जो
केवल
अपने
लिये
ही
सब
कर्म
करते
हैं,
वे
पापी लोग तो
पाप का ही
भक्षण
करते
हैं (गीता
3-13), इसके बावजूद आसुऱी व्यक्ति प्रमुखतः आत्मकेन्द्रित होता है और उसे स्वंय की भौतिक प्रगति और प्रतिष्ठा की ही चिन्ता रहती है । इसके लिये वह अपने बल से दूसरों का और समाज का अहित करने से भी नही झिझकता । यहाँ धन, अन्य के अहित और स्वप्रतिष्ठा के लिये क्रमशः लोभ, क्रोध और अभिमान के अन्तर्गत किये गये मनोरथों का विवरण है ।
इतनी
वस्तुएँ
तो
हमने
आज
प्राप्त
कर
लीं
और
अब
इस
मनोरथ
को
प्राप्त
(पूरा) कर
लेंगे। इतना धन
तो
हमारे
पास
है
ही,
इतना
धन
फिर
हो
जायगा । ।।16.13।। आसुरी
प्रकृति वाले व्यक्ति
लोभ के
परायण
होकर
मनोरथ
करते
रहते
हैं
कि
हमने
अपनी चतुराई से, होशियारी से इतनी
वस्तुएँ
तो
प्राप्त
कर
लीं, इतनी
और
प्राप्त
कर
लेंगे, इतनी
वस्तुएँ
तो
हमारे
पास
हैं, इतनी
और
बढ़ा लेगें । जैसे जैसे उनका
लोभ
बढ़ता
जाता
है, वैसे वैसे उनके
मनोरथ
भी
बढ़ते
जाते
हैं । वे
चलते फिरते हुए, कामधंधा
करते
हुए, भोजन
करते
हुए, भी
धन
कैसे
बढ़े
इसका
चिन्तन
करते
रहते
हैं।
वे इस भ्रम मे रहते हैं कि अमुक-अमुक चीजें
इकट्ठी
कर
ली
जायँ, तो वे
सुख
और
आराम से रहेंगे।
ऐसे
मनोरथ
करते करते उनको
यह
याद
नहीं
रहता
कि
वे बूढ़े
हो
जायँगे
तो
उस सामग्री का क्या
करेंगे
और
मरते
समय
यह
सामग्री
उनके क्या
काम
आयेगी
और अन्त में इस
सम्पत्ति का मालिक
कौन
होगा (कु-संस्कारित कपूत
बेटा
सब
नष्ट
कर
देगा) और मरते समय
यह
धन-सम्पत्ति (की आसक्ति) स्वयं को (ही) दुःख
देगी।
प्रतिस्पर्धा
से
पूर्ण
इस
जगत्
में
उस
व्यक्ति
को
सफल
समझा
जाता
है
जिसके
पास
अधिकतम
धन
हो।
अतः धनार्जन
की
इस
धारणा
में
विरोधाभास
यह
है
कि
धन
प्राप्ति
से
सन्तोष
होने
के
स्थान
पर
अधिकाधिक
धन
की
इच्छा
बढ़ती
जाती
है।
इसके
विपरीत
स्थितप्रज्ञ
पुरुष
की
परिपूर्णता
ऐसी
होती
है
कि
जगत्
के
विषय
उसके
मन
में
किंचित्
भी
विकार
उत्पन्न
नहीं
करते
हैं
और
वही
पुरुष
वास्तविक
शान्ति
प्राप्त
करता
है
न
कि
लोभी पुरुष ।
वह
शत्रु
तो
हमारे
द्वारा
मारा
गया
और
उन
दूसरे
शत्रुओं
को
भी
हम
मार
डालेंगे।
हम
सर्व
समर्थ
हैं।
हमारे
पास
भोग-सामग्री
बहुत
है।
हम
सिद्ध
हैं।
हम
बड़े
बलवान्
और
सुखी
हैं।
।।16.14।। वे क्रोध के परायण
होकर
इस
प्रकार के मनोरथ
करते
हैं, वह
हमारे
साथ
वैर
रखता
था, उसको
तो
हमने
मार
दिया
है
और दूसरे जो
भी
हमारे
विरुद्ध हैं, उनको
भी
हम
मजा
चखा
देंगे ।
हम
धन, बल, बुद्धि
आदि में सब
तरह से समर्थ हैं। हम सिद्ध हैं और
एक
फूँक में सब को भस्म
कर
सकते
हैं। परन्तु जहाँ
वे स्वयं
हार जाते
हैं, वह
बात दूसरों को
नहीं कहते, जिससे
कि कोई
उन्हें
कमजोर न
समझ ले।
ऐसे
व्यक्तियों के भीतर
तो
जलन
होती
रहती
है
पर
ऊपर से डींग
हाँकते
रहते हैं ।
हम
धनवान्
हैं,
बहुत-से
मनुष्य
हमारे
पास
हैं,
हमारे
समान
और
कौन
है?
हम
खूब
यज्ञ
करेंगे,
दान
देंगे
और
मौज
करेंगे
-- इस तरह
वे
अज्ञान
से
मोहित
रहते
हैं । ।।16.15।। यह
अभिमानी
जीव
की
सफलता
का
गीत
है, जिसे
वह अपने
मन
में
सदैव
गुनगुनाता
रहता
है।
इस
आसुरी
लोरी
के
मादक
प्रभाव
में
मनुष्य
के
श्रेष्ठ
और
दिव्य
संस्कार
उन्माद
की
निद्रा
में
लीन
हो
जाते
हैं।
वे अभिमान के परायण
होकर
इस
प्रकार के मनोरथ
करते
हैं,
कितना
धन
हमारे
पास
है
कितना
सोना चाँदी, मकान, खेत, जमीन
हमारे
पास
है
कितने
अच्छे
आदमी, ऊँचे
पदाधिकारी
हमारे
पक्ष में हैं
हम
धन
और
जन के बल पर, रिश्वत और
सिफारिश के बल पर जो
चाहें, वही
कर
सकते
हैं। वे कहते हैं, आपको कई
आदमी
मिले
होंगे
पर
आप
बताओ, हमारे
समान
आपने
कोई
देखा
है
क्या ? थोड़ा सा यज्ञ
करने से, थोड़ा सा दान
देने से, थोड़े से ब्राह्मणों को भोजन
कराने
आदि से क्या
होता
है (लोगों को क्या
पता
लगेगा
कि
इन्होंने
यज्ञ
किया, दान
दिया है) हम
तो
ऐसे
यज्ञ, दान
आदि
करेंगे, जैसे
आज तक किसी ने न
किया हों।
बड़े
यज्ञ, दान से हमारा
नाम
अखबारों में निकलेगा।
किसी
धर्मशाला में कमरा बनवायेंगे, तो
उसमें
हमारा
नाम
खुदवाया
जायेगा, जिससे
लोगों को हमारा स्मरण रहेगा । हम कितने
बड़े
आदमी
हैं
हमें
सब
तरह से सब
सामग्री
सुलभ
है
अतः
हम
आनन्द से मौज
करेंगे । उनकी
महत्त्वाकांक्षा
यह
होती
है
कि
यज्ञ
और
दान
के
द्वारा
सम्पूर्ण
जगत्
को खरीद ले और
इस
प्रकार
सम्मानित
और
पूजित
होकर
मौज
करे ।
इस
प्रकार
ये लोग
केवल करेंगे, करेंगे
-- ऐसा मनोरथ
ही करते
रहते हैं, वास्तव में
करते कराते
कुछ नहीं, वे
करेंगे भी, तो
वह भी
नाम मात्र के
लिये करेंगे
।
अज्ञान और उससे उत्पन्न विपरीत ज्ञान से मोहित तथा गर्व और मद से उन्मत्त आसुरी पुरुष जगत् की ओर इसी भ्रामक दृष्टि से देखता है। उसे अपने धन, वैभव और कुल का इतना अभिमान होता है कि वह अपने समक्ष सभी को तुच्छ समझता है। ऐसी स्थिति में वह, स्वयं का तथा जगत् के साथ अपने संबंध का, त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करता है । इस कारण से वह स्वयं को समाज से अलग मानकर होकर मिथ्या अभिमान के महल में रहकर असंख्य प्रकार की मानसिक यातनाओं का कष्ट भोगता रहता है ।
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