मनुष्य को दैवी-संपत्ति के गुणों को जो उसे दुराग्रहों से मुक्त कराते है अपने नहीं मानना चाहिये; क्योंकि
यह देव – परमात्मा की संपत्ति है, व्यक्तिगत (अपनी)
किसी की
नहीं है। इसको व्यक्तिगत मानने से अभिमान आता है
और अभिमान आसुरी-संपत्ति का मुख्य लक्षण है।
श्री भगवान् बोले – भय का सर्वथा अभाव; अन्तःकरण की शुद्धि; ज्ञान के लिये योग में दृढ़
स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियों का
दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना; शरीर-मन-वाणी की
सरलता। ।।16.1।।अनिष्ट की आशंका से मनुष्य के भीतर जो घबराहट होती
है, उसका नाम भय है । नाशवान् वस्तुओं की प्राप्ति का उद्देश्य होने से ही अन्तःकरण में मल,
विक्षेप और आवरण -- ये तीन तरह के दोष आते हैं। संसार से रागरहित होकर भगवान में अनुराग हो जाना ही
अन्तःकरण की
सम्यक् शुद्धि है ।
परम तत्त्व का जो ज्ञान है, उस
ज्ञान के
लिये योग में
स्थित होना आवश्यक है। योग का अर्थ है --सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति/अप्राप्ति में, मान/अपमान में, निन्दा/स्तुति में,
रोग/निरोगता आदि में सम रहना । लोकदृष्टि में जिन वस्तुओं को अपना माना जाता है, उन
वस्तुओं को
सत्पात्र आदि का विचार रखते हुए
आवश्यकतानुसार दूसरों को देना दान है। लोक/ परलोक के
समस्त विषयों में इन्द्रियों का खिंचाव न होना ही इन्द्रियों के विषयों में राग रहित
होना या इन्द्रियों
का दमन है। अपने वर्ण, आश्रम,
परिस्थिति आदि के अनुसार जिस किसी समय जो कर्तव्य प्राप्त हो जायें, उसको दूसरों के हित की भावना से करना यज्ञ है। अपनी
वृत्तियों का,
अपनी स्थिति का ठीक तरह से अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। साधना करते हुए अथवा जीवन निर्वाह करते हुए देश,
काल, परिस्थिति आदि को लेकर जो विघ्न आदि
आते हैं उनको
प्रसन्नतापूर्वक सहना ही तप है
। यदि साधक यह सोचता है कि दूसरे लोग मुझे अच्छा समझें,
इसलिये मुझे सरलता से रहना चाहिये, तो यह एक प्रकार का कपट ही है।
अहिंसा, सत्य भाषण; क्रोध न करना; संसार
की कामना का त्याग; अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न
होना; चुगली न करना; प्राणियों पर दया
करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना; अन्तःकरण की कोमलता; अकर्तव्य करने में लज्जा;
चपलता का अभाव।।।16.2।। शरीर, मन, वाणी, भाव आदि के द्वारा किसी का भी किसी प्रकार से दुःख न देने या अनिष्ट न करने, न चाहने को 'अहिंसा' कहते हैं। संसार के सीमित पदार्थों को (व्यक्तिगत होने या न होने पर भी व्यक्तिगत मानकर) जो सुख-बुद्धि से भोगता है,
वह हिंसा ही करता है। अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल
दूसरों के
हित की
दृष्टि से
जैसा सुना, देखा, पढ़ा,समझा और निश्चय किया है, उससे न अधिक और न कम – वैसा का वैसा प्रिय शब्दों में कह देना सत्य है। दूसरों का अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में जो जलनात्मक वृत्ति
पैदा होती है वह क्रोध है। साधक को जीवन में बाहर का और भीतर का – दोनों का ही त्याग होना
चाहिये। इससे भी बाहर के त्याग की अपेक्षा भीतर की कामना का त्याग श्रेष्ठ है
जिससे तत्काल शान्ति (अन्तःकरण में रागद्वेष जनित हलचल का न होना)
की प्राप्ति होती है। किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट करके दूसरों में उसके प्रति दुर्भाव
पैदा करना चुगली है। दूसरों को दुःखी देखकर उनका
दुःख दूर करने की
भावना को
दया कहते हैं। इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध होने से अथवा दूसरों को भोग भोगते हुए देखने से मन का न ललचाना। बिना कारण दुःख देनेवालों और बैर रखनेवालों के प्रति भी अन्तःकरण में कठोरता का भाव न होना तथा
स्वाभाविक कोमलता का
रहना ।
कोई भी कार्य करने में
चपलता का
अर्थात् उतावलापन का
न होना ।
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि,
बैरभाव का न रहना और मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण
हैं।।।16.3।। महापुरुषों का संग मिलने पर उनके प्रभाव से प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करके
सद्गुण-सदाचारों में
लग जाते हैं। महापुरुषों की यह शक्ति ही 'तेज' है। बिना कारण
अपराध करने वाले को दण्ड देने की सामर्थ्य रहते हुए
भी उसके अपराध को
सह लेना और उसको माफ कर देना 'क्षमा' है। यह क्षमा मोह-ममता(पिता
द्वारा पुत्र को) , भय( अपने से बलवान् एवं क्रूर व्यक्ति को) और स्वार्थ(हमारा नुकसान न हो) को
लेकर भी की जाती है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल
परिस्थिति में
विचलित न होकर अपनी स्थिति में कायम रहने की शक्ति का नाम धैर्य है । जल, मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि होती है और दया, क्षमा, उदारता आदि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। बिना कारण अनिष्ट करने वाले के प्रति भी अन्तःकरण में
बदला लेने की भावना का न होना
। हमारा मान को न चाहने का स्वभाव तभी बन सकता है, जब हम दूसरों को किसी न किसी दृष्टि से अपने से श्रेष्ठ माने।
हर मनुष्य का उद्देश्य, दैवीसंपत्ति के जितने सद्गुण-सदाचार हैं उनको पूर्णतया जाग्रत करने का होना चाहिये। प्रकृति-(स्वभाव-) की भिन्नता से किसी में किसी गुण की कमी, तो किसी में किसी अन्य गुण की कमी रह सकती
है। ये कमीयां
ज्यों-ज्यों मिटती जाती है, त्यों-त्यों उत्साह
और उन कमीयों के
उत्तरोत्तर मिटने की संभावना
भी बढ़ती जाती है। इससे दुर्गुण-दुराचार सर्वथा नष्ट होकर अंततः सद्गुण-सदाचार (दैवी-संपत्ति) प्रकट हो जाते है जिनसे हम सदा निरोगी और
प्रसन्न रहगें।
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