक और बात, कोई
व्यक्ति यदि अलग-अलग प्राणियों, पदाऱ्थों का विश्लेषण कर उनकि भिन्नताओं का संपुर्ण
वर्णन करता है,तो हम उसे विद्वान,ज्ञानी,ज्ञाता कह कर सबोंधित करते परतुं गीता कहती है-।।18.20।। जिस ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में
विभागरहित एक अविनाशी भाव-(सत्ता-) को देखता है, उस
ज्ञान को
तुम सात्त्विक समझो। |
अब सफलता-असफलता के बारें में-
हम अपनी सफलता अपने प्रयत्नो को मानते है और असफल होने पर किसी बाहरी कारण को
दोष देते हें, जैसे गरीबी, बिमारी इत्यादी, पर हम आसपास देखें तो पायेगें, हमसे
भी खराब हालात में अन्य लोगो ने सफलता पायी हैं। अभी-अभी 12वीं फेल, सिनेमा आया
है वह एक युवक की पुलिस अधिकारी बनने के संघर्ष कि वास्तविक कहानी है। वास्तव
हमारा मन ही हमारी हार जीत निश्चित करता है कोइ बाहरी कारण या व्यक्ति नही। श्रीकृष्ण
कहते हैं ।।6.5।। अपने
द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। -किसी भी
परिस्थिती के लिये स्वंय को ही उत्तरदायी
मानने से आपका व्यक्तित्व सुधरेगा और सामाजिक संबध भी सुधरेगें । |
गीता कि एक
और महान देन है। दैवी और आसुरी संपती
तथा तीन गुणानुसार मनुष्यों का विभक्तिकऱण । गुण व उनके परिणाम क्रिया के अनुसार
न होकर, करने के भाव अर्थात मनोवृत्ति के आधार पर हैं। वास्तव में संपुर्ण गीता
पद्धति आधारित न होकर भावानुसार ही है। इस प्रकार गुण के आधार पर न केवल हम
स्वंय को पहचान सकते बल्कि हमे मिलने वाले अतिंम परिणाम का भी पुर्वानुमान लगाकर
स्वंय मे सुधार ला सकते हैं। गीताअनुसार- ।।14.11।। जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों-(इन्द्रियों और अन्तःकरण-) में प्रकाश
(स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये
कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है। ।।14.12।। रजोगुण के बढ़ने पर
लोभ,
प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा -- ये वृत्तियाँ
पैदा होती हैं। ।।14.13।। तमोगुण के बढ़ने पर
अप्रकाश, अ-प्रवृत्ति, प्रमाद
और मोह -- ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं। |
इसी प्रकार
-आहार के भी तीन प्रकार कहें गये हैं और- ।।17.8।।आयु,
सत्त्वगुण, बल, आरोग्य,
सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर
रहनेवाले, हृदय को शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने -- ऐसे आहार
अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक
मनुष्य को प्रिय होते हैं। यहां पर आहार में केवल भोजन के
बारे मे कहा गया है, पर इसका विस्तार हम हमारी
अन्य इन्द्रियो, विशेषतः, कान और आंख द्वारा ग्रहण करने वाली जानकारी पर
भी लागु करे तो, मन-मस्तिष्क भी स्वस्थ रह सकता है। वास्तव में आध्यात्मिक
ग्रंथ, हमे देह पर ध्यान देने के बजाय आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करने को कहते
हैं, पर जिस तरह से हम इन्द्रियों
द्वारा कुछ भी ग्रहण कर लेते, Junk
Food लेते हैं और Whatsapp University से
ज्ञान प्राप्त करते हैं मैं नही समझता हम देह का भी ध्यान रख रहे हैं। प्रथम चरण
के रुप में हम अपने शरीर का ही संरक्षण
कर ले तो हमे बहुत लाभ होगा। |
अंत मे गीता में प्रतिपादित
मुख्य विषय कर्म ।-भगवान स्वंय कहते हैं- ।।18.46।। जिस परमात्मा से
सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है
और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपना कर्म कौनसा है। ।।3.35।। अच्छी तरह आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म
श्रेष्ठ है। आदि----- और ।।18.59।। अहंकार का आश्रय लेकर तू जो
ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है;
क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तेरे को युद्ध में लगा देगी। ।।18.46।। गीता में वर्णित धर्म का Religion अर्थ नही हैं । यह वर्णधर्म (Aptitude) ही है। मनुष्य स्व को अर्थात् अपने को जो मानता है, वह उसका स्वधर्म (कर्तव्य) है । जैसे कोई अपने को
कोई विद्यार्थी या अध्यापक मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायेगा । अतः
मनुष्य के रुप में सफलता के लिये हमें क्या करना है अर्जुन ने किया वही - अर्जुन बोले ।।18.73।।
-- हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो
गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। गीता कि शिक्षा अनुसार हम भी सर्वप्रथम-
स्वंय का स्वभाव (Aptitude) जाने, उसी के अनुसार लक्ष्य निर्धारित करें,स्व-स्वभाव के विरुद्ध परिवार या
समाज के प्रभाव मे कोइ कार्य न करे, मन
में कोई द्वन्द न रखें, मन को संयमित करे और बुद्धि को स्थिर रखे। फिर मेहनत
करें (कर्मयोग), ज्ञान प्राप्त करें(ज्ञानयोग) और अंततः विश्वास रखें (भक्तियोग)
कि आपको समृद्धि, सफलता, प्रभुत्व, स्थिरता आदि जरुर मिलेगीं। धन्यवाद। |
No comments:
Post a Comment