मनुष्य, कामना, स्वार्थ
एवं अभिमान के वशीभूत होकर जिन कर्मों को करते हैं, उसके दो परिणाम होते हैं - बाहरी फल
अंश और भीतरी संस्कार अंश। दूसरों को दुःख देने पर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो
नुकसान होता है परन्तु जो दुःख देते हैं उन्हें भी कष्ट (बाहरी
फल अंश) भोगना
ही पड़ता है। इतना ही नहीं, दुराचारों के द्वारा अहंता (व्यक्तित्व-भीतरी
संस्कार अंश) में जो दुर्भाव बैठ जाते हैं, उनसे मनुष्य का बहुत भयंकर नुकसान होता है। जैसे, चोरी रूप
कर्म करने से पहले मनुष्य स्वयं चोर बनता है और चोरी करने से
अपने में
(अहंता में)
चोर का भाव
दृढ़ करता जायगा । ये
संस्कार मनुष्य का बड़ा भारी पतन करते हैं -- उससे बार बार
चोरी करवाते
है और फलस्वरूप कष्ट देते हैं। अतः जब तक मनुष्य अपनी अहंता में
बैठाये हुए दुर्भावों को नहीं मिटाता, तब तक वे दुर्भाव, दुराचारों को बल देते रहेंगे, उकसाते
रहेंगे और उनके कारण वे कष्ट, दुःख, संताप आदि
पाते ही रहेंगे।
कामनाओं
के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्तवाले, मोह-जाल में अच्छी
तरह से फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगों में अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं (कष्ट पाते हैं) । ।।16.16।। आत्मकेन्द्रित और विषयासक्त मनुष्य के मन में अनेक तरह की (जड की) चाहत
होती है, और उस एक-एक चाहत की
पूर्ति के लिये अनेक तरह के उपाय सोचे जाते
हैं अतः उसका एक निश्चय नही
होता और मन सदैव अस्थिर रहता है। अनेक प्रकार की भ्रामक
कल्पनाओं में वह अपने मन की एकाग्रता की क्षमता को क्षीण कर लेता है और उसकी
बुद्धि की स्थिति भी दयनीय ही होती है। ऐसे दोषपूर्ण मन और बुद्धि के द्वारा जगत्
का अवलोकन करने पर उसे सर्वत्र विषमता और विकृति के ही दर्शन होते हैं, समता और संस्कृति के नहीं।
अतः यदि समस्त वातावरण और परिस्थितियाँ अनुकूल भी हों, तो वह अपनी आन्तरिक पीड़ा और दुख के द्वारा उन्हें प्रतिकूल बना
देता है। इससे वह
यहीं पर स्वनिर्मित नरक में रहता हैं तथा अपने दुख और कष्ट सभी को वितरित करता रहता हैं।
अपने
को सबसे अधिक पूज्य माननेवाले, अकड़ रखनेवाले तथा धन और मान के
मद में चूर रहनेवाले वे मनुष्य दम्भ से अविधि पूर्वक नाम मात्र के यज्ञों से यजन करते हैं । ।।16.17।। आसुरी-सम्पत्ति वाले
व्यक्ति शास्त्र-विधि की परवाह न करके और दम्भपूर्वक ही यज्ञ, दान, पूजन आदि कर्म करते हैं । मन्दिरों में
जब कोई मेला-महोत्सव या
कोई मिनिस्टर,
अफसर, या बड़ा धनी आने वाला हो तब वे भगवान तथा मन्दिर को
अच्छी तरह सजायेंगे, जिससे ज्यादा लोग आ जायँ और खूब
भेंट चढ़ावा इकट्ठा हो जाये
या (पहचान से) उनके व्यापार में सहायता तथा मुकदमे आदि में लाभ हो । इसी प्रकार ये दूसरे को आता देखकर (दूसरे
मुझे अच्छा मानें, भक्त मानें आदि के लिये)
आसन लगाकर साधन भजन करने लगेगें परन्तु कोई देखने वाला न हो तो बातचीत आदि में लग जायँगे । इस प्रकार भगवान का
तो नाम मात्र का भजन पूजन होता है, पर वास्तव में पूजन होता है, स्वयं का और अन्य लोगों का ।
वे अहंकार, हठ, घमण्ड,
कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के
शरीर में रहनेवाले मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं तथा (मेरे और दूसरों के
गुणों में) दोष-दृष्टि रखते हैं । ।।16.18।। उपरोक्त में से एक अवगुण भी पतन के लिए पर्याप्त है, परन्तु आसुरी पुरुष इन सभी अवगुणों
से युक्त होते हैं।
इतना ही नहीं वे (दूसरों के सदगुणो को दोषपूर्ण
मानकर) इन्हें ही श्रेष्ठ गुण मानकर इनका अवलम्बन भी करते हैं और इनकी अभिव्यक्ति में
ही वे
सन्तोष का अनुभव करते हैं। ये
लोग जीवन की पवित्रता की उपेक्षा करते हैं
और बिना किसी पश्चाताप् के उसे अपवित्र करने में भी संकोच नहीं करते। केवल शुद्ध अन्तकरण
में ही परमात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से व्यक्त होता है, न
कि विषय वासनाओं से आच्छादित अशुद्ध अन्तकरण में। सदाचार का पालन चित्त को शुद्ध
करता है।
अनैतिकता और दुराचार, जीवन के सुमधुर संगीत को अपने
विकृत स्वरों के द्वारा निरर्थक ध्वनि
या शोर में परिवर्तित कर देता हैं। दुराचारी पुरुष
स्वयं अशान्त होकर अपने आसपास भी अशान्ति का वातावरण निर्मित करता है ।
यदि इन आसुरी गुणों से
युक्त केवल एक व्यक्ति भी सुखद परिस्थितियों को दुखद बना सकता है, तो
हम उस समाज/राष्ट्र
की दशा की भलीभांति कल्पना कर सकते हैं जहाँ बहुसंख्यक लोगों की ये ही धारणायें
होती हैं। वस्तुतः आज राष्ट्र
और समाज में
शान्ति, समृद्धि और सम्पन्नता का अभाव है, इसका मूल कारण
है, आसुरी
प्रकृति के
व्यक्तियों का राजनीति ,समाजसेवा के
कार्यक्षेत्र में प्रवेश करना है। वे अपने
सेवाभाव की घोषणा और प्रदर्शन तो करते हैं, परन्तु वास्तव में निस्वार्थ सेवा कर पाना उनके मूल स्वभाव के सर्वथा विपरीत होता है। समाज के ऐसे
सेवक नाममात्र के लिए सेवा-रूपी यज्ञ करते हैं। उनके कर्म ( अभिमान से विषाक्त, कामुकता
से रंजित, गर्व से विकृत और मिथ्या दर्शनशास्त्र
से) प्रायः दूषित होते हैं। इस प्रकार उनके सभी
कर्मों का एकमात्र परिणाम पूर्ण राष्ट्र
तथा समाज के लिये दुखदायी ही
होता है।
स्वर्ग और नरक का होना
हमारे अन्तकरण की समता और विषमता पर निर्भर करता है। मनुष्य में यह सामर्थ्य
है कि वह समता के दर्शन से नरक को स्वर्ग में परिवर्तित कर सकता है । आइयें हम सब इसके लिये संकल्प ले।
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